उत्तराखंड में हर साल करीब तीन हजार हेक्टेयर जंगल आग में झुलस रहे हैं। वन विभाग आग बुझाने के लिए कागजी योजनाएं बनाता है जो बजट ठिकाने लगाने के लिए काम आती हैं। आग की घटनाओं से पहाड़ में वातावरण गर्म हो रहा है और इससे पर्यटन को भी नुकसान हो रहा है।
1982 में लागू हुए वन अधिनियम के बाद से उत्तराखंड के पहाड़ों में ग्रामवासियों के जंगल में मिले अधिकार छीन लिए गए। पहले गांव के लोग जंगल में चारा, ईंधन लकड़ी के लिए बेरोकटोक आया जाया करते थे इसे हक हक्कू बोला जाता था। लोगों को घर बनाने के लिए जंगल से लकड़ी और नदियों से रेता, बजरी मिलती थी। बदले में गांव वासी जंगल के संरक्षण का काम किया करते थे। इसी तरह जंगल के भीतर रहने वाले दुधारू पशुओं को पालने वाले वन गुज्जर भी जंगल के रखवाले माने जाते थे।
देशभर में जबसे विदेशी एनजीओ संस्थाओं का बोलबोला शुरू हुआ तब से जंगलों से ग्रामवासियों को और गुज्जर समुदाय को बाहर खदेड़ दिया गया। नतीजा ये हुआ कि लोगों का जंगल से प्यार ही खत्म हो गया। जंगल में हर साल आग लगने की घटनाएं होती हैं। पहले गांव के लोग जंगल के भीतर जाकर इस आग को फैलने से पहले ही बुझा देते थे। अब वही लोग जंगल को जलता देख दूर खड़े रहते हैं।
उत्तराखंड सरकार को हर साल अरबों का नुकसान जंगल में आग लगने से होता रहा है। आग को बुझाने के प्रोजेक्ट हर साल बनाए जाते हैं, विश्व बैंक से लेकर अन्य संस्थाओं और केंद्र सरकार से मिले बजट को वन महकमे के अधिकारी ठिकाने लगाने का काम करते हैं। वनाग्नि बुझाने के लिए हर साल दैनिक वेतन भोगियों को भर्ती किया जाता है। आग बुझाने के लिए झाड़ डंडियों के अलावा उनके पास कोई औजार नहीं होता। अब उत्तराखंड वन विभाग ने केंद्र से आग बुझाने के लिए पांच सौ करोड़ की योजना बना कर भेजने का फैसला लिया है। इस प्रोजेक्ट को फॉरेस्ट फायर मिटिगेशन प्रोजेक्ट नाम दिया गया है।
वनविभाग के प्रमुख सचिव आरके सुधांशु के अनुसार इस प्रोजेक्ट में चीड़ के पत्ते जिन्हें पिरुल बोला जाता है इसको एकत्र कर ईंधन बनाने, हेलीकॉप्टर से आग बुझाने के साथ-साथ ग्रामों में मंगल दलों का सहयोग लिए जाने की बात कही गई है। हेलीकॉप्टर से पानी बरसा कर आग बुझाने की योजना फेल हो चुकी है क्योंकि आग हेलीकॉप्टर की हवा से आग बुझती कम और फैलती ज्यादा है। पिछले दो सालों में सेना के हेलीकॉप्टर आग बुझाने आए और वापस चले गए। वन विभाग अब ग्राम के मंगल दलों को जनसहभागिता के नाम पर पैसा देकर वनाग्नि बुझाने की बात कर रहा है। इसके लिए सौ करोड़ रुपए इस प्रोजेक्ट में रखे गए हैं।
एक समय ऐसा था जब ग्राम के लोग निशुल्क आग बुझाते थे और बदले में चारा ईंधन लकड़ी चाहते थे और अब वही वन महकमा पैसा देकर उन्हें आग बुझाने का काम करवाना चाहता है। स्थानीय स्तर पर ये मांग बार-बार उठती रही है कि ग्रामीणों को उनके जंगल के हक हक्कू दोबारा लौटाए जाएं, ताकि उनका जंगल से साथ लगाव बना रहे, किंतु महानगरों में पर्यावरण और वन्यजीवों से जुड़े बड़े-बड़े संगठन उनकी राह में रोड़े अटकाते रहे हैं, जिसकी वजह से जंगल की आग हर साल धधकती रही है। पिछले साल ही 2186 जंगल की आग की घटनाएं सरकारी तौर पर दर्ज हुई, जिसमें 3425 हेक्टेयर वन स्वाह हो गए। जंगल में आग लगने से न सिर्फ पेड़ जलते हैं, बल्कि वन्य जीव जंतुओं परिंदों के घर घोंसले भी जलते हैं, वनस्पति जड़ी बूटी भी नष्ट होती है।
पिछले साल जंगल की आग की खबरें ऐसी फैली कि उत्तराखंड में पर्यटक भी आने से कतराने लगे। जिससे पर्यटन कारोबार प्रभावित हुआ। बहरहाल उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि वे स्थानीय वन विशेषज्ञों की राय लेकर जंगल की आग बुझाने के लिए ठोस रणनीति बनाए, न कि बजट ठिकाने लगाने वाली सरकारी नौकरशाही की नीति से राज्य को हर साल नुकसान पहुंच रहा है। पिछले दिनों उफैरखाल में पर्यावरण विशेषज्ञ सचिदानंद भारती ने आसपास के अपने यहां में वर्षा के पानी के तालाबों से जंगलों में नमी रखने की मिसाल पेश कर वन अग्नि को रोकने की योजना को सरकार के सम्मुख रखा था, खुद प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भी सचिदानंद भारती के कार्यों की सराहना मन की बात कार्यक्रम में कही थी। बावजूद इसके वन विभाग के अधिकारियों ने उनके कार्यस्थल पर जाकर उनकी योजना को समझने तक का प्रयास नहीं किया।
यही वजह है कि वन विभाग की लापरवाही से ही हर साल जंगलों में आग की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं, आग को बुझाने की योजनाएं कागजी और बारिश भरोसे बनाई जाती रही हैं, जिसकी वजह से अरबों की बेशकीमती वन संपदा स्वाह हो रही है।
टिप्पणियाँ