वामपंथ की आंधी और जनसंघ भाजपा के अंध—विरोध के तूफानों को चीर कर भारत के प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कार्यकाल में आधुनिक भारत की नींव के पत्थर रखे, और मील के पत्थर स्थापित किए
अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था, ‘‘व्यक्ति को सशक्त बनाने का मतलब राष्ट्र को सशक्त बनाना है। और सशक्तिकरण सबसे अच्छी तरह तब होता है, जब तेजी से सामाजिक परिवर्तन के साथ तेजी से आर्थिक विकास किया जाता है।’’ वास्तव में यह शब्द वही व्यक्ति पूरे मन से कह सकता है, जिसकी रग-रग में देशप्रेम बसता हो।
भारत स्वतंत्र था। स्वतंत्रता के बाद कई सरकारें आईं और गईं। कई योजनाएं भी बनीं। लेकिन तमाम टिप्पणीकार और व्यंग्यकार, यहां तक कि फिल्मकार भी कहने लगे थे, ‘‘योजनाएं सिर्फ कागजों पर बनती हैं।’’ भारत की लचर आर्थिक विकास दर के लिए ‘हिंदू रेट आफ ग्रोथ’ जैसा ताना मारा जाता था। किसी में सामर्थ्य नहीं थी कि इसका उत्तर दे सके। वैभव और विकास था, स्वास्थ्य सेवा और उच्च शिक्षा थी, गाड़ियां और सड़कें थीं, टेलीफोन और बाकी उपकरण थे, बिजली थी, लेकिन पूरे भारत के लिए नहीं, सिर्फ कुछ लोगों के लिए। सिर्फ आर्थिक विकास दर ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय जगत में भी भारत एक दीन-हीन देश की तरह ही खड़ा था। सशक्त-समर्थ देशों की कतार से कोसों दूर।
अटल जी की सरकार ने आर्थिक सुधारों से
भारत की अर्थव्यवस्था को द्रुत गति में लाकर भारत
को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने का काम किया।
अटल जी ने इसका नए सिरे से निर्माण किया और भारत की जनता को, समाज को, भारत की धरती को, भारत के किसानों को, उद्योगों को, भारत की सेना को, भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले राजदूतों को वह सब सौंप दिया, जो एक समर्थ-सशक्त और स्वाभिमानी राष्ट्र के लिए जरूरी था। राष्ट्र निर्माण के लिए कुछ सुधार भी जरूरी थे। नि:संकोच कहा जा सकता है कि अटल जी ने वे सुधार कर दिखाए, जो उनके पहले तक शायद कल्पनातीत थे। हर दृष्टि से अटल जी नए, सशक्त, समर्थ और समृद्ध भारत के निर्माता साबित हुए।
2004 में जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़ा, तब भारत ने आठ प्रतिशत की जीडीपी दर बनाए रखी थी, मुद्रास्फीति का स्तर चार प्रतिशत पर आ गया था और विदेशी मुद्रा भंडार फल-फूल रहा था। और पहली बार भारत ‘इंडिया शाइनिंग’ कहने की स्थिति में था। इस देश के निर्माण में अटल जी के योगदानों की सूची बहुत लंबी है। उन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है, लेकिन शायद गिनाया नहीं जा सकता। उन्होंने न केवल भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार किया, बल्कि सामाजिक सुधारों के जरिए यह भी सुनिश्चित किया कि आर्थिक सुधारों का लाभ समाज के वंचित वर्ग तक पहुंच सके। आर्थिक सुधारों की शुरुआत कहां से हुई? इस पर कई मत हो सकते हैं, लेकिन आर्थिक सुधारों से भारत की अर्थव्यवस्था को द्रुत गति में लाकर भारत को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने का काम अटल जी की सरकार ने ही किया।
वाजपेयी सरकार को ये उपलब्धियां अनुकूल परिस्थितियों में प्राप्त नहीं हुईं। एक तो वाजपेयी जी एक गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे थे, जो राजग के ‘ममता-समता-जयललिता’ जैसे तुनकमिजाज सहयोगियों पर निर्भर थी। उस समय की वैश्विक अर्थव्यवस्था भारत के अनुकूल नहीं थी। भारत की सुरक्षा के लिए खतरे भी जीवंत थे, आखिर पाकिस्तान के साथ एक लंबी मोर्चाबंदी भी चलानी पड़ी, जो आर्थिक तौर पर बहुत खर्चीली थी। उधर, खाड़ी युद्ध चल रहा था, जिसने वैश्विक बाजारों को परेशान कर रखा था। तेल की कीमतें किसी चिनगारी के नीचे ही बनी हुई थीं और भारत को शांति खरीदने के लिए कारगिल में युद्ध (1999) लड़ना पड़ा। उनके कार्यकाल के दौरान ही भारत को विनाशकारी भूकंप (2001) और उतने ही प्रलयंकारी दो चक्रवाती तूफानों (1999 और 2000), एक भयानक सूखे (2002-2003), तेल संकट (2003) और संसद पर हमले का सामना करना पड़ा। फिर भी, वाजपेयी के कुशल नेतृत्व में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाए रखा।
घाटे पर नियंत्रण
भारत की जीडीपी को आठ प्रतिशत तक की वृद्धि दर पर ले जाने और वहां टिकाए रखने के लिए वाजपेयी सरकार ने अभूतपूर्व कुशलता का परिचय दिया था। घाटे की अर्थव्यवस्था एक सीमा से तेज चल ही नहीं सकती। इसलिए वाजपेयी सरकार राजकोषीय उत्तरदायित्व अधिनियम लेकर आई, जिसका उद्देश्य राजकोषीय घाटे को कम करना और सार्वजनिक क्षेत्र की बचत को बढ़ावा देना था। सार्वजनिक क्षेत्र की बचत, जो वित्त वर्ष 2000 में सकल घरेलू उत्पाद का -0.8 प्रतिशत थी, वाजपेयी सरकार के प्रयासों से वित्त वर्ष 2005 में बढ़कर 2.3 प्रतिशत हो गई। सत्ता के अपने संक्षिप्त काल में मील के कई पत्थरों के बीच, वाजपेयी सरकार ने देश की उद्यमिता पर विश्वास करने की नीति अपनाई, जिसने देश की तस्वीर ही बदल कर रख दी।
भरोसा देश की उद्यमिता पर
वाजपेयी एक महान आर्थिक सुधारक भी थे और एक प्रधानमंत्री के रूप में वे हमेशा इस दृढ़ विश्वास के साथ आगे बढ़े थे कि उदारीकरण से हमें अपनी आर्थिक क्षमता को प्राप्त करने में मदद मिलेगी। वाजपेयी सरकार ने उद्योग क्षेत्र में सरकार की भागीदारी को कम कर दिया और इससे व्यावहारिक तौर पर पहली बार, भारत में निजी व्यवसाय को जन्म लेने और पनपने का अवसर मिला। उन्होंने यह बात सिर्फ भाषणों और कागजों में नहीं रखी, बल्कि एक अलग विनिवेश मंत्रालय का गठन किया। वाजपेयी सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की 30 से अधिक गैर-रणनीतिक कंपनियों में सरकारी होल्डिंग्स का विनिवेश किया। इसी प्रकार, वाजपेयी सरकार ने बीमा क्षेत्र के उदारीकरण का मार्ग प्रशस्त किया था।
1999-2000 में मॉडर्न फूड इंडस्ट्रीज की बिक्री के साथ शुरुआत करते हुए, उनकी सरकार ने भारत एल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड (बाल्को) और हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड खनन कारोबारी अनिल अग्रवाल की स्टरलाइट इंडस्ट्रीज को, आईटी फर्म सीएमसी लिमिटेड और विदेश संचार निगम लिमिटेड बेच दिया। वीएसएनएल से टाटा, फ्यूल रिटेलर आईबीपी लिमिटेड से इंडियन आयल कॉर्प (आईओसी) और इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कॉर्प लिमिटेड (आईपीसीएल) से रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड का प्रवेश हुआ। कोवलम अशोक बीच रिजॉर्ट, कोलकाता में होटल एयरपोर्ट अशोक और नई दिल्ली में तीन होटल – रंजीत होटल, कुतुब होटल और होटल कनिष्क सहित कई होटल भी बिके। कल्पना की जा सकती है कि नियमित घाटा उगलने वाले इतने सारे संस्थानों का विनिवेश न हुआ होता, तो अब तक भारत सरकार किसनी असहाय हो चुकी होती। लेकिन निजीकरण अभियान आसान नहीं था। उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा और बाल्को के निजीकरण के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय तक चुनौती दी गई, जिसने इस कदम को बरकरार रखा।
ऊर्जा नीति
वाजपेयी सरकार ने ऊर्जा आपूर्ति या ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बड़े पैमाने पर विदेशों में ऊर्जा स्रोतों का अधिग्रहण किया। उनकी सरकार ने 2001 में 1.7 अरब अमेरिकी डॉलर में सुदूर पूर्व रूस में विशाल सखालिन-1 तेल और गैस क्षेत्रों में 20 प्रतिशत हिस्सेदारी हासिल करने के लिए अपनी कूटनीतिक शक्ति का प्रयोग किया। यह उस समय से आगे की सोच थी। यह उस समय विदेश में भारत का सबसे बड़ा निवेश था। इसके बाद सूडान में एक तेल क्षेत्र में 72 करोड़ अमेरिकी डॉलर में 25 प्रतिशत हिस्सेदारी हासिल की। जोखिम भरे देशों में इतना बड़ा निवेश करने के लिए फैसलों की आलोचना की गई, लेकिन वाजपेयी सही साबित हुए और सूडान परियोजना ने भी कुछ ही वर्षों के भीतर निवेश को वापस वसूल लिया।
विदेशी परियोजनाओं में निवेश करके भारत की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के उनके मॉडल का तब से लगातार पालन किया जा रहा है। अब इसका विस्तार 20 देशों तक हो गया है और ऊर्जा कूटनीति अन्य देशों के साथ भारत के संबंधों का हिस्सा है। वास्तव में चीन ने भी इसी वाजपेयी मॉडल की देखा-देखी की है। हालांकि पिछले डेढ़ दशक में भारत की तुलना में चीनी निवेश अधिक परियोजनाओं में हो गया है।
वाजपेयी सरकार के ऊर्जा मॉडल में सिर्फ आयात पर निर्भरता कम करना या स्रोतों को सुनिश्चित करना नहीं था, बल्कि किसानों को आय का एक वैकल्पिक स्रोत प्रदान करने के लिए गन्ने से निकाले गए इथेनॉल को पेट्रोल में मिलाने की नीति उन्होंने ही शुरू की। अप्रैल 2002 में वाजपेयी सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों के लिए प्रशासित मूल्य तंत्र (एपीएम) को समाप्त कर दिया, जो 1975 से अस्तित्व में था, जिसने राज्य द्वारा संचालित तेल विपणन कंपनियों को पेट्रोल और डीजल पर मूल्य निर्धारण शक्ति प्रदान की।
दूरसंचार उद्योग का कायाकल्प
वाजपेयी सरकार की एक क्रांतिकारी उपलब्धि थी- भारतीय दूरसंचार उद्योग का उदय। वाजपेयी सरकार ने नई दूरसंचार नीति के तहत एक राजस्व-साझाकरण मॉडल पेश किया, जिससे दूरसंचार कंपनियों को निश्चित लाइसेंस शुल्क से बचने में मदद मिली। इसके साथ ही सेवाओं और नीतियों के संचालन के लिए भारत संचार निगम लिमिटेड को अलग से बनाया गया। दूरसंचार क्षेत्र को और बढ़ाने के लिए और उसकी व्यावहारिक समस्याओं के निराकरण के लिए वाजपेयी सरकार ने दूरसंचार विवाद निपटान अपीलीय न्यायाधिकरण बनाया। अंतरराष्ट्रीय टेलीफोन सेवा प्रदाता विदेश संचार निगम लिमिटेड को समाप्त कर दिया गया। आज जो हर व्यक्ति के हाथ में मोबाइल फोन दिखाई देता है, उसका श्रेय वाजपेयी सरकार की पहल को ही जाता है। यदि वाजपेयी सरकार की दूरसंचार नीति न रही होती, तो आज वित्तीय समावेश के लिए केंद्र सरकार की जनधन, आधार, मोबाइल (जेएएम) योजना बहुत कठिन हो गई होती। वाजपेयी सरकार की दूरसंचार नीति लागू होने से पहले भारत की टेलीफोन प्रवेश दर दहाई में भी नहीं पहुंच पा रही थी। नई दूरसंचार नीति की राजस्व-साझाकरण व्यवस्था के परिणामस्वरूप अंतत: कॉल दरों के सस्ते होने के साथ-साथ सस्ते मोबाइल फोन का मार्ग प्रशस्त हुआ। आज भारत में सौ करोड़ से ज्यादा मोबाइल उपभोक्ता हैं, विश्व का सबसे सस्ता इंटरनेट है और अब तो हमारा अपना स्वदेश निर्मित मोबाइल भी है।
शिक्षा नीति
निरक्षरता और निर्धनता को एक-दूसरे का पर्याय मानने वाले अटल जी ने शिक्षा को हर वर्ग तक पहुंचाने के लिए मिड-डे मील से लेकर भारत में पहली बार 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा मुफ्त करने वाले ‘सर्व शिक्षा अभियान’ तक के उपायों की झड़ी लगा दी। इसका लक्ष्य ड्रॉपआउट्स को कम करना और प्राथमिक स्तर पर शुद्ध नामांकन अनुपात को बढ़ाना था। मुफ्त शिक्षा योजना 2001 में शुरू की गई और इसके बूते पढ़ाई बीच में ही छोड़ने की दर में 60 प्रतिशत तक की भारी कमी लाने में सरकार सफल रही। आज भारत कौशल विकास की बात कर रहा है, तो उसकी नींव शिक्षा के प्रसार के लिए एक मिशन मोड में चलाई गई सामुदायिक स्वामित्व वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रावधान के माध्यम से मानव क्षमताओं में सुधार की इस योजना में है। वास्तव में इस योजना को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल किया गया गीत ‘स्कूल चलें हम’ खुद वाजपेयी ने लिखा था।
परमाणु शक्ति संपन्न भारत
सरकार के सत्ता में आने के मात्र एक महीने बाद 8 मई, 1998 को वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में भारत ने पोखरण में अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया। इस कदम ने भारत की परमाणु महत्वाकांक्षाओं का संकेत विश्व को दे दिया और साथ ही भारत की आत्मरक्षा करने की क्षमता को भी उजागर किया। अटल जी ने जब भारत के परमाणु शक्ति बनने की घोषणा की, तो साथ ही यह भी कहा कि भारत के परमाणु हथियार ‘आक्रमण के हथियार’ कभी भी नहीं होंगे। भारत को संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान द्वारा प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा, लेकिन भारत अटल रहा। बदले में इन परमाणु परीक्षणों ने अमेरिका के साथ संबंधों के पुनर्निर्माण के लिए मंच तैयार कर दिया।
जो अमेरिका भारत पर प्रतिबंध लगाने बढ़ा था, वही 2008 में ऐतिहासिक भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के लिए सामने आया। वाजपेयी ने अपने एक विश्वसनीय सहयोगी (तत्कालीन योजना आयोग के उपाध्यक्ष और बाद में विदेश मंत्री जसवंत सिंह) को भारत के परमाणु कार्यक्रम पर अमेरिका के साथ बातचीत शुरू करने के लिए नियुक्त किया। अमेरिका का उद्देश्य भारत के परमाणु कार्यक्रम को ‘बंद करना, वापस लेना और खत्म करना’ था, जिसका भारत ने वाजपेयी के नेतृत्व में सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया। यह वार्ता ‘रणनीतिक साझेदारी में अगला कदम’ और कई मायनों में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के अग्रदूत साबित हुई।
विज्ञान और अनुसंधान
प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों के प्रणेता थे। 2003 में भारत के 56वें स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए उन्होंने भारत की पहली चंद्र अन्वेषण योजना- चंद्रयान-1 का अनावरण किया। उन्होंने कहा, ‘‘हमारा देश अब विज्ञान के क्षेत्र में ऊंची उड़ान भरने के लिए तैयार है। मुझे यह घोषणा करते हुए खुशी हो रही है कि भारत 2008 तक चंद्रमा पर अपना अंतरिक्ष यान भेजेगा। इसे चंद्रयान नाम दिया जा रहा है।’’
अटल जी की संस्कृत प्रवीणता का एक परिचय इस मिशन के समय इसरो प्रमुख रहे डॉ. कस्तूरीरंगन ने दिया है। अटल जी ने मिशन का नाम सोमयान से बदलकर चंद्रयान कर दिया था। डॉ. कस्तूरीरंगन ने यह भेद खोला कि ‘‘श्री वाजपेयी ने कहा कि मिशन को चंद्रयान कहा जाना चाहिए, न कि सोमयान, क्योंकि देश एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है और चंद्रमा पर कई खोजपूर्ण यात्राएं करेगा।’’
बुनियादी ढांचा
भारत में सबसे महत्वाकांक्षी सड़क परियोजनाएं अटल जी द्वारा ही शुरू की गर्इं, जिनमें स्वर्णिम चतुर्भुज और प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना शामिल हैं। स्वर्णिम चतुर्भुज ने राजमार्गों के नेटवर्क के माध्यम से महानगरों (चेन्नै, कोलकाता, दिल्ली और मुंबई) को जोड़ते हुए परिवहन को आसान बना दिया। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना ने हर मौसम में चल सकने वाली सड़कों के नेटवर्क के साथ देशभर के दूर-दराज के गांवों को जोड़ा। इससे ग्रामीण क्षेत्रों को न केवल शहरी बाजार से जुड़ने में मदद मिली, बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं का भी गांवों तक पहुंचना सुगम हो गया।
अगर आज हम देशभर के गांवों से कृषि उपज की सहज आवाजाही देख पा रहे हैं, तो उसके मूल में प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना ही है। वास्तव में वाजपेयी सरकार ने बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की नींव रखी और देश की कनेक्टिविटी को – सड़क, रेल और हवाई मार्गों से एक नए आयाम पर ले जाकर आम लोगों को तक पहुंचाया। वाजपेयी सरकार ने दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के संचालन को मंजूरी दी, उसके लिए धन जारी किया और अंतत: 2006 में दिल्ली मेट्रो ने अपना पहला चरण पूरा कर लिया। राष्ट्रीय राजधानी की ‘लाइफ लाइन’ की पहली लाइन का उद्घाटन वाजपेयी जी के समय हुआ था और दिल्ली मेट्रो में बैठने वाले पहले यात्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। दिल्ली मेट्रो आज भी देश की शहरी गतिशीलता का प्रकाश स्तंभ है।
उत्तर पूर्वी राज्यों का विकास
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों के विकास में गहरी रुचि रखने के लिए जाना जाता है। लेकिन वास्तव में यह वही कार्य है, जो वाजपेयी सरकार ने शुरू किया था और फिर सरकार बदलने के बाद उसे सड़क निर्माण की तरह ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। पूर्वोत्तर राज्यों के सर्वांगीण विकास के लिए एक अलग मंत्रालय की स्थापना का कार्य पहली बार वाजपेयी सरकार ने किया था।
योद्धा वाजपेयी
वाजपेयी सरकार के कार्यकाल को उनकी दृढ़ता के लिए जाना जाता है। कश्मीर के मुद्दे पर मुखर राजनीतिक वाजपेयी ने भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को सामान्य बनाने के लिए गंभीर प्रयास किए। उन्होंने लाहौर शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए 19 फरवरी, 1999 को दिल्ली-लाहौर बस सेवा के उद्घाटन समारोह में पाकिस्तान की यात्रा की। वाघा में वाजपेयी की अगवानी पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने की थी। उद्घाटन समारोह में वाजपेयी के लाहौर पहुंचने को भारत द्वारा पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने के एक बड़े प्रयास के रूप में देखा गया। वाजपेयी ने पाकिस्तान में दो दिन बिताए। ऐसा जान-बूझकर किया गया था। इसका उद्देश्य पाकिस्तान को आश्वस्त करना था कि भारत शांति चाहता है।
हालांकि, इसके केवल तीन महीने बाद मई में पाकिस्तानी सेना ने अपने तत्कालीन प्रमुख परवेज मुशर्रफ के नेतृत्व में, शरीफ की जानकारी के बिना भारत-पाकिस्तान संबंधों को खराब करने के लिए कारगिल क्षेत्र में हमला किया। 2016 में शरीफ ने स्वीकार किया कि पाकिस्तान द्वारा कारगिल में घुसपैठ, वाजपेयी की पीठ में छुरा घोंपने का एक कार्य था, जिन्होंने दोस्ती के लिए हाथ बढ़ाया था। तीन महीने तक चले कारगिल युद्ध की जीत ने वाजपेयी की छवि को बल दिया और उनके साहसिक और मजबूत नेतृत्व के लिए देश भर में उनकी प्रशंसा हुई।
बाद में, 2001 में मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर सम्मेलन में वाजपेयी अपनी स्थिति पर अडिग रहे और कश्मीर के मुद्दे पर संबंधों को बचाने के लिए समझौता करने से इनकार कर दिया। उनके सख्त रुख ने आखिरकार मुशर्रफ को खाली हाथों लौटने के लिए मजबूर कर दिया।
प्रधान मंत्री के रूप में उनके तीसरे कार्यकाल में दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर एक आतंकवादी हमला हुआ, जो लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद आतंकवादी समूहों से जुड़ा हुआ था। एक ऐसी घटना जिसने भारत और पाकिस्तान को एक बार युद्ध के कगार पर ला दिया था। भारत और पाकिस्तान ने अपनी सीमाओं पर सैनिकों को जुटाया और यह ‘स्टैंड आफ’ अक्टूबर 2000 में जम्मू और कश्मीर में सफल चुनावों के बाद ही वापस लिया गया।
चीन की लगातार घुसपैठ करने की नीति के आगे भी वाजपेयी नहीं झुके। अंतत: चीन सीमा विवाद सुलझाने के लिए बातचीत के रास्ते पर चलने के लिए सहमत हुआ( हालांकि इसका कोई विशेष परिणाम नहीं निकल सका।
वैश्विक नीति
वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में भारत के वैश्विक व्यापार में तेजी आई। 2000 में अटल जी ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को शीत युद्ध के बाद द्विपक्षीय संबंधों में सुधार के लिए आमंत्रित किया।
आवास नीति
वाजपेयी भारत में आवास निर्माण क्षेत्र की प्रगति के प्रमुख वास्तुकारों में से एक थे। उनके नेतृत्व में भारत ने आवास के लिए वित्त पोषण का रास्ता बहुत आसान कर दिया।
आधार कार्ड
आधार का विचार सबसे पहले कारगिल युद्ध के बाद आया था। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के अनुसार, सीमावर्ती क्षेत्रों में नागरिकों को पहचान पत्र जारी करने के प्रस्ताव वाली एक रिपोर्ट वाजपेयी को सौंपी गई थी। मंत्रियों के समूह स्तर पर यह सिफारिश मान ली गई। बाद में विदेश मंत्रालय ने प्रस्ताव दिया कि एक राष्ट्रीय पहचान जारी की जाए।
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