कुछ इस्लामी संगठन शरिया की आड़ में हलाल अर्थव्यवस्था को मजबूत करना चाहते हैं। यह न तो भारत के लिए ठीक है और न ही दुनिया के अन्य देशों के लिए। यही कारण है कि अनेक गैर—इस्लामी संस्थाएं हलाल पर रोक लगाने की मांग करती रही हैं
एक रिपोर्ट के अनुसार कर्नाटक की भाजपा सरकार राज्य में हलाल मांस पर रोक लगाने पर विचार कर रही है। भाजपा के एक विधायक रवि कुमार ने इसकी पहल की है। यदि ऐसा होगा तो कर्नाटक पहला ऐसा राज्य होगा, जो हलाल मांस पर प्रतिबंध लगाएगा।
उल्लेखनीय है कि काफी समय से हलाल अर्थव्यवस्था को लेकर कुछ संगठन सजग हैं। इनका कहना है कि इसकी आड़ में कुछ जिहादी संगठन भारत सहित वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कब्जा करना चाहते हैं। कर्नाटक में कुछ समय से हलाल मांस को लेकर विवाद भी होता रहा है। शायद यही कारण है कि सरकार हलाल पर रोक लगाने की तैयारी कर रही है।
इसको देखते हुए जानना जरूरी है कि हलाल अर्थव्यवस्था भारत के लिए कितना खतरनाक है। सामान्यत: लोग यह कहते हैं, ‘‘जिसे जो खाना है, उसे खाने दिया जाए।’’ वास्तव में ऐसी सोच उन लोगों की है, जिन्हें केवल हलाल चिकन-मटन की ही जानकारी है। कटु सत्य यह है कि अब ‘हलाल’ का उपयोग वैश्विक अर्थतंत्र पर इस्लाम की पकड़ को मजबूत करने के लिए होने लगा है। इसलिए अब हलाल घर, हलाल दवाई, हलाल गाड़ी, हलाल कम्प्यूटर, हलाल वस्त्र, हलाल अन्न, हलाल अस्पताल— जैसे शब्द सुनाई देने लगे हैं। जब दुनिया कोरोना से परेशान थी, तब भी भारत के कुछ मुस्लिम संगठनों और कई मुस्लिम देशों ने कहा था कि हलाल दवाई ही चाहिए। यही कारण है कि देश-दुनिया के बहुत से खाद्य पदार्थों पर भी हलाल ‘सर्टिफिकेशन’ की मोहर और ‘लोगो’ आपको मिल जाएंगे।
इस ‘सर्टिफिकेशन’ का अर्थ है कि जिस कंपनी के उत्पाद पर यह ‘सर्टिफिकेशन नंबर’ है उस कंपनी ने अपने उत्पाद को बनाने में इस्लामिक कानून का पूरी तरह से पालन किया है। क्योंकि ‘हलाल’ के पक्षधर इस बात पर जोर देते हैं कि कोई भी वस्तु बने, वह इस्लामी रीति-रिवाज से बने और इस्लामी दुनिया को फायदा पहुँचाने वाली हो। यानी आप अगर कोई कारखाना लगाते हैं, तो उसमें काम करने वाले मुसलमान ही हों। भारत में ऐसा करना तो अभी संभव नहीं है, पर इस्लामी देशों में इस बात पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है। फिर भी भारत में कुछ ऐसे संस्थान हैं, जहाँ मुसलमान ही काम करते हैं। हलाल की अवधारणा के अंतर्गत ही पाकिस्तान जैसे देशों में किसी भी गैर-मुस्लिम को नौकरी पर नहीं रखा जाता। अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अधिकतर संस्थान, चाहे वे सरकारी हों या गैर-सरकारी, मुसलमानों को ही नौकरी देते हैं।
अरब के देशों ने तो ‘हलाल’ को एक हथियार बना लिया है। वे उन्हीं विदेशी कंपनियों से कोई वस्तु आयात करते हैं, जिन्हें ‘हलाल प्रमाणपत्र’ मिला हो। इसके लिए कंपनियों से भारी-भरकम रकम ली जाती है।
भारत में ‘हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड’, ‘हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेस इंडिया प्राइवेट लिमिटेड’, ‘जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद ट्रस्ट’, ‘जमीयत-ए-उलेमा महाराष्ट्र’, ‘हलाल काउंसिल ऑफ इंडिया’, ‘ग्लोबल इस्लामिक शरिया सर्विसेस’ जैसी इस्लामिक संस्थाओं द्वारा धड़ल्ले से हलाल ‘सर्टिफिकेट’ बांटा जा रहा है।
वास्तव में ऐसा माना जा रहा है कि इन्हीं संस्थाओं ने मुस्लिम समाज के बीच हलाल घर, हलाल वस्त्र, हलाल दवाई, हलाल अस्पताल जैसे शब्दों को प्रचलित किया है। ‘हलाल घर’ का अर्थ है कि जो कंपनी घर बनाकर बेच रही है, उसने उपरोक्त किसी संस्था से हलाल प्रमाणपत्र लिया है। ऐसे ही ‘हलाल वस्त्र’ का अर्थ है कि उस वस्त्र को तैयार करने वाली कंपनी ने उपरोक्त किसी संस्था को मोटी रकम देकर हलाल प्रमाणपत्र लिया है। बता दें कि अब हलाल का ऐसा शोर मचा दिया गया है कि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग कोई भी सामान हलाल प्रमाणपत्र देखकर खरीदता है। आप किसी भी मुस्लिम-बहुल इलाके में यह देख सकते हैं। यहाँ तक कि ऐसे क्षेत्रों में बिकने वाले किसी चिप्स या चॉकलेट के पैकेट पर भी हलाल प्रमाणपत्र की मुहर लगी रहती है। भले ही वह पैकेट किसी हिंदू की कंपनी में ही तैयार हुआ हो। ऐसे ही मुस्लिम देशों में निर्यात होने वाली प्रायः हर वस्तु के पेकैट पर हलाल प्रमाणपत्र मिलेगा। ऐसा इसलिए होता है कि इन देशों ने तय किया है कि वे उन्हीं वस्तुओं को खरीदेंगे, जिन्हें हलाल का प्रमाणपत्र मिला है। सीधे शब्दों में कहें तो जिन कंपनियों ने हलाल प्रमाणपत्र के नाम पर इस्लामी संगठनों को मोटी राशि चुकाई हो, उन्हीं कंपनियों का सामान इस्लामी देश आयात कर रहे हैं।
‘हलाल’ को मोटे तौर पर दो भागों में बाँट कर देख सकते हैं-एक है माँसाहार खानपान और दूसरा जो माँसाहार खानपान नहीं है। कोई भी माँसाहार तब ‘हलाल’ होता है जब वह कुछ शर्तों पर खरा उतरता है। जैसे काटते समय पशु का मुँह मक्का की तरफ होना चाहिए और कलमा अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। इसका अर्थ यह होता है कि पशु काटने वाला और आगे उसको खाने वाला अपना ईमान रसूल मोहम्मद पर रखता है। यानी आप किसी कसाई की दुकान से माँस खरीदते हैं तो आप रसूल मोहम्मद पर ईमान रखते हैं। हो सकता है कि कोई कहे कि यह क्या बात है! लेकिन सच यही है कि जाने-अनजाने आप रसूल मोहम्मद पर ईमान रख रहे हैं और यही तो हर मुसलमान चाहता है। लेकिन वहीं दूसरी ओर कोई भी मुसलमान किसी गैर-मुस्लिम के हाथों काटे गए पशु का माँस नहीं खाता है। भले ही कोई मुसलमान आपका कितना ही घनिष्ठ मित्र क्यों न हो, वह आपके हाथों काटे गए पशु का माँस नहीं खाएगा। यदि आप जिद्द करेंगे तो वह यह कहेगा, ‘‘लाओ मुर्गा मैं उसे काटता हूँ। इसके बाद तुम उसे पकाओ, फिर खाएंगे।’’ यह उतना ही सच है, जितना कि इस पृथ्वी का अस्तित्व। आपको विश्वास न हो तो किसी मुसलमान मित्र से बात करके देख सकते हैं।
अभी तक देश से निर्यात होने वाले डिब्बाबंद माँस के लिए वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रलय के तहत आने वाले खाद्य उत्पादन निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीईडीए) को हलाल प्रमाणपत्र देना पड़ता था, क्योंकि दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देश हलाल माँस के ही खरीददार होते हैं। परंतु माँस के अलावा किसने इस प्रमाणपत्र को खाद्य उत्पादनों पर भी अनिवार्य किया, इसका उत्तर किसी के पास नहीं है।
भारत जैसे देश में जहाँ लाखों कंपनियों द्वारा एफएमसीजी (फॉस्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) उत्पादनों का निर्माण किया जाता है। इन सभी कंपनियों पर भारत सरकार के उपभोक्ता मंत्रालय एवं एफएसएसएआई के प्रमाणपत्र की आवश्यकता होती है। सभी तरह के एफएमसीजी उत्पादनों एवं खाद्य पदार्थों पर एफएसएसएआई की अनुमति आवश्यक है। लेकिन इन सब के बीच हलाल ‘सर्टिफिकेशन’ ने कैसे घुसपैठ की है, यह बहुत बड़ा प्रश्न है।
भारत में यह इस्लामिक पाखंड किसने शुरू किया और किसकी शह पर देश की कंपनियों से हलाल ‘सर्टिफिकेट’ के नाम पर अरबों रुपया वसूलने का धंधा चलाया जा रहा है, यह जाँच का विषय है।
हलाल ‘सर्टिफिकेशन’ से प्राप्त धनराशि का इस्तेमाल देश के खिलाफ होने की संभावना है, क्योंकि इन्हीं जमातों द्वारा सीएए के खिलाफ देश में दंगा करने वालों को कानूनी मदद दी गई और उनकी अदालत में पैरवी का सारा खर्चा वहन किया गया।
इसलिए इस बात की जाँच अवश्य होनी चाहिए कि देश में हलाल की आड़ में किस तरह के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं।
इसलिए अनेक संगठन हलाल पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। कर्नाटक सरकार ने इसकी पहल की है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
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