केंद्र की मोदी सरकार ने वर्ष 2023 को मोटे अनाज वर्ष के रूप में मनाए जाने का संकल्प लिया है, लेकिन उत्तराखंड में मोटे अनाज को लेकर वर्षो से जागरूकता है। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के नारे भी मोटे अनाज से जुड़े होते थे। वो बात अलग है कि खुद उत्तराखंड के निवासियों ने राज्य आंदोलन में अपने संघर्ष की परंपराओं के साथ ही अपनी उपज और खानपान की भी घोर उपेक्षा कर दी।
परिणाम स्वरूप 2001- 2002 में जहां हम 1लाख31हजार हेक्टेयर पर्वतीय भूमि में मडुवे का उत्पादन करते थे ।वहीं 2019- -2020में यह आंकड़ा घटकर 92 हजार हेक्टेयर पर सिमट गया है. इसी प्रकार झुंगरे उत्पादन का क्षेत्रफल 67 हजार हेक्टेयर से घटकर 49 हजार हेक्टेयर हो गया है।
जब भी इन दोनों उपज के क्षेत्रफल में कमी की बात होती हैं, तो स्वाभाविक तौर पर खरीफ की इन फसलों से जुड़े अन्य अनाज जो कि महत्वपूर्ण दलहन हैं, जिसमें गहत, भट, उड़द, तिल , तूर, राजमा, रामदाना की उपज के प्रतिशत में कमी भी शामिल होती है।
इन मोटे आनाजो के उत्पादन में कमी से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंची है और इसकी बड़ी वजह उत्तराखंड के पहाड़ो से आबादी का मैदानी क्षेत्रों की तरफ जाकर बस जाना भी है।
कुल मिलाकर यह दोनों आनाज उत्तराखंड की अस्मिता के आधार हैं। इन दोनों ही अनाजों के उपज के क्षेत्रफल में राज्य गठन के बाद लगभग 30प्रतिशत की कमी हुई है। इस 30 प्रतिशत की कमी को सीधे तौर पर उत्तराखंड के आज के सबसे बड़े संकट “पलायन और बंजर “होती पर्वतीय खेती से सीधे तौर पर जोड़ कर देखा जा सकता है।
बंजर होती खेती से जहां खेत जंगल में समा गए हैं, वहीं पहाड़ी खेती को बंदर लंगूर सुअर जिसे जीव खेत और घरों तक पहुंच गए हैं जो अब खेती के खलनायक बन गए है , कुल मिलाकर पर्वतीय लोक जीवन में अपनी कृषि की उपेक्षा से जो सामाजिक संकट उत्पन्न हुआ है।
उत्तराखंड के परंपरागत किसान यदि पीएम मोदी के संकल्प का साथ देते है तो राज्य की पहचान के अनाजों के महत्व को समझ कर उसके उत्पादन को बढ़ाकर ही देश सेवा में अपना योगदान दे सकते है।
केंद्र की मोदी सरकार की मोटे अनाज को बढ़ावा देने की नीति इस बात पर बराबर जोर दे रही है कि आजादी से पहले जब देश में पी.डी.एस ब्यवस्था लागू नहीं थी, तब भी पर्वतीय क्षेत्र अपने खाद्यान्न की समस्या का समाधान स्वयं करता था ,अर्थात हम कृषि क्षेत्र में आत्म निर्भर थे ।
1936 में अल्मोड़ा में बोसी सेन द्वारा स्थापित विवेकानंद कृषि अनुसंधान शाला ने पर्वतीय कृषि ,बीज और तकनीक के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया।
लेकिन 1974 में इस संस्थान की स्वायत्तता और स्थानीय स्वरूप इसके कृषि अनुसंधान परिषद में विलय के बाद समाप्त हो गया, इसके बाद यहां स्थानीय उपज और बीजों पर काम का सिलसिला कम हुआ जिसने आगे जाकर उत्तराखंड की परंपरागत कृषि व बीज जिसे हम बारहा नाजा के नाम से जानते हैं, पर संकट खड़ा कर दिया।
परंपरागत बीज और खेती के ऊपर यह संकट सिर्फ उत्तराखंड में नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ झारखंड ,आसाम ,आंध्र प्रदेश जैसे उन तमाम कृषि आधारित आदिवासी क्षेत्रों में भी उत्पन्न हुआ, जिनकी अपनी अलग स्थानीय पहचान थी।
यह संकट अंतरराष्ट्रीय खाद और बीज के नैकस्स के षड्यंत्र से उत्पन्न हुआ यह नैक्सस जो कि कृषि सुधारों के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों पर लाया गया बहुराष्ट्रीय खाद -बीज कंपनियों की व्यापारिक महत्वाकांक्षा के कारण उत्पन्न हुआ, बीजों के इस बाजार ने हरित क्रांति तो दिखला दी लेकिन साथ ही उसने भू जल का गिरना,जलवायु असंतुलन, इंसानों को नए नए शारीरिक रोग दे दिए।
1975 के आसपास से पर्वतीय क्षेत्रों ,तथा भाबर में सोयाबीन ने हमला बोला था तब टिहरी में खाड़ी की आत्मनिर्भर घाटी में गांधीवादी धूम सिंह नेगी, विजय जडधारी, प्रताप शिखर, कुंवर प्रसून आदि की टीम ने इस संकट को पहचाना और पूरे क्षेत्र में परंपरागत बाराहा नाजा को बचाने की एक मुहिम छेड़ी, जिसमें परंपरागत बीजों की अदला- बदली के लिए बीज यात्राएं निकाली गई। बीजों की अदला बदली हमारी पीढ़ियों से अर्जित ज्ञान है ,जो फसल की उत्पादकता को कम नहीं होने देता । इस अभियान को जमुना लाल बजाज ने भी सम्मानित भी किया ।
कुल मिलाकर संक्षेप में अगर कहें तो मडुवा झुंगरा जो पहाड़ की पहचान है ,उसको सही अर्थों में पहचान कर ही उसके उत्पादन के लिए विशेष प्रयास करके हम उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की पलायन ,और बंजर होती खेती तथा युवाओं के रोजगार जैसे कई सवालों का एक साथ समाधान कर सकते हैं।
हाल के सालो में केंद्र सरकार ने भी मोटे अनाजों के संरक्षण की नीति बनाई है जिसके तहत कुछ महत्वपूर्ण फैसले दिसंबर 2021 में लिए हैं। जिसके तहत एफ.सी.आई इन मोटे अनाजों का विपणन करेगी और वितरण भी ,साथ ही मोटे अनाजों के संग्रह की तिथि से 3 माह के भीतर बिक्री की जो पुरानी शर्त थी। उसे बढ़ाकर अब सात से आठ माह कर दिया गया है ।
जिससे निश्चित रूप से व्यापार के लिए इन आनाजो को अधिक समय मिलेगा। अब राज्य सरकार को चाहिए पहाड़ की अस्मिता के एल अनाजों जोकि पर्वतीय कृषि का आधार हैं और बागवानी के विकास के लिए अलग से विशेष प्रयास करें।
जिसमें विशेषज्ञों की एक अनुसंधान परिषद बनाएं जो स्वाभाविक रूप से पहाड़ की जैविक खेती को जैविक प्रमाणन का प्रमाण पत्र तथा किसानों को आवश्यक प्रशिक्षण भी प्रदान करने का काम करे, इन केंद्रों का संचालन कृषि सेवा सेवा केंद्रों के साथ भी किया जा सकता है।
पिछली सरकार ने इन मोटे अनाजों के संरक्षण के लिए कुछ कदम उठाए थे, जिसके परिणाम स्वरूप ₹10 किलो बिकने वाला मडुवा अब गांव से ही ₹20 ₹25 किलो तक बिक रहा है।
दिल्ली में जिसकी कीमत ₹50 किलो है, जबकि आपूर्ति पूरी नही है, 2020 में 200 टन मडुवा, झुंगरा हिमालयन मिलेट नाम से डेनमार्क को निर्यात किया गया है। अन्य यूरोपीय बाजारों में भी इसकी मांग बढ़ रही है और यह सब उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के लिए एक शुभ समाचार है।
अगर हमारी सरकारें इस दिशा में जागरूक होती हैं,तो पहाड़ में बंजर हो रही खेती की भूमि पर सरकारी सहायता से ‘सहकारी समितियों” के माध्यम से सामूहिक खेती करती है ,तो निश्चित रूप से यह पहाड़ की जमीन और जवानी को बचाने वाला कदम होगा।
लेकिन उससे पहले इन मोटे अनाजों का सवाल ,चुनाव में शामिल होना जरूरी है। साथ ही जरूरी है इन स्वास्थ्य वर्धक मोटे अनाजों को अपने भोजन में शामिल करना।
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