मनुष्य के चतुर्दिक व्यक्तित्व के विकास के लिए मानवाधिकार परम आवश्यक है। मानवीय समुदाय के समाजों और संस्कृतियों ने ऐसे अधिकारों और सिद्धांतों की अवधारणा का विकास किया है। जिनसे व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हो सके। मानवाधिकारों के सशक्त एवं पुरजोर आंदोलनों ने समाजवादी आंदोलन को ऊर्जावान मूर्त रूप प्रदान किया था। जिसने वैश्विक स्तर पर मानव अधिकारों के प्रति वैचारिक एवं विचारधारात्मक आंदोलन का आधार प्रदान किया, जो वर्ग आधारित शासन की समाप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका थी। अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा, 1776 और फ्रांसीसी क्रांति की घोषणा, 1789 ने विधि के समक्ष समानता के सिद्धांत को स्थापित किया और इन्हीं महान क्रांति और गौरव मई घोषणाओं के द्वारा भाषण की स्वतंत्रता, विचार की स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा एवं लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला रखी गई है। इन सबल कारकों द्वारा जीवन के अधिकार को मजबूती प्रदान की गई थी। मानवाधिकारों को सामान्यतः ऐसे अधिकारों के तौर पर परिभाषित किया जाता है। जिनका अनुप्रयोग और जिनकी सुरक्षा की अपेक्षा रखने का हक प्रत्येक मनुष्य एवं प्रत्येक मानव समुदाय का है।
मानवतावाद यूरोप में पुनर्जागरण और ज्ञानोदय का मूल मंत्र है। जिसने मनुष्य एवं मानवीय व्यक्तित्व को सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया है। मनुष्य के तात्विक सामर्थ्य आत्मीय ऊर्जा एवं मानवीय गरिमा को बल दिया है। मनुष्य की असीम सूचनात्मक क्षमता में गहन आस्था व्यक्त की गई है, एवं मनुष्य की स्वतंत्रता तथा व्यक्ति के अपरिहार्य अधिकारों की घोषणा की गई है। मानवाधिकारों की अवधारणा के विकास में अठारहवीं सदी के अंतिम चरण में पश्चिम के कुछ देशों में उदय हुए क्रांतिकारी आंदोलनों में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। निरंकुश और सर्व सत्तावादी नैतिक व्यवस्थाओं को उखाड़ फेंकने के लिए इन क्रांतिकारी आंदोलनों ने मनुष्य के अधिकारों को सुरक्षित और पवित्र मानने के साथ-साथ अपने संघर्ष और उस व्यवस्था का जिसकी स्थापना का प्रयास किया उसका आधार बनाया था। अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा 1776 एवं फ्रांसीसी क्रांति की घोषणा 1789 इन वैश्विक राष्ट्रीय आंदोलन का मुख्य सरोकार निरंकुश शासन सत्ता को मिटाना लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्थाओं की स्थापना तथा मनुष्य की स्वतंत्रता की सुरक्षा एवं संरक्षा करना है।
19वीं शताब्दी में नवोदित समाजवादी आंदोलन के साथ मानवाधिकारों की विकासशील अवधारणा में ‘वर्ग आधारित शासन की समाप्ति’ एवं सामाजिक और आर्थिक समानता पर वैधानिक जोर था। आधुनिक सभ्य समाज के लिए न्याय, मानवीय गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता अति महत्वपूर्ण मानवीय व्यक्तित्व की आवश्यकता है। जिसके द्वारा ही आधुनिक मूल्यों का गत्यात्मक वैकासिक आयाम प्रस्तुत किया गया है, क्योंकि इनकी उपस्थिति के कारण ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का सार्वभौमिक गत्यात्मक योग प्रदान किया जा सकता है। मानवाधिकार का वैधानिक पहलू इतिहास के विशिष्ट पहलू की देन है। यूरोप में यह पुनर्जागरण के दार्शनिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि में दिखाई देती है। मानव अधिकार का विचार पाश्चात्य राजनीतिक चिंतक ‘जॉन लॉक’ और ब्रिटेन की गौरवमई क्रांति के योगात्मक और फलात्मक संबंधों की परिणति है। अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा 1776 और फ्रांस की क्रांति की घोषणा 1789 ने विधि के समक्ष समानता के सिद्धांत को स्थापित किया और इन्हीं क्रांति और घोषणा के द्वारा भाषण की स्वतंत्रता, विचार की स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा तथा लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला रखी गई थी, और 19वीं शताब्दी में ये सिद्धांत स्थापित हुए जिन्होंने मानवीय गरिमा और मानवीय व्यक्तित्व के विकास में सकारात्मक योग प्रदान किया है।
किसी भी जाति, धर्म, रंग एवं भाषा का व्यक्ति हो उसकी समान विचार मानवाधिकार की स्थिति है। विधि के शासन के द्वारा व्यक्तियों के मानव अधिकारों को सुरक्षा प्रदान की गई है। हर दिन गरिमा के साथ जीने का प्रत्येक व्यक्ति का मूल मानव अधिकार है। मानव के अधिकारों को सुरक्षित करके स्वच्छ एवं सहयोग पूर्ण वातावरण प्रदान करके विवेकी सूझबूझ के द्वारा जीवन के अधिकार का उपयोग करके प्रत्येक व्यक्ति अपने मानवीय अधिकार को सुरक्षित कर सकता है। ब्रिटेन के नरेश ‘जान’ ने एक घोषणापत्र जारी किया था, जिसको महान अधिकार पत्र (magnacarta)कहा गया। इन दस्तावेजों को आदि दस्तावेज कहा जाता है। इन्हीं ऐतिहासिक विकास एवं आमूल-चूल विकास के द्वारा 1948 का घोषणा पत्र बना। इन दस्तावेजों ने सामंतों के अधिकारों की प्रत्याभूति प्रदान की एवं इन अधिकारों की मजबूती के द्वारा मानव अधिकारों को मजबूती मिली थी। राज्य लोक प्राधिकारी किसी भी नागरिक के अधिकार पर कुठाराघात करता, तो वह मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
मानवाधिकारों का भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 जिसको भारत के संविधान का मैग्नाकार्टा कहा जाता है। माननीय शीर्ष न्यायालय ने मानवाधिकारों का दायरा स्पष्ट करने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या को प्रधानता दी है। मानवाधिकारों की सुस्पष्ट एवं सारगर्भित व्याख्या माननीय शीर्ष न्यायालय ने कुछ इस प्रकार से की है-
1. 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को निशुल्क शिक्षा का अधिकार
2. शिक्षा का अधिकार
3. कामकाजी महिलाओं को यौन उत्पीड़न से संरक्षण
4. समान काम के लिए समान वेतन पाने का अधिकार
5. त्वरित विचारण का अधिकार
6. स्वच्छ पेयजल का अधिकार
7. पर्यावरण संरक्षण का अधिकार
8. निशुल्क चिकित्सा का अधिकार
10. प्रेस, स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार
मानव अधिकार में वे अधिकार हैं, जो मानव को प्राप्त हैं। मानव अधिकार मौलिक रूप में नैसर्गिक अधिकार हैं, क्योंकि यह वह अधिकार हैं, जिन्हें विधायिका या कार्यपालिका के किसी कृत्य के द्वारा छीना नहीं जा सकता है, तथा इन अधिकारों का वर्णन विशेष रूप से संबंधित देशों के संविधान में किया गया है। मानव अधिकारों का अस्तित्व राज्य एवं विधि से पहले है। मानव अधिकार प्राकृतिक अवस्था में भी विद्यमान थे। इन संवैधानिक संस्थाओं एवं कानूनी संस्थाओं का प्रमुख उद्देश्य मानवाधिकारों की सुरक्षा एवं संरक्षा करना है। इन प्रमुख संस्थाओं का ध्येय मानवाधिकार के उल्लंघन को रोकना है ताकि प्रत्येक मनुष्य लोकतांत्रिक अधिकारों का उपभोग कर सके। गरिमा से भरा जीवन जी सके, अपना सर्वाधिक विकास कर सके और राज्य का एक सत्यनिष्ठ नागरिक बन सकें। अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा एवं फ्रांसीसी क्रांति ने इस संकल्पना को बढ़ाया था। मानवाधिकार के अंतर्गत जीवन, स्वतंत्रता और सुख की साधना का भी अधिकार समाहित है एवं मानवाधिकार की संकल्पना व्यापक है। हर सभ्य राज्य, संयुक्त राष्ट्र संस्था का निकाय इन अधिकारों को मान्यता देती है एवं स्वीकार करती है। मानव अधिकारों के संरक्षण के विधिक कर्तव्य में उनका सम्मान करने का कर्तव्य सम्मिलित करके संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राज्य मानव अधिकार एवं मौलिक अधिकारों का सम्मान करने तथा उनका अनुपालन करने के लिए वचनबद्ध है। यह नैसर्गिक अधिकारों के साथ मानव के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रक्षार्थ महान ऐतिहासिक आंदोलनों का उत्तराधिकारी है तथा विश्व के सभी महान धर्म तथा दर्शन एवं तत्कालीन विज्ञान के अंतर संबंधों की खोज में मानव गरिमा तथा व्यक्तियों एवं समुदाय के मूल्यों के सम्मान की बातें कही गई हैं।
इस प्रकार निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि मानवाधिकार का सार्वभौमिक घोषणा पत्र, 1948 का उद्देश्य एवं इसकी उपादेयता इस बात में निहित है कि वैश्विकस्तर के इन अधिकारों को प्रत्येक राज्य अपने देश के संविधान एवं व्यवस्थाओं में स्थान दें। इनकी महत्ता इन संविधान में होने में है। इससे मानवीय समुदाय इनका उपभोग कर सके। 1948 के बाद विभिन्न लोकतांत्रिक राज्य के संविधान में उल्लिखित होने के बाद अधिकार पत्र के रूप में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सके जिससे मानवाधिकार व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता एवं सुरक्षा के अधिकार को प्रदान कर सके।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य हैं)
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