गुमानी पंत वर्तमान उत्तराखण्ड के तिब्बत और नेपाल की सीमा से लगे पिथौरागढ़ में तत्कालीन कुमाऊँ और गढ़वाल के राजाओं के दरबार में राजकवि रहे। वह संस्कृत भाषा और हिन्दी भाषा के राजकवि के साथ कुमाऊँनी, नेपाली, खड़ी बोली के भी प्रथम कवि थे। प्रसिद्ध इतिहासकार ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक “लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया” में गुमानी पंत को कुर्मांचल का प्राचीन कवि माना है। डॉ. भगत सिंह के अनुसार कुमाऊँनी भाषा में लिखित साहित्य की परंपरा 19वीं शताब्दी से मिलती हैं और यह परंपरा प्रथम कवि गुमानी पंत से लेकर वर्तमान तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है, इन दो दृष्टांतों से ही यह सिद्ध हो जाता है कि गुमानी पंत ही प्राचीनतम कवि थे।
गुमानी पंत का जन्म पिता देवनिधि पंत और माता देवमंजरी के घर 10 मार्च सन 1790 में देवभूमि उत्तराखण्ड में उधमसिंह नगर के काशीपुर में हुआ था। बाल्यकाल में उनका नाम लोकरत्न पंत था, लेकिन पिता प्रेमवश इन्हें ‘गुमानी’ कहते थे, कालांतर वह इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके पूर्वज चन्द्रवंशी राजाओं के राजवैद्य थे। कुशाग्र बुद्धि गुमानी ने विद्याध्ययन के पश्चात देशाटन हेतु भारत के विभिन्न स्थानों की यात्रा की तत्कालीन देश, स्थिति, राजनीति का अध्ययन करते हुए वह भारत के विभिन्न स्थानों पर घूमते रहे। राजकवि के रूप में गुमानी पंत सर्वप्रथम काशीपुर नरेश गुमानसिंह देव की राजसभा में नियुक्त हुए थे। तत्कालीन समय के अन्य राजाओं द्वारा भी उन्हें सम्मान प्रान्त हुए थे। टिहरी नरेश सुदर्शन शाह के दरबार में भी वह राजकवि के रूप में रहे थे। जनकवि गुमानी पंत ने अनेक ग्रंथों की रचना की किन्तु वह मूलतः संस्कृत भाषा के कवि थे और उन्होंने नेपाली, गोरखाली, कुमाऊनी, खड़ी बोली में भी उन्होंने कुछ रचनाएँ की हैं। तत्कालीन समय में साधनों के अभाव में इनकी लिखी कविताएँ स्वान्तः सुखाय ही रही। पहाड़ी कागज अथवा भोजपत्र ही तब लिखने हेतु सामग्री थी, अतः उन्हीं में कविताएँ लिखी गयीं और उसी प्रकार वह समाप्त हो गई थीं। गुमानी पंत द्वारा विभिन्न भाषाओं में लिखी गई कुछ कविताओं का संग्रह संस्कृत भाषा के अध्यापक देवीदत्त पाण्डेय राम कॉलेज, अल्मोड़ा ने सन 1847 में मुद्रित करवाया था। श्रेष्ठ कवि गुमानी पन्त बाबू हरीशचन्द्र से कई दशाब्दी पूर्व से ही खड़ी बोली के सर्वप्रथम कवि है, जिनको जन्म देने का श्रेय कुर्मांचल को है।
गुमानी पंत तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों का सम्यक ज्ञान रखते थे। उनके कृतित्व में औपनिवेशिक शासन के कुप्रभावों तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों की सटीक आलोचना दृष्टिगत होती है। उन्होंने गोरखाओं का अत्याचारी शासन, अंग्रेजी शासन का कठोर दमन चक्र व बेगार की पीड़ा को स्वयं देखा था। गुमानी पंत का मानना था यदि आपसी फूट न होती तो भारत में अंग्रेजी शासन कभी स्थापित न होता। आम धारणा यह है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार करने में सैनिकों, राजाओं और किसानों ने मुख्य योगदान किया था, लेकिन गुमानी, मौलाराम जैसे कवियों की रचनाएँ बताती है कि तत्कालीन रचनाकारों और लोक कलाकारों ने भी सन 1857 में भारत के प्रथम स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम के लिये लोगों को प्रेरित किया होगा। जब ब्रिटिश कम्पनी शासन के विरुद्ध असंतोष भले ही जन्म लेने लगा हो, लेकिन इसके व्यापक प्रचार प्रसार में अभी देर थी, उस समय गुमानी पंत जैसे रचनाकार अपने-अपने क्षेत्रों में औपनिवेशिक सत्ता का चरित्र जनता के सामने प्रस्तुत कर रहे होंगे। किन्तु पर्याप्त संसाधनों के अभाव में न तो जनता तक पहुँच सके, न ही चर्चा में आ सके थे। तीन-तीन ऐतिहासिक युगों के संक्रमणकाल वाली कवि की रचनाएँ एक ओर आधुनिकता का संकेत थीं दूसरी और ऐतिहासिक दस्तावेज इन अर्थों में भी आधुनिक थे कि उन्होंने सम-सामयिक घटनाओं का यर्थाथ चित्रण किया है। यह आधुनिकता सौ वर्ष बाद राष्ट्रीय भावनाओं की सटीक अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनती है। वह सांस्कृतेतिहासिक भारत और भाषा के साथ तालमेल बैठाने वाले समर्थ कवि थे।
सन 1815 में जब गोरखों को परास्त कर ईस्ट इंडिया कंपनी ने उत्तराखण्ड को अपने कब्जे में लिया तो अंग्रेजों को बर्बर गोरखों से निजात दिलाने वाले मुक्तिदाता के रूप में देखा गया था, लेकिन शीघ्र ही वह अंग्रेजों की रीति-नीति से वाकिफ हो गए थे। गुमानी पंत अंग्रेज अधिकारियों की दुर्नीतियों की निन्दा करते हैं और उन्होंने अंग्रेजी व्यवस्था को कलियुग की संज्ञा दी थी। भारत का प्रथम स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम अभी बहुत दूर था, पुनर्जागरण की लहर देश के कुछ ही हिस्सों को छू पायी थी। उत्तराखण्ड का पर्वतीय क्षेत्र इस लहर से अछूता था, उस समय में भी औपनिवेशिक शासन विरोधी चेतना का प्रचार प्रसार करना कवि गुमानी पंत की दूरदर्शिता का परिचायक है। वह भलीभांति जानते थे गाँव के लोगों के सरोकार की भाषा क्या होनी चाहिये तथा राष्ट्र की हुकूमत पर किस भाषा में कविता करके असर दिखाएगी। गुमानी पंत ने देशकाल व परिवेश में हो रहे छोटे-बड़े सभी परिवर्तनों पर अपनी यर्थाथ दृष्टि रखी थी। अंग्रेजी राज्य व्यवस्था की जो खामिया उन्होंने दिखाने का प्रयास किया वह आज भी प्रासंगिक हैं। गुमानी पंत की कविताओं में मध्यकालीन प्रवृत्तियों का आभास होता है साथ ही आधुनिकता का संचरण भी दिखायी देता है। उनके समय कुमाऊँ में चन्द और गढ़वाल में पवारों की राजशाही का अन्त हो रहा था गोरखाओं का क्रूर शासन प्रारम्भ हो चुका था। गोरखों की शासन समाप्ति के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन हुआ था। अपनी प्रौढ़ होती आयु के साथ गुमानी पंत ने ब्रिटिश सत्ता का भारत में सुदृढ़ीकरण देखा 56 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया था। सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से 11 वर्ष पूर्व ही उनका निधन हो चुका था, परन्तु उनकी रचनाएँ इस तथ्य की परिचायक है कि उनकी सोच समय से कितनी आगे थी।
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जनकवि गुमानी विरचित ग्रंथों की संख्या लगभग 18 कही जाती है, जिनमें कृतियाँ रामनामपंचपंचाशिका, राम महिमा, गंगा शतक, जगन्नाथश्टक, कृष्णाष्टक, रामसहस्त्रगणदण्डक, चित्रपछावली, कालिकाष्टक, तत्वविछोतिनी-पंचपंचाशिका, रामविनय, वि्ज्ञप्तिसार, नीतिशतक, शतोपदेश, ज्ञानभैषज्यमंजरी आदि प्रमुख हैं। उच्च कोटि की उक्त कृतियों के अलावा हिन्दी, कुमाऊंनी और नेपाली में भी कई कवितायें दुर्जन दूषण, संद्रजाष्टकम, गंजझाक्रीड़ा पद्धति, समस्यापूर्ति, लोकोक्ति अवधूत वर्णनम, अंग्रेजी राज्य वर्णनम, राजांगरेजस्य राज्य वर्णनम, रामाष्टपदी, देवतास्तोत्राणि आदि रचित हैं।
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