गौरा पंत जिन्हें “शिवानी” के नाम से जाना जाता है। बीसवीं सदी की सबसे लोकप्रिय हिंदी पत्रिका की कहानी लेखिकाओं में से एक थीं तथा भारतीय महिला आधारित उपन्यास लिखने में अग्रणी थीं। हिंदी साहित्य जगत में शिवानी एक ऐसी शख्सियत रहीं जिनकी हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू और अंग्रेजी पर बेहद अच्छी पकड़ रही। गौरा पंत “शिवानी” अपनी कृतियों में उत्तर भारत के कुमाऊं क्षेत्र के आसपास की लोक-संस्कृति की झलक दिखलाने और किरदारों के बेमिसाल चरित्र चित्रण करने के लिए जानी गई थी। हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए 1982 में उन्हें “पद्मश्री” से सम्मानित किया गया था। साठ और सत्तर के दशक में इनकी लिखी कहानियां और उपन्यास हिन्दी पाठकों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय हुए और आज भी लोग उन्हें बहुत चाव से पढ़ते हैं।
देवभूमि उत्तराखण्ड की मूल निवासी गौरा पंत ‘शिवानी’ का जन्म 17 अक्टूबर 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट, गुजरात में हुआ था। उनके पिता अश्विनी कुमार पांडे राजकोट रियासत में शिक्षक थे। उनके पिता रामपुर के नवाब के दीवान भी बने और वायसराय की बार काउंसिल के सदस्य भी रहे थे। उसके बाद उनका परिवार ओरछा की रियासत में चला गया था, जहां उनके पिता महत्वपूर्ण पद पर रहें। गौरा पंत के जीवन में इन सभी स्थानों का प्रभाव था और विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं के सम्बंध में एक विशेष अंतर्दृष्टि थी, जो उनके अधिकांश कार्यों में परिलक्षित होती थी। गौरा पंत की पहली कहानी 1935 में बारह साल की उम्र में हिंदी बाल पत्रिका “नटखट” में प्रकाशित हुई थी। गौरा पंत को रवींद्रनाथ टैगोर के विश्व-भारती विश्वविद्यालय शांति निकेतन में अध्ययन के लिए भेजा गया था। जिसमें वह 9 वर्षों तक शांति निकेतन में रहीं और 1943 में स्नातक शिक्षा के बाद छोड़ दिया था।
शांति निकेतन में बिताए समय के अनुभव से उनका गंभीर लेखन शुरू हुआ था। 1951 में धर्मयुग में उनकी लघुकथा “मैं मुर्गा हूँ” प्रकाशित हुई और वह गौरा पंत से शिवानी बन गईं। शिवानी का विवाह शुकदेव पंत से हुआ जो उत्तरप्रदेश के शिक्षा विभाग में कार्यरत थे, इसी कारण उनका परिवार लखनऊ में बसने से पहले इलाहाबाद और नैनीताल सहित विभिन्न स्थानों की यात्रा करने लगा था, जहां वह अपने अंतिम दिनों तक रहीं। केवल 12 वर्ष की उम्र में पहली कहानी प्रकाशित होने से लेकर 21 मार्च 2003 को उनके निधन तक उनका लेखन निरंतर जारी रहा था। शिवानी ने अपने जीवन के अंत में आत्मकथात्मक लेखन किया था, जो पहली बार उनकी पुस्तक शिवानी की श्रेष्ठ कहानियां में देखा गया। उनकी मृत्यु के बाद भारत सरकार ने वर्णित किया “हिंदी साहित्य में उनके योगदान के रूप में शिवानी की मृत्यु ने हिंदी साहित्य जगत ने एक लोकप्रिय और प्रतिष्ठित उपन्यासकार खो दिया है, इस शून्य को भरना मुश्किल है”।
शिवानी को कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने का श्रेय जाता है। वह कुछ इस तरह लिखती थीं कि लोगों की उसे पढ़ने को लेकर जिज्ञासा पैदा होती थी। उनकी भाषा शैली कुछ-कुछ महादेवी वर्मा जैसी रही पर उनके लेखन में एक लोकप्रिय किस्म का मसविदा था। उनकी कृतियों से झलकता है कि उन्होंने अपने समय के यथार्थ को बदलने की कोशिश नहीं की है। शिवानी की कृतियों के चरित्र चित्रण में एक तरह का आवेग दिखाई देता है, वह चरित्र को शब्दों में कुछ इस तरह पिरोकर पेश करती थीं जैसे पाठकों की आंखों के सामने राजा रविवर्मा का कोई खूबसूरत चित्र तैर रहा है। उनके पहले उपन्यास “लाल हवेली” ने साठ के दशक की शुरुआत में उनकी प्रतिष्ठा स्थापित की थी। उन्होंने संस्कृतनिष्ठ हिंदी का इस्तेमाल किया था।
जब शिवानी का उपन्यास कृष्णकली प्रकाशित हो रहा था तो हर जगह इसकी चर्चा होती थी। उनके उपन्यास ऐसे हैं, जिन्हें पढ़कर यह एहसास होता था कि वह खत्म ही न हों, उपन्यास का कोई भी अंश उसकी कहानी में पूरी तरह डुबो देता था। शिवानी भारतवर्ष के हिंदी साहित्य के इतिहास का बहुत प्यारा पन्ना थीं, अपने समकालीन साहित्यकारों की तुलना में वह काफी सहज और सादगी से भरी थीं। उनकी कृतियों का पाठकों की पीढ़ियों के लिए एक शाश्वत आकर्षण है। उनका साहित्य के क्षेत्र में योगदान बड़ा है, वह एक विपुल लेखिका थीं, उनकी ग्रंथ सूची में 40 से अधिक उपन्यास, कई लघु कथाएं और सैकड़ों लेख और निबंध शामिल हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृतियों में चौदह फेरे, कृष्णकली, लाल हवेली, श्मशान चंपा, भारवी, रति विलाप, विषकन्या, अपराधिनी शामिल हैं। शिवानी ने अपनी लंदन यात्रा के आधार पर “यात्रीकी” और रूस की अपनी यात्रा के आधार पर “चरिवती” जैसे यात्रा वृतांत भी प्रकाशित किए हैं।
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