स्वामी विवेकानंद और नारी जागरण का शंखनाद

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भारत का जिक्र होते ही मानस पटल पर जो आभा उभरती है वह शक्ति की है। स्त्रियों की स्वतंत्र अस्मिता, उनके विचार स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने उस समय नारी जागरण का शंखनाद किया था, जब भारत पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘वैदिक धर्म में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं किया गया है। क्या तुम्हें स्मरण है कि विदेहराज जनक की राजसभा में किस प्रकार धर्म के गूढ़ तत्वों पर महर्षि याज्ञवल्क्य से वाद-विवाद हुआ था? इस वाद-विवाद में ब्रह्मवादिनी गार्गी ने मुख्य रूप से भाग लिया था। उन्होंने कहा था, ‘मेरे दो प्रश्न मानो कुशल धनुर्धारी के हाथ में दो तीक्ष्ण वाण हैं।’ वहां पर उनके स्त्री होने के संबंध में कोई प्रसंग तक नहीं उठाया गया है। आपको विदित ही होगा कि प्राचीन गुरुकुलों में बालक और बालिकाएं समान रूप से शिक्षा ग्रहण करते थे। इससे अधिक साम्यता और क्या हो सकती?’

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, ‘मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि जिस जाति ने सीता को उत्पन्न किया, चाहे वह उसकी कल्पना ही क्यों न हो, उस जाति में स्त्री जाति के लिए इतना अधिक सम्मान और श्रद्धा है जिसकी तुलना संसार में हो ही नहीं सकती।…जहां तक गृहस्थ धर्म का संबंध है, मैं बिना संकोच के कह सकता हूं कि भारतीय प्रणाली में अन्य देशों की अपेक्षा अनेक सद्गुण विद्यमान हैं।’ स्वामी जी गृहस्थों को हीन नहीं मानते थे। उनका विचार था कि गृहस्थ भी ऊंचा और संन्यासी भी नीचा हो सकता है- ‘संन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद नहीं करता। संन्यासी हो या गृहस्थ- जिसमें भी मुझे महत्ता, हृदय की विशालता और चरित्र की पवित्रता के दर्शन होते हैं, मेरा मस्तक उसी के सामने झुक जाता है।’

स्वामी विवेकानन्द की उद्घोषणा है ‘भारत! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयंती हैं, मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य हैं सर्वत्यागी उमानाथ शंकर। मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, तुम्हारा धन और तुम्हारा जीवन इंद्रिय सुख के लिए अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं है। मत भूलना कि तुम जन्म से ही माता के लिए बलि स्वरूप रखे गये हो। मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है।’

स्वामी विवेकानंद में नारियों के प्रति असीम उदारता का भाव था। वे कहते थे कि ‘ईसा अपूर्ण थे, क्योंकि जिन बातों में उनका विश्वास था, उन्हें वे अपने जीवन में नहीं उतार सके। उनकी अपूर्णता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने नारियों को नरों के समकक्ष नहीं माना। असल में, उन्हें यहूदी संस्कार जकड़े हुए था, इसलिए वे किसी भी नारी को अपनी शिष्या नहीं बना सके। इस मामले में बुद्ध उनसे श्रेष्ठ थे, क्योंकि उन्होंने नारियों को भी भिक्षुणी होने का अधिकार दिया था।’

स्वामी जी से किसी पत्रकार ने पूछा ‘स्वामी जी, तो क्या भारतीय स्त्री जीवन के संबंध में हम इतने संतुष्ट हैं कि हमारे समक्ष उसकी कोई भी समस्या नहीं है?’

स्वामी जी, ‘नहीं, बहुत सी समस्याएं हैं…और ये समस्याएं बड़ी गंभीर हैं, परंतु इनमें से कोई भी ऐसी नहीं हैं जो शिक्षा रूपी मंत्र बल से हल न हो सके। पर हां, शिक्षा की सच्ची कल्पना इसमें से कदाचित ही किसी को हो।’

प्रश्न -‘तो शिक्षा की आप क्या परिभाषा देते हैं?’

स्वामी जी ने स्मित हास्य से कहा, ‘….शिक्षा वह है जिससे मनुष्य की मानसिक शक्तियों का विकास हो। वह केवल शब्दों का रटना मात्र नहीं है। वह व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का ऐसा विकास है, जिससे वह स्वमेव स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर ठीक- ठाक निश्चय कर सके। हम चाहते हैं कि भारत की स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाए, जिससे वह निर्भय होकर भारत के प्रति अपने कर्तव्यों को भली भांति निभा सकें और संघमित्रा, लीला, अहिल्याबाई तथा मीराबाई आदि भारत की महान देवियों द्वारा चलायी गई परम्परा को आगे बढ़ा सकें एवं वीर-प्रसूता बन सकें। भारत की स्त्रियां पवित्र और त्यागमूर्ति हैं क्योंकि उनके पास वह बल और शक्ति है, जो सर्वशक्तिमान परमात्मा के चरणों में सर्वार्पण करने से प्राप्त होती।’ स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए स्वामी जी कहते हैं, ‘हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुंचा देना चाहिए जहां वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है और न किसी को करना ही चाहिए। और हमारी भारतीय नारियां संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भांति इसे करने की क्षमता रखती हैं।’

स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था, ‘स्त्री जाति के प्रश्न को हल करने के लिए आगे बढ़ने वाले तुम हो कौन? क्या तुम हर एक विधवा और हर एक स्त्री के भाग्यविधाता भगवान हो? दूर रहो! अपनी समस्याओं का समाधान वे स्वयं कर लेंगी। विवेकानंद उद्घोष करते हैं, ‘नारियां महाकाली की साकार प्रतिमाएं हैं। यदि तुमने उन्हें ऊपर नहीं उठाया तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई अन्य मार्ग है। संसार की सभी जातियां नारियों का सचमुच सम्मान करके ही महान हुई हैं। जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न आगे उन्नति कर सकेगी।’

एक पत्रकार ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि आपका इस देश की स्त्रियों के लिए क्या संदेश है। उन्होंने उत्तर दिया, ‘वही जो पुरुषों के लिए है। भारत और भारतीय धर्म के प्रति विश्वास और श्रद्धा रखो। तेजस्विनी बनो, हृदय में उत्साह भरो, भारत में जन्म लेने के कारण लज्जित न होओ, वरन् उसमें गौरव अनुभव करो और स्मरण रखो कि यद्यपि हमें दूसरे देशों से कुछ लेना अवश्य है, पर हमारे पास दुनिया को देने के लिए दूसरों की अपेक्षा सहस्र गुना अधिक है।’

स्वामी जी के अनुसार, ‘समझता हूं प्रत्येक राष्ट्र का यह प्रधान कर्तव्य है कि वह मातृशक्ति के प्रति सम्मान के भाव का सम्पोषण करे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वैवाहिक बंधन की धार्मिक पवित्रता में दृढ़ विश्वास होना अत्यावश्यक है। इसी साधन से देश पूर्ण पवित्रता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है। यह एक शाश्वत सत्य है कि जिन गृहों में पवित्र जीवन पाया जाता है वहां स्वयं भगवती लक्ष्मी के रूप में निवास करती है। इतना ही नहीं, सच्चा शक्ति उपासक वह पुरुष है जो सर्वशक्तिमान परमात्मा की शक्ति का सर्वत्र अनुभव करता है और प्रत्येक स्त्री में उस शक्ति का प्रकाश देखता है।’

प्रबुद्ध भारत (दिसम्बर 1898) के प्रतिनिधि को उत्तर देते हुए वे कहते हैं, ‘नारियों की तुलना में अपने देश की नारियों की अवस्था भिन्न देखकर हम एकदम यह न मान बैठें कि हमारे यहां की स्त्रियों की दशा हीन है। विगत कई सदियों से भारत में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण होता रहा है जिससे हम स्त्रियों का विशेष संरक्षण करने को बाध्य हुए हैं। यही तथ्य हमारे प्रचलित सामाजिक रीति रिवाजों के मूल में है, न कि स्त्री जाति की हीनता का सिद्धांत। …भारत में स्त्री जीवन के आदर्श का आरंभ और अंत मातृत्व में ही होता है। पाश्चात्य देशों में गृह की स्वामिनी और शासिका पत्नी है, भारतीय गृहों में घर की स्वामिनी और शासिका माता है। हमारे यहां परमात्मा को भी जगन्माता, जगज्जननी आदि नामों से संबोधित किया गया है। विश्व में जननी नाम से अधिक पवित्र और निर्मल दूसरा कौन-सा नाम है, जिसके पास कभी वासना और पाशविक तृष्णाएं फटक भी नहीं सकतीं। यही मातृत्व भारतीय नारीत्व का आदर्श है। माता की महानता इसलिए है कि गर्भ में स्थित बालक पर माता का जो प्रभाव पड़ता है वही बालक को शुभ या अशुभ प्रवृत्ति वाला बनाता है।’

स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था कि आध्यात्मिकता की जननी इस भारत भूमि का भविष्य परम उज्ज्वल है।

(इनपुट- पाञ्चजन्य आर्काइव)

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