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संस्कारहीन व्यवस्था का पतन

यहां एक गंभीर सभ्यतागत प्रश्न पैदा होता है। पाकिस्तान की पुलिस, खैबर पख्तूनख्वा का प्रशासन, नई मस्जिद तो बना सकता है, लेकिन नए अस्पताल बनाना उसकी प्राथमिकता में नहीं था या क्षमता के बाहर था?

by हितेश शंकर
Feb 8, 2023, 09:25 am IST
in सम्पादकीय
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पाकिस्तान के पेशावर में मस्जिद में हुए आतंकी हमले में बड़ी संख्या में लोग मारे गए। यह हमला पेशेवर आतंकवादी उमर खालिद खुरासानी के मारे जाने के बदले में किया गया था। मोहमंद दर्रा क्षेत्र में जन्मे इस आतंकवादी को कराची के मदरसों में ट्रेनिंग मिली थी और वह कश्मीर भेजे जाने वाले आतंकवादियों की जमात में शामिल था। लेकिन मोहमंद, कराची और जाहिर तौर पर पाकिस्तानी पंजाब में रहे इस आतंकी का नाम खुरासानी रखा गया था। वह खुद पाकिस्तानी सेना से भी निकटता से जुड़ा रहा था, और कुछ समय पहले पाकिस्तानी सेना के हाथों मारा गया था। इसी आतंकी के मारे जाने के जवाब में टीटीपी ने पेशावर की मस्जिद पर हमला किया था।
यह घटना बहुत सारे सवाल पैदा करती है।

आतंकवाद की फैक्ट्री शुरू कर देना सरल हो सकता है, लेकिन कब वह फैक्ट्री पलटवार करे, यह फैसला कर सकना संभव नहीं हो सकता। लोगों के और युवाओं के दिमाग को तर्कपूर्ण बातों से दूर रखना और उनके दिमाग में जन्नत के सपने भर देना, Good तालिबान और Bad तालिबान जैसी परिभाषाएं गढ़ सकना सरल हो सकता है, लेकिन यह सारे फितूर उतने ही तर्कहीन हैं जितने तर्कहीन इन फितूरों को मानने वाले होते हैं।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। एक शब्द में कहें तो वह बात सिर्फ इतनी सी है कि हमारी हस्ती आत्म-आलंबित है। कर्मफल के सिद्धांत में विश्वास रखने वाले लोग और संस्कृतियां अपने अस्तित्व के लिए किसी की कृपा पर निर्भर नहीं होतीं।

जिस मस्जिद में यह हमला हुआ, वह कोई ऐतिहासिक मस्जिद नहीं थी। विस्फोट से मस्जिद ध्वस्त हो गई और घायलों को इलाज के लिए पेशावर के लेडी रीडिंग हॉस्पिटल ले जाना पड़ा। नाम से स्पष्ट है, इसे कभी भारत के वायसराय रहे रीडिंग की पत्नी के नाम पर अंग्रेजों ने बनवाया था। पेशावर में और भी अस्पताल हैं लेकिन किसी भी आपात स्थिति से निपटने में कोई भी अस्पताल सक्षम नहीं है।

यहां एक गंभीर सभ्यतागत प्रश्न पैदा होता है। पाकिस्तान की पुलिस, खैबर पख्तूनख्वा का प्रशासन, नई मस्जिद तो बना सकता है, लेकिन नए अस्पताल बनाना उसकी प्राथमिकता में नहीं था या क्षमता के बाहर था? आक्रांताओं को गौरवान्वित करने वाली सोच मोहमंद दर्रे में पैदा बच्चों का नाम वहां से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर स्थित खुरासान के नाम पर खुरासानी तो रखवा सकती है, किन्तु पेशावर में धमाके होने से छलनी भी होती है।

क्या पाकिस्तान कल्पना भी कर सकता है कि अगर अंग्रेज न आए होते, कोई लेडी रीडिंग न रही होतीं, और फिर भी पाकिस्तान होता, क्या वह तब भी सैकड़ों लोगों की मरहम-पट्टी एक साथ करने की स्थिति में होता? क्या पाकिस्तान यह सोच कर आतंकवादी तैयार करता रहा था कि वे कश्मीर में कत्लेआम मचाएंगे और उसके बाद या तो वही समाप्त हो जाएंगे या अपने घर चले जाएंगे? क्या पाकिस्तान यह सोचता रहा कि कोई अंग्रेज आएगा, और पाकिस्तान में रेल, सड़क, अस्पताल बना देगा?

भले दुखद हो, लेकिन पूरी बात समझने के लिए अवसर प्रासंगिक है। आज पाकिस्तान ‘रोज कुआं खोदने..’ के हाल में है। विदेशी मुद्रा कमाना, निर्यात बढ़ाना आदि जो भी बातें आमतौर पर अर्थव्यवस्था के लिए कही जाती हैं, वे पाकिस्तान पर अब लागू ही नहीं हो सकतीं। उसके सामने संकट यह है कि कोई उसे दान-जकात में कुछ देगा या नहीं? कमाना, जुटाना और श्रम या अधिकारपूर्वक अर्जित करना – यह सारे मार्ग उसके लिए बंद से हैं।

यह सभ्यतागत पतन है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भारतीय दर्शन की जो मीमांसा रखी, वह सिर्फ भारत या पाकिस्तान या किसी और देश के लिए नहीं, बल्कि समूची मानवता के लिए है। उपभोग को संतुलित और नियंत्रित रखना तो एक बात है, उपभोग के लिए पात्र होना, आय का सृजन करना भी उतना ही आवश्यक है। दीनदयालजी ने कहा था कि (आर्थिक) समस्या केवल अर्थ का अभाव (गरीबी) ही नहीं है, बल्कि उसमें उत्पादन में वृद्धि, वितरण में समता तथा उपभोग में संयम का त्रि-सूत्री समीकरण निहित है।

जाहिर है, बिना कमाए किया जाने वाला उपभोग अंत में पूरे समाज को ही ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है, जहां उसके सामने किसी की दया पर निर्भर होने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। साफ है कि समस्या के मर्म में वह राजनीतिक अवधारणा है, जो बिना कुछ किए धरे सब कुछ मिलने, देने और पाने के सपने दिखा कर क्षणिक तौर पर भले तेजी से लहलहाती हो, दीर्घकाल में, बल्कि मात्र 75 वर्ष की मध्यम अवधि में नासूर बनकर खड़ी हो जाती है।

सोवियत संघ को तो इतना भी समय नहीं मिला। इतिहास साक्षी है कि वही सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संरचनाएं टिकती हैं, जो भौतिक ही नहीं बल्कि अपनी धारणा, संस्कृति और दर्शन के लिहाज से भी परिपूर्ण रही हों। अल्लामा इकबाल भी यह सोचकर चकित थे कि सारे जमाने की ईर्ष्या झेलने के बावजूद भारत का कभी कोई बाल बांका क्यों नहीं कर सका?

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। एक शब्द में कहें तो वह बात सिर्फ इतनी सी है कि हमारी हस्ती आत्म-आलंबित है। कर्मफल के सिद्धांत में विश्वास रखने वाले लोग और संस्कृतियां अपने अस्तित्व के लिए किसी की कृपा पर निर्भर नहीं होतीं। वे किसी को Colonise  नहीं करतीं, लेकिन स्वयं को De- Colonise करना जानती हैं।
यही बात थी, अल्लामा!

@hiteshshankar

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