भारत के संविधान में अनुसूचित जनजातियों हेतु दो प्रकार के प्रावधान किये गये हैं। एक प्रावधान व्यक्तिगत मूल अधिकार के अंतर्गत आते हैं एवं दूसरे सामुदायिक अधिकारों के अंतर्गत आते हैं। भारत की जनजातियों को संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार चिह्नित किया गया है, जिसके तहत राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर उनकी पहचान को स्थापित करते हुए एक सूची जारी की जाती है। उस सूची में अनुसूचित जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा संविधान के अनुरूप दिया गया है।
दो भागों में बांटा गया जनजातीय क्षेत्र
1935 के भारत शासन अधिनियम के अनुसार भारत के जनजातीय क्षेत्रों को मुख्यत: दो भागों में बांटा गया है, जिसे हम आंशिक एक्सक्लूटेड ऐरिया और पूर्ण एक्सक्लूटेड ऐरिया के नाम से जानते हैं। इस मूल्य उद्देश्य जनजातीय बहुल क्षेत्रों में अंग्रेजों के द्वारा शासन व्यवस्था को कायम रखना था। परन्तु पर्दे के पीछे अंग्रेजों द्वारा कन्वर्जन जो की व्यवस्था थी, उसके सुचारू रूप से चलने के लिए यह व्यवस्थाएं की गई थीं। आजादी के पश्चात् जनजातियों के विकास को प्राथमिकता दी गई एवं उनकी संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराओं को नेपथ्य में डाल दिया गया। बेरियर एल्विन जैसे कई अंग्रेजी इवेंजलिस्ट भारत सरकार के सलाहकार नियुक्त कर दिये गये तथा जिन्होंने प्रमुखता से जनजातीय क्षेत्रों को पाश्चात्य विचारधारा के अनुसार विकसित करने का प्रयास किया।
कौन है असली जनजाति ?
आज का प्रश्न बहुत जटिल है। प्रश्न यह है कि असली जनजाति कौन है? वे जो अपने रीति-रिवाज, धर्म, परम्परा त्यागकर विकसित हो चुके हैं और जिन्होंने मतांतरण कर लिया है अथवा वे जो आज भी उन रीति-रिवाज, संस्कृति, परम्पराओं को मानकर विकसित होने के साथ-साथ अपनी संस्कृति संरक्षण का कार्य करते हुए अपनी पहचान को बरकरार रखे हुए है।
वास्तविक वनवासियों को नहीं मिली सुविधाएं
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि मतांतरित वनवासी शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से उस वनवासी से अधिक सम्पन्न है, जो अभी भी अपने मूल रीति-रिवाज, परम्पराओं के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आजादी के 70 वर्षों का इतिहास रहा है कि वनवासियों के लिए दी गई शिक्षा और नौकरी में आरक्षण की सारी सुविधाएं अधिकांश मतांतरित वनवासियों ने ग्रहण कर ली। इसके उलटे जिन्हें इसकी वास्तविक आवश्यकता थी उन्हें शिक्षा के अभाव एवं अन्य चीज़ों के अभाव के कारण अवसर प्राप्त नहीं हो सके।
पद्मश्री डॉ. बजाज ने अपनी रिपोर्ट में इन बातों को बहुत प्रमुखता से लिखा है कि केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के वर्ग-एक, वर्ग-दो के महत्वपूर्ण पदों पर अधिकांश मतांतरित वनवासी ही कार्यरत हैं।
नागपूजक अथवा शिवपूजक है भारत के वनवासी
प्रश्न यह नहीं कि कोई अपनी स्वेच्छा से अपना कन्वर्जन कर ले। प्रश्न यह है कि वनवासी या जनजाति होने के मूल प्रश्न पर पर ही कुठाराघात किया गया है। यह सर्वविदित है कि वनवासी प्रकृतिपूजक होते हैं। वे प्रकृति के विभिन्न रूपों की पूजा-अर्चना करते हैं एवं यह उनके रीति-रिवाज, परम्परा, संस्कृति की मूल आस्था के केन्द्र हैं। मोटे शब्दों में कहा जाये, तो यह कहा जा सकता है कि भारत के वनवासी सूर्यपूजक, नागपूजक अथवा शिवपूजक हैं। इसके विपरीत पाश्चात्य के दो सिमेटिक धर्मग्रन्थों में इन प्रकार की पूजा अर्चनाओं की कतई अनुमति नहीं है। बशर्ते मतांतरित वनवासियों को यह धर्म धोखे में रखकर उन्हें यह दर्शा रहे हैं कि मतातंरित होने से भी उनकी मूल आस्थाएं खंडित नहीं होंगी।
मतांतरित जनजाति को नहीं मिलना चाहिए दोहरा लाभ
वर्तमान में जो प्रश्न खड़े किये जा रहे हैं, जिसके तहत यह यह मांग की जा रही है कि जो लोग अपनी मूल धर्म-संस्कृति त्याग चुके हैं, उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। यह मांग बाबा कार्तिक उरांव ने प्रमुखता से अपनी पुस्तक ‘बीस वर्ष की काली रात’ में लिखी। जिसमें यह स्पष्ट किया कि किस प्रकार जेपीसी द्वारा भी इस बात को माना गया कि मतांतरित जनजाति को दोहरा लाभ नहीं दिया जाना चाहिए। परन्तु आज के परिवेश में न्यायालयीन व्यवस्था के बीच इस उपबन्ध को या कहें कि अनुच्छेद 342 के संशोधन को माना पारित कर पाना एक कठिन कार्य है। इसका एक रास्ता तो संविधान संशोधन से निकलता है, जिसके तहत अनुच्छेद 341 के अनुरूप ही अनुच्छेद 342 में भी यह संशोधन कर दिये जायें कि जिस प्रकार अनुच्छेद-341 में विदेशी धर्म स्वीकार करने वालों को अनुसूचित जाति का लाभ नहीं दिया जाता, उसी प्रकार अनुच्छेद-342 में भी विदेशी धर्म अथवा वे धर्म जिसमें प्रकृति पूजा की अनुमति नहीं है, उन्हें स्वीकार करने वालों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा न दिया जाये। परन्तु हम सभी जानते हैं कि वर्तमान में मूल अधिकारों के किसी भी प्रकार के संशोधन पर अथवा मतांतरित व्यक्तियों के अधिकारों के संरक्षण के लिए एक पूरा इको सिस्टम कार्य में लग जाता है तथा पूरे विश्व की शक्तियां इस बदलाव को रोकने के लिए सारे संसाधन को लेकर इस युद्ध में दौड़ पड़ते हैं।
मूल उद्देश्य भटकाया जाएगा संशोधन
इस बात में कतई संशय नहीं किया जा सकता कि जैसे ही डी-लिस्टिंग की मांग के लिए किसी भी प्रकार का प्रस्ताव लाया जायेगा, तो इस संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के तहत मतांतरित वनवासियों को मिलने वाली शैक्षणिक एवं नौकरी में आरक्षण से किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ को संविधान के मूल ढांचे के साथ छेड़छाड़ कहते हुए कई संगठन सुप्रीम कोर्ट अथवा अन्य न्यायालयों में अपनी याचिकाएं दायर करेंगे, जिसके तहत इस संशोधन का मूल उद्देश्य ही रास्ते से भटक जायेगा।
दो चरणों में काम करने की आवश्यकता
मेरा मानना है कि आज डी-लिस्टिंग को जमीनी स्तर पर लाने के लिए हमें दो चरणों में कार्य करने की आवश्यकता है। पहला चरण अनुसूचित जनजातियों के मूल अधिकारों में संशोधन किए बिना उनके सामुदायिक अधिकारों में संशोधन की बात की जाये। उन्हें जनजाति समुदाय के हिस्सा होने के कारण जो लाभ प्रदाय किये जाते हैं, उससे वंछित रखा जाये। एवं उनके पैतृक सम्पत्ति एवं मूल अधिकारों के प्राप्ति पर संशोधन को दूसरे चरण की ओर रखा जाये। इन दोनों चरणों के बीच में एक रास्ता मतांतरित वनवासियों के वापस वनवासी संस्कृति पर लौटने के लिए भी खोला जा सके, ताकि जब सर्वसमाज में यह बात हो कि आज नहीं तो कल मतांतरित व्यक्ति आरक्षण का लाभ खो देगा, तो वे वापसी के लिए भी आ सकें। इस प्रकार की कोई व्यवस्था होना चाहिए।
अनुच्छेद-340 के तहत लाभ
सामुदायिक लाभों में दो प्रमुख लाभ हैं- राजनैतिक आरक्षण का लाभ। जिसे हम अनुच्छेद-340 के तहत लाभ कह सकते हैं। इस लाभ के अंतर्गत पंचायत से लेकर संसद तक अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों को उसकी जनसंख्या के अनुपात में जनप्रतिनिधित्व करने के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं। मैं मानता हूं कि यह पीपल्स रिप्रजेंटेशन एक्ट यह संशोधन किया जा सकता है क्योंकि संविधान के यह अनुच्छेद शुरूआत में केवल 10 वर्षों के लिए थे एवं समयांतर में इन्हे 10-10 वर्षों के लिए आगे बढ़ाया जा रहा है। राजनैतिक आरक्षण में हम लोकूर कमेटी द्वारा दिए गए लिटमस टेस्ट का भी उल्लेख कर सकते हैं। जिसके तहत इस बात को स्थापित किया गया है कि अनुसूचित जनजाति का कोई व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से पिछड़े हुए होने चाहिए और यह बात किसी से छिपे हुए नहीं हैं। और यह बात किसी से छिपी नहीं है कि मतांतरित व्यक्ति न ही सामाजिक रूप से और न ही आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। इसलिए उन्हें उन जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने हेतु योग्य नहीं माना जाना चाहिए जो मतांतरित नहीं हुए हैं।
समाज में जाएगा बहुत बड़ा संदेश
मैं समझता हूं कि यह बात अगर पंचायत से संसद तक मतांतरित वनवासियों को उन वनवासियों का प्रतिनिधित्व करने से वंछित कर दे, जो मतातंरित हो चुके हैं, तो मूल अधिकारों में हम छेड़छाड़ से भी बच जायेंगे। और समाज में एक बहुत बड़ा संदेश यह जायेगा कि किसी भी मतांतरित व्यक्ति को गैर मतांतरित लोगों का प्रतिनिधित्व करने का कोई अधिकार नहीं है। इसका एक बड़ा प्रभाव निर्वाचन में जनजाति बहुल राज्यों में भी पड़ा, जिसका लाभ साफ तौर पर उन गैर मतांतरित वनवासियों को मिलेगा। जिसका प्रतिनिधित्व कहीं न कहीं मतातंरित व्यक्ति करके उनके व्यक्तित्व की आवाज को ही दबा देते हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जयपाल सिंह मुंडा एक मतांतरित व्यक्ति थे कि किस प्रकार अनुच्छेद 342 में मतांतरण उपरांत आरक्षण की व्यवस्था चालू रहने के लिए मुखरता से अपना पक्ष रखा है। डीस्टिंग के अभियान में लड़ाई लम्बी होगी। क्योंकि मतांतरित व्यक्तियों का जो इकोसिस्टम है। पूरी दुनिया में फैला हुआ है और वनवासियों के जल-जंगल-जमीन पर किसकी निगाह है। पैसा कानून में जिस प्रकार संस्कृति संरक्षण के उपबन्ध किये गये हैं, वो उनके मतांतरण के आढ़े आ रहे हैं। इसलिए हमें यह आवश्यक है कि इस लड़ाई का संवैधानिक दृष्टिकोण एवं वैधानिक दृष्टिकोण से समीक्षा की जाये। ताकि एक बड़े जनआंदोलन के बाद न्यायालयों से इस प्रकार के संवैधानिक संशोधन के विफल होने का कोई भी विकल्प उपलब्ध न हो।
प्रलोभन वाले मतांतरण पर लगेगी रोक
अन्त में यह बात तय है कि जिस प्रकार प्रलोभन देकर मतांतरण की व्यवस्था पिछले कई दशकों से चालू है उसमें रोक लग सकती है। बस आवश्यकता है कि अपनी रीति-रिवाज, संस्कृति को मानने वाले जनजातीय समाज को संगठित होकर राजनैतिक रूप से मतांतरित व्यक्तियों को बहिष्कृत करने की व्यवस्था है। मतांतरित व्यक्ति के पैतृक सम्पत्ति के अधिकार यथावत रहेंगे अथवा डी-लिस्टिंग उपरांत उसकी पैतृक सम्पत्ति भी डी-लिस्ट हो जायेगी। यह एक बड़ा जटिल प्रश्न है। अगर मतांतरित व्यक्ति को डी-लिस्टिंग के उपरांत भी उसकी पैतृक सम्पत्ति संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गैर जनजातीय होते हुए मिल गई, तो बड़ी संख्या में जनजातियों की भूमिका हस्तांतरण एवं क्रय-विक्रय गैर जनजातियों के हाथ में होने लगेगी। और यह एक बड़ा हथियार धर्मांतरण के लिए साबित होगा। इसलिए मैं उस मध्यमार्ग का पक्षधर हूँ। जहां पर मतांतरित व्यक्ति की पैतृक और मूल अधिकारों में छेड़छाड़ न करते हुए मतांरित व्यक्तियों के राजनैतिक आरक्षण पर कुठाराघात किया जाये, ताकि इस जटिल समस्या का समाधान संवैधानिक दायरे के भीतर रहकर किया जा सके।
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