देवों की भाषा कहलाने वाली ‘संस्कृत’ का महत्व

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डॉ. सुभाष कुमार गौतम

भाषा, संस्कृति और संस्कृत इस विषय पर चिंतन और आलेख के लिए मुझे प्रेरणा, शिक्षा, संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव माननीय श्री अतुल भाई कोठारी जी से मिली। उन्होंने पिछले कुछ माह पहले कहा कि संस्कृत भाषा को लेकर एक चिंतन व अध्ययन करो कि इस पर किन किन देशों में अध्ययन अध्यापन होता है, भारत के विश्वविद्ययालयों में इसकी क्या स्थिति है। उस दौरान जो अध्ययन से पाया उसे प्रबुद्ध पाठकों व चिंताकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी कही जाती है। भारत की सांस्कृतिक पहचान अगर पूरी दुनिया में है, तो उनमें से एक संस्कृत भाषा भी है। जिसे हम देव भाष भी कहते हैं। क्योंकि इसको भगवान ब्रह्मा जी ने उत्पन्न किया था। वेदों की रचना इसी भाषा में की गई क्योंकि यह शुद्धता का भी प्रमाण है। इसके आंचल से ही हिन्दी, पाली, प्राकृत आदि कई भाषाएं विकसित हुईं हैं, यह भाषा संस्कृति की तरह व्यापक है अनेक वेद, उपनिषद, वेदांग आदि की विषयवस्तु संस्कृत में ही वर्णित है। संस्कृत भाषा हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म में संचार का पारंपरिक साधन रही है। संस्कृत साहित्य को प्राचीन कविता, नाटक और विज्ञान के साथ-साथ धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों में इस्तेमाल होने वाले विशेषाधिकार भी प्राप्त है। इतिहासकार अलब-ए-रूनी ने संस्कृत भाषा की विशेषता आदि पर खूब चार्चा की है। इसी प्रकार इतिहासकार विल डूरान्ट ने लिखा है कि ‘भारत की मातृभूमि कई प्रजातियों की जन्मदात्री रही है और संस्कृत यूरोपीय भाषाओं की जननी थी। इस प्रकार संस्कृत भाषा के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। संस्कृत कंप्यूटर की कोडिंग के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है। भारत की अधिकांश साहित्यिक रचनाएं, ग्रंथ, उपनिषद, संस्कृति, इतिहास और परम्परा से संबन्धित बाते संस्कृत में लिखी गईं हैं। इन ग्रंथों का अनुवाद कई भाषाओं में हुआ है मगर इसकी मौलिकता और जीवंतता संस्कृत भाषा में ही नीहित है। कालिदास की अद्भुत साहित्यिक कृतियां मेघदूतम, कुमारसंभव, बाणभट्ट की कादंबरी, पतंजलि के योग सूत्र, आध्यात्मिक ग्रंथ जैसे भगवद गीता, वेद, उपनिशद और बेशक दुनिया के महानतम महाकाव्य महाभारत और रामायण सभी मूल रूप से संस्कृत में लिखे गए थे।

संस्कृत को हिंदू धर्म की प्राचीनतम भाषा माना जाता है, यह देव भाषा भी कहलाती है क्योंकि हिंदू देवी-ंदेवताओं द्वारा इसे संवाद और संचार के कार्य के लिए प्रयुक्त किया जाता था इसके बाद इंडो-ंआर्यों ने भी संचार और संवाद के साधन के रूप में इस भाषा का प्रयोग किया। जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म में भी संस्कृत भाषा का फलक काफी व्यापक रहा है। ‘संस्कृत’ उपसर्ग ‘सम’ अर्थात ‘सम्यक’ के संयोजन से बना है जो ‘संपूर्ण’ को इंगित करता है, और ‘कृत’ जो ‘पूर्ण’ को इंगित करता है। आज भी पवित्र ग्रंथों और भजनों को पढ़ने में इसका व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है।

संस्कृत भषा को देववाणी के रूप में जाना जाता है यह मान्यता है कि यह भगवान ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न की गई भाषा थी, जिन्होंने इस भाषा का ज्ञान आकाशीय द्वीपों में रहने वाले ऋषियों (ऋषि) ने प्रदान किया था। ऋषियों से शिष्यों तथा शिष्यों से यह भाषा पृथ्वी पर फैल गई। इस प्रकार इसका पदार्पण हस सब के बीच हुआ।

संस्कृत को साहित्य की दृष्टि से दो अलग-अलग अवधियों, वैदिक और शास्त्रीय में वर्गीकृत किया गया है। वैदिक संस्कृत वेदों के पवित्र ग्रंथों, विशेषरूप से ऋग्वेद, पुराणों और उपनिशदों में पाई जाती है, जहां भाषा का सबसे मूल रूप इस्तेमाल किया गया था। वेदों की रचना 1000 से 500 ईसा पूर्व की अवधि तक मानी जाती है, उस समय संस्कृत को मौखिक संचार के रूप में लगातार उपयोग किए जाने की जोरदार परंपरा थी। प्रारंभिक संस्कृत शब्दावली, ध्वन्यात्मकता, व्याकरण और वाक्य-विन्यास में काफी समृद्ध है, जो आज भी उसी रूप में विद्यमान है। इसमें कुल 52 अक्षर, 16 स्वर और 36 व्यंजन हैं। इन 52 अक्षरों को कभी भी संशोधित या परिवर्तित नहीं किया गया है और माना जाता है कि यह शुरुआत से ही स्थिर रहे हैं, इस प्रकार यह शब्द निर्माण और उच्चारण के लिए सबसे उत्तम भाषा है।

संस्कृत के शास्त्रीय रूप की उत्पत्ति वैदिक काल के अंत में हुई थी जब उपनिषद लिखे जाने वाले अंतिम पवित्र ग्रंथ थे, जिसके बाद पाणिनि के वंशज, व्याकरण और भाषाई शोधकर्ता पाणिनि ने भाषा के परिकृत संस्करण की शुरुआत की। पाणिनि की समयावधि चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास मानी जाती है, जब उन्होंने ‘अष्टाध्यायी’ की रचना की, जिसका अर्थ है आठ अध्याय, जो संस्कृत व्याकरण का एकमात्र उपलब्ध मूलभूत और विश्लेषणात्मक पाठ है। इसे आज संस्कृत व्याकरण और शब्दावली का एकमात्र स्रोत माना जाता है।

प्रसिद्ध इतिहासकार और लेखक विलियम कुक टेलर के अनुसार ‘इस भाषा की महारत हासिल करना लगभग जीवनभर का श्रम है, इसका साहित्य अंतहीन लगता है’ जर्मनी जैसे कई देशों में इस विषय को लेगर गहन विचार मंथन हो रहा है। भाषाविद आज भी इसके शोध में लगे हैं। महर्षी श्री अरबिंदों के शब्दों में ‘अगर मुझसे पूछा जाए कि भारत के पास सबसे बड़ा खजाना क्या है और उसकी सबसे बड़ी विरासत क्या है, तो मैं बिना किसी हिचकिचाहट के जवाब दूंगा कि यह संस्कृत भाषा और साहित्य है और इसमें वह सब कुछ है। यह एक शानदार विरासत है, और जब तक यह हमारे लोगों के जीवन को प्रभावित करती है, तब तक भारत की मूल प्रतिभा बनी रहेगी।’ यह कोई साधारण बात नहीं है। इसी कड़ी में आज भारत में अध्यात्मीकता की नए सिरे से चिंतन व चार्चा होने लगी है। पंडित जवाहरलाल नेहरू जो अंग्रेजी परस्ती के समर्थक थे। उन्होंने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है। कि संस्कृत भारतीय संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका धार्मिक साहित्य में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, मुख्यतः हिंदू धर्म में और क्योंकि अधिकांश आधुनिक भारतीय भाषाएं सीधे संस्कृत से ली गईं हैं, या उससे बहुत प्रभावित हैं।

वहीं स्वामी विवेकानंद के अनुसार ‘भाषा ही उन्नत्ति का प्रतीक है। संस्कृत ही वह एक मात्र पवित्र भाषा है जिसके अंतस से अन्य भाषाओं का आविर्भाव हुआ है। भाषा शास्त्र में संस्कृत भाषा को एक सार्वभौमिक भाषा तथा सभी यूरोपीय भाषाओं की नींव के रूप में स्वीकार किया गया है।’ इस प्रकार संस्कृत का ज्ञान प्राचीन भारत में सामाजिक वर्ग और शैक्षिक उपलब्धी का प्रतीक था, और यह मुख्य रूप से उच्च जातियों के सदस्यों को पढ़ाया जाता था। मध्ययुगीन भारत में विद्वानों द्वारा संचार माध्यम के रूप में विशेष रूप से ब्राह्मणों द्वारा प्रयोग की जाती थी, तथा उनकी प्रतिष्ठा का प्रतीक भी था।

आज भी भारत में संस्कृत का प्रयोग होता है। 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद से 3,000 से अधिक संस्कृत रचनाओं की रचना की गई है, जबकि 90 से अधिक साप्ताहिक, द्विसाप्ताहिक और त्रैमासिक प्रकाशन संस्कृत में प्रकाशित होते हैं। सुधारा, संस्कृत में लिखा जाने वाला एक दैनिक समाचार पत्र 1970 से भारत में प्रकाशित हुआ है। संस्कृत का उपयोग शास्त्रीय संगीत की कर्नाटक और हिंदुस्तानी शाखाओं में बड़े पैमाने पर किया जाता है, और इसका उपयोग हिंदू मंदिरों के साथ-ंसाथ बौद्ध और जैन धार्मिक में पूजा के दौरान किया जाता है। वर्तमान समय में दुनियाभर में संस्कृत के प्रति बहुत रुचि है। इसके अनेक कारण हैं यह प्राचीन है और इसमें लगभग सभी विषयों का साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। दूसरा कारण यह एक अच्छी तरह से बनाई गई भाषा है जिसका व्याकरण भाषा को सटीक और स्पष्ट और मशीनी भाषा के रूप में उपयुक्त बनाता है। पाणिनि की पुस्तक जिसे ‘अष्टाधायायी’ के नाम से जाना जाता है, यह गणितीय सूत्रों के रूप में लिखी गई किसी भी भाषा के लिए दर्ज किया गया सबसे पुराना व्याकरण है। पाणिनि ने स्वयं कहा था कि वे केवल उन सूत्रों का संकलन कर रहे थे जो उनके सामने लंबे समय से प्रसिद्ध और प्रचलित थे। कोई भी संस्कृत की प्राचीनता की कल्पना कर सकता था।

संस्कृत सुनने में संगीतमई लगती है। मन्त्रोच्चारण के दौरान यह आलौकिक सुख प्रदान करती है। इसका जप सुनने में हमेशा अध्यात्मिक व सुखद होता है।इसमें उच्चारण को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है।और इसलिए जहां भी बोली जाती है वैसे ही सुनाई देती है। कोई भिन्नता नहीं होती है।

निकट भविष्य में नासा संस्कृत को कम्प्यूटर भाषा के रूप में प्रयोग करने जा रहा है। नासा के वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने बहुत पहले ही (1985) में अपने पेपर नॉलेज रिप्रेजेनटेशन इन संस्कृत एंड आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में चर्चा की थी कि संस्कृत कंप्यूटर में उपयोग के लिए सबसे अच्छी भाषा है। उनके अनुसार संस्कृत वह प्राकृतिक भाषा है, जिसमें कम्प्यूटर द्वारा कम से कम शब्दों में संदेश भेजे जा सकते हैं। संसार की महान भाषाओं में संस्कृत सबसे प्राचीन और उत्तम श्रेणी की भाषा है। भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृति को समृद्ध बनाए रखने में इस भाषा का योगदान अतुलनीय है। यह जितनी प्राचीन है उतनी आधुनिक और वैज्ञानिक भी। संस्कृत भाषा के सार्वभौमिक स्वरूप एवं व्यापकता के कारण वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। आज पूरी दुनियां की नजर भारत पर टिकी है, हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी जी और गृह मंत्री श्री अमित भाई शाह जी भारत को विश्वगुरू बनाने के लिए तत्पर है ऐसे समय में संस्कृति का महत्व और बढ़ जाता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इसी कड़ी में उच्च शिक्षण संस्थानों को हर साल 11 दिसंबर को ‘भारतीय भाषा दिवस’ मनाने का निर्देश दिया है। निश्चित ही इससे भाषा, संस्कृति और संस्कृत को बढ़ावा मिलेगा और भारत अपने गौरव का गान कर सकेगी।

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