आज से दो-ढाई दशक पूर्व तक खाटू श्यामजी का नाम केवल राजस्थान में ही प्रसिद्ध था। मगर बीते कुछ वर्षों में खाटू श्यामजी की ख्याति न केवल समूचे भारत अपितु पूरे विश्व में फैल चुकी है। जनआस्था है कि खाटू बाबा के दर्शनमात्र से श्रद्धालुओं के जीवन में खुशियों के भंडार भर जाते हैं। खाटू श्याम धाम का फाल्गुन मेला राजस्थान के प्रमुख मेलों में गिना जाता है। 22 फरवरी से प्रारम्भ हुआ खाटू श्याम धाम का सुप्रसिद्ध लक्खी फाल्गुन मेला इस वर्ष 4 मार्च तक चलेगा। इस मेले में आकर लाखों श्रद्धालु खाटू श्याम बाबा का दर्शन-पूजन कर मनौतियां मांगते हैं और इच्छा पूरी होने पर अगले साल पुनः यहां आकर बाबा के दरबार में माथा टेक आभार जताते हैं। फाल्गुन माह में शुक्ल पक्ष की ग्यारस (एकादशी तिथि) इस मेले की सबसे महत्वपूर्ण तिथि होती है। इस दिनखाटू बाबा का दर्शन पूजन अत्यंत शुभ फलदायी माना जाता है।
गौरतलब हो कि राजस्थान के सीकर जिले के खाटू नामक स्थान में स्थित श्याम बाबा का अति प्राचीन पौराणिक मंदिर लाखों लोगों की प्रगाढ़ आस्था का अनूठा केंद्र है। मान्यता है कि खाटू श्याम बाबा ने ही द्वापर युग में हुए महाभारत के युद्ध में बर्बरीक नामक धनुर्धर के रूप में अहम भूमिका निभायी थी। श्याम बाबा के इस लोकप्रिय मंदिर की सबसे खास बात यह है कि इन्हें भगवान कृष्ण का कलियुगीन अवतार माना जाता है और यहां उनके धड़ विहीन शीश की ही पूजा होती है। महाभारत और स्कन्धपुराण में खाटू श्याम बाबा से जुड़ा एक अत्यंत रोचक कथानक वर्णित है। कहते हैं कि जब कौरव-पांडवों में युद्ध होना सुनिश्चित हो गया तो एक वीर वनवासी नवयुवक ने भी अपनी मां से उस युद्ध में शामिल होने की आज्ञा मांगी। मां ने सहर्ष अनुमति देते हुए कहा- ‘जा बेटा! हारे का सहारा बनना।‘ उसने मां को वचन दिया कि वे हारे का ही सहारा बनेंगे। वह वीर नवयुवक था महाबली भीम एवं हिडिम्बा के वीर पुत्र घटोत्कच व उसकी वीरांगना पत्नी मोरवी का पुत्र बर्बरीक। कहा जाता है कि उनका यह नाम उनके बब्बर शेर के समान घने बालों के कारण पड़ा। वे बाल्यकाल से ही बहुत वीर थे। उन्होंने युद्धकला अपनी मां से सीखी थी तथा घोर तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर उनसे तीन अमोघ बाण वरदान में प्राप्त किये थे।
महाभारत के सूत्रधार भगवान श्रीकृष्ण बर्बरीक की वीरता व महादेव से हासिल उन बाणों की शक्ति से पहले से परिचित थे, इसलिए वे ब्राह्मण का वेष बना कर युद्ध क्षेत्र की ओर बढ़ रहे बर्बरीक के पास गये और परिचय जान उन्होंने बर्बरीक से पूछा – क्या तुम बिना सेना के इस महायुद्ध में भाग लोगे? अस्त्र-शस्त्र के नाम पर तुम्हारे पास सिर्फ एक धनुष और तूणीर में केवल तीन बाण दिख रहे हैं, क्या इनके बल पर अपना पराक्रम दिखाओगे? इस पर बर्बरीक ने विनम्रता से कहा- ब्राह्मण देवता ! मां के आशीष से मैं हारे का सहारा बनूंगा और आप महादेव द्वारा प्रदत्त इन बाणों को साधारण न समझें। इस महा युद्ध के लिए तो मेरा एक ही बाण का काफी है, यदि तीनों बाण चल गये तो सृष्टि का समूल नाश हो जाएगा। यह सुनकर ब्राह्मणदेव परीक्षा लेने की दृष्टि से उनसे बोले- क्या तुम सामने के उस पीपल के पेड़ के पत्तों को एक बाण से वेध सकते हो? बर्बरीक ने कहा – प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या जरूरत ! यह कहकर बर्बरीक ने पीपल की ओर लक्ष्य कर जैसे ही बाण संधान किया, सहसा लाखों बाण प्रकट हो कर पीपल के पेड़ के पत्तों को बेधने लगे। यह देखकर उन ब्राह्मण ने एक पत्ते को चुपके से अपने पैर के नीचे छिपा लिया। यह देख बर्बरीक बोले -मेरे लक्ष्य से पैर हटा लीजिए ब्राह्मण देव, नहीं तो यह आपके चरण भी बेध देगा; और ब्राह्मण के पैर हटते ही बाण ने उस आखिरी पीपल के पत्ते को भी बेध दिया। तब बर्बरीक के शस्त्र कौशल की प्रशंसा कर ब्राह्मण देव ने कहा कि वीरता की परीक्षा में तो तुम पास हो गये पर क्या तुम इतने ही बड़े दावीर भी हो? इस पर बर्बरीक ने कहा-आप मांगकर देख लीजिए, मैं आपको वचन देता हूं कि पीछे नहीं हटूंगा। तब ब्राह्मण ने उनसे उनके शीश का दान मांगा, यह सुनकर बर्बरीक चौंक उठे और बोले- ब्राह्मण देव ! आप अपना वास्तविक स्वरूप दिखाइए, क्योंकि कोई ब्राह्मण कभी ऐसा दान मांग ही नहीं सकता। तब बर्बरीक की प्रार्थना पर ब्राह्मण वेशधारी श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना वास्तविक रूप दिखाया और अन्य कोई वर को मांगने कहा। तब बर्बरीक बोले कि उनकी पूरा युद्ध देखने की इच्छा है। इस पर श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के कटे शीश को खाटू नामक स्थान पर एक पहाड़ी पर स्थापित कर दिया। वहीं से बर्बरीक ने महाभारत का पूरा युद्ध अपनी आंखों से देखा। श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को यह वरदान भी दिया कि कलयुग में लोग उन्हें उनके अवतार की तरह पूजेंगे। तभी से यह स्थान खाटू के श्याम बाबा के मंदिर के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस स्थान पर मूल मंदिर का निर्माण 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कुंवर द्वारा कराया गया था। उसके बाद मारवाड़ के शासक दीवान अभय सिंह ने सन 1720 ई. में इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था।
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