इस बार जलवायु सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के कारण गरीब देशों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए निधि बनाने पर सहमति बनी है। लेकिन इसे किस तरह अमल में लाया जाएगा? कौन धनराशि देगा और किस तरह देगा? इस पर फैसला आने वाले समय में किया जाएगा
मिस्र के तटीय शहर शर्म अल शेख में कॉप-27 जलवायु सम्मेलन शुक्रवार 18 नवंबर के बजाय रविवार तड़के तक चला। सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, जलवायु परिवर्तन के कारण गरीब देशों में हुई ‘हानि-क्षति’ की प्रतिपूर्ति व्यवस्था। फंडिंग के विवरण को कॉप-28 के दौरान अंतिम रूप दिया जाएगा, जो 2023 में नवंबर से दिसंबर के बीच संयुक्त अरब अमीरात में होगा।
इस बार की बैठक में जो प्रगति हुई है, वह मोटे तौर पर विकासशील देशों की मांग के अनुरूप है। अब यह जिम्मेदारी विकसित देशों पर है कि वे इस प्रस्ताव को स्वीकार करें या उसे नकार दें। सम्मेलन की पूरी बातचीत करीब 100 बिंदुओं पर केंद्रित है। इसमें वर्ष 2025 के बाद वित्त-पोषण लक्ष्य, कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए कार्यक्रम और वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए महत्वाकांक्षी उपायों को अपनाया जाना आदि शामिल हैं।
अमीर देशों की जिम्मेदारी
सम्मेलन के समापन के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अपने एक वीडियो संदेश में कहा, ‘‘इस सम्मेलन ने बड़ा कदम उठाया है।’’ उन्होंने ‘क्लाइमेट फंड’ के लिए हर वर्ष 100 अरब डॉलर की धनराशि मुहैया कराए जाने के वादे का भी उल्लेख किया है, जो कॉप-15 के दौरान कोपेनहेगन में किया गया था और जो अब तक 100 अरब डॉलर के स्तर तक नहीं पहुंच पाया है। आप पूछ सकते हैं कि जब यह वादा पूरा नहीं हुआ, तो नए वादे का मतलब क्या है?
ऐसा दावा नहीं किया जा सकता कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी सभी वैश्विक चिंताओं का हल हो गया है। वह हो भी नहीं सकता, पर सम्मेलन का उद्देश्य उन न्यूनतम सहमतियों तक पहुंचना था, जो संभव हैं। इस सम्मेलन का जो सैद्धांतिक प्रश्न है, उसके पहले चरण पर ही यह सवाल खड़ा होगा कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से होने वाली क्षति का आकलन किस प्रकार किया जाएगा? सम्मेलन के दौरान कहा गया कि हाल में पाकिस्तान में आई बाढ़ से करीब 46 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है, जो देश की जीडीपी का 13.5 प्रतिशत है। इसकी भरपाई कैसे होगी? ऐसे सवाल आगे आने वाले वर्षों में उठेंगे। उनके जवाब खोजने के लिए ही संयुक्त राष्ट्र का यह सबसे बड़ा सालाना कार्यक्रम होता है। भविष्य में इन चिंताओं का क्रमश: समाधान होगा।
कॉप-27 के दौरान जलवायु आपदाओं से होने वाली हानि व क्षति और उसके मद्देनजर धनी देशों द्वारा निर्बल देशों के लिए वित्त-पोषण सबसे अहम मुद्दे के रूप में छाया रहा। विकासशील देशों ने हानि-क्षति कोष की स्थापना के लिए मजबूती से बार-बार अपील की। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कहा, ‘‘साफ है कि यह पर्याप्त नहीं होगा, पर टूटे हुए भरोसे को फिर से कायम करने के लिए यह एक अत्यावश्यक राजनीतिक संकेत है।’’
खुलते नए रास्ते
कॉप-27 के अध्यक्ष सामेह शुक्री ने प्रतिनिधियों को बताया कि यह निर्णय एक प्रवेश द्वार है, जिससे क्रियान्वयन का दायरा बढ़ेगा और कार्बन तटस्थता व जलवायु सहन-सक्षम को लेकर भविष्य की दिशा में बढ़ पाना सम्भव होगा। हानि-क्षति कोष की स्थापना के निर्णय को फिलहाल सैद्धांतिक ही कहा जाएगा, क्योंकि इस विषय पर अब भी विचार-विमर्श हो रहा है कि इसे किस प्रकार से अमल में लाया जाएगा। यह तय हुआ है कि अगले कुछ महीनों में एक कमेटी की बैठक में तय होगा कि कौन धनराशि देगा और किस तरह देगा।
क्षतिपूर्ति पर सहमति के बावजूद, कॉप-27 के दौरान अन्य अनेक मुद्दों पर प्रगति बहुत धीमी रही, जिनमें जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता खत्म करना शामिल है। इस दौरान गैर-सरकारी संस्थाओं के लिए नैट-शून्य उत्सर्जन संकल्पों पर उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समूह द्वारा पहली रिपोर्ट जारी की गई। इस रिपोर्ट में ‘हरित लीपापोती’ और कमजोर शून्य कार्बन उत्सर्जन संकल्पों की निंदा की गई। साथ ही, उद्योगों, वित्तीय संस्थाओं, शहरों, क्षेत्रों द्वारा लिए जाने वाले शून्य उत्सर्जन संकल्पों में सत्यनिष्ठा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से एक रोडमैप तैयार किया गया है।
सम्मेलन के दौरान आपदाओं की पूर्व चेतावनी प्रणाली के लिए एक कार्य-योजना की भी घोषणा की गई, जिसमें वर्ष 2023 और 2027 के दौरान 3.1 अरब डॉलर के लक्षित निवेश का आह्वान किया गया है। इस बीच, अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और जलवायु कार्यकर्ता अल गोर ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव के समर्थन के साथ ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का स्वतंत्र लेखा-जोखा रखने के लिए एक नई पहल पेश की, जिसे जलवायु गठबंधन ट्रेस ने तैयार किया है। इस उपाय के तहत उपग्रह और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) के सम्मिश्रण से विश्व भर में 70 हजार से अधिक जगहों पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के स्तर को आंका जाएगा। इनमें अमेरिका, चीन और भारत की कंपनियां भी हैं। इससे विभिन्न स्थलों पर वातावरण में छोड़ी जा रही कार्बन और मीथेन गैस उत्सर्जन के स्तर को मापा जाना सम्भव होगा।
कृषि की भूमिका
सम्मेलन के दौरान ही अध्यक्ष देश मिस्र ने अर्थव्यवस्था के पांच बड़े क्षेत्रों (बिजली, सड़क परिवहन, इस्पात, हाइड्रोजन और कृषि) में विकार्बनीकरण में तेजी लाने के लिए एक नए मास्टर प्लान को प्रस्तुत किया। मिस्र ने संधारणीय रूपांतरकारी बदलावों के लिए खाद्य एवं कृषि नामक पहल की घोषणा भी की है। इसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक कृषि एवं खाद्य प्रणालियों में कायापलट कर देने वाले बदलावों के लिए जलवायु वित्त-पोषण की गुणवत्ता और परिमाण को बेहतर बनाना है। यह पहला कॉप सम्मेलन था, जिसमें कृषि के लिए समर्थित एक विशेष दिवस आयोजित किया गया। कृषि क्षेत्र कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के एक तिहाई के लिए जिम्मेदार है।
इस वजह से इसे जलवायु समाधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बताया गया है। इस सम्मेलन के दौरान कुछ और घोषणाएं की गई हैं, जिनके शीर्षक इस प्रकार हैं- 1. शर्म अल-शेख अनुकूलन एजेंडा, 2. जल अनुकूलन एवं सहनशीलता के लिए कार्रवाई 3. अफ्रीका कार्बन बाजार पहल, 4. बीमा अनुकूलन त्वरण मुहिम, 5. वैश्विक अक्षय ऊर्जा गठबंधन।
भारत की भूमिका
हालांकि यह क्षति प्रतिपूर्ति कोष स्वैच्छिक होगा। इसमें चीन और भारत की भूमिका कितनी होगी, होगी भी या नहीं होगी, यह भविष्य में तय होगा। भारत ने कोयला और अन्य जीवाश्म र्ईंधन के इस्तेमाल को खत्म करने (फेज आउट) के स्थान पर क्रमश: कम करने (फेज डाउन) करने का सुझाव दिया, जिसे दूसरे दस्तावेज में शामिल कर लिया गया। भारत ने ग्लासगो में भी इस शब्द में बदलाव कराया था। इसके अलावा, जीवाश्म र्ईंधन पर सब्सिडी के मामले में भी भारतीय दृष्टिकोण के अनुरूप शब्दावली का इस्तेमाल हुआ है।
सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने किया। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्लासगो में साल 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने के भारत के लक्ष्य की घोषणा की थी। एक वर्ष के भीतर भारत ने प्रमुख आर्थिक क्षेत्रों में कम कार्बन संक्रमण वाले मार्गों को इंगित करते हुए अपनी लंबी अवधि की कम उत्सर्जन वाली विकास रणनीति प्रस्तुत की है।
भारत ने अगस्त 2022 में अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान को अद्यतन किया था। इसने वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा, ई-मोबिलिटी, इथेनॉल मिश्रित र्ईंधन और ग्रीन हाइड्रोजन के क्षेत्र में नए दूरगामी कदम उठाए हैं। समापन सत्र में भी भूपेंद्र यादव ने मिस्र के राष्ट्रपति को संबोधित करते हुए कहा कि हानि-क्षति निधि की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए जो समझौता किया गया है, उसकी दुनिया को लंबे समय से प्रतीक्षा थी।
सम्मेलन के दौरान 15 नवंबर को भारत का राष्ट्रीय घोषणा पत्र, एलआईएफई या लाइफ -‘पर्यावरण के लिए जीवनशैली’ जारी किया गया। सम्मेलन के दौरान भारतीय मंडप में जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों को दर्शाया गया। लगभग 25,000 कॉप प्रतिभागियों ने मंडप का अवलोकन किया। मंडप को इस तरह तैयार किया गया था कि विभिन्न दृश्य-श्रव्य, लोगो, 3डी मॉडलों, सेट-अप, सजावट और सहायक कार्यक्रमों के जरिए ‘लाइफ’ का संदेश दिया जा सके।
वार्ता में गतिरोध
वार्ता में शुरू से गतिरोध चल रहा था, पर 17 नवंबर को जब यूरोपीय संघ (ईयू) ने कहा कि गरीब देशों को हुई जलवायु क्षतिपूर्ति पूरी करने के लिए अमीर देश तैयार हैं, तो कुछ गति आई। हालांकि सम्मेलन का समापन 18 नवंबर को नहीं हो पाया। 19 नवंबर को ईयू ने कहा कि किसी समझौते के बगैर भी सम्मेलन का समापन किया जा सकता है। यह अच्छा संकेत नहीं था। लेकिन रात भी गुजर गई और कोई समझौता नहीं हुआ। तय हुआ कि देर रात 3.00 बजे अंतिम बैठक होगी। इस बैठक में घोषणापत्र पर सहमति हो गई।
जलवायु वार्ता जारी रहने के बीच दो निष्कर्ष दस्तावेज जारी हुए। पहला मसौदा 17 नवंबर को प्रकाशित किया गया, जिसमें कॉप-26 समझौते की भाषा को जारी रखते हुए कोयले का इस्तेमाल को घटाने की बात कही गई थी। साथ ही, सभी पक्षों से जीवाश्म र्इंधन पर दी जाने वाली सब्सिडी को तर्कसंगत रूप प्रदान करने और 2023 तक नई जलवायु कार्रवाई राष्ट्रीय योजनाओं को पेश करने का आग्रह किया गया।
ग्लासगो में कॉप-26 के कवर निर्णय को ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट (जीसीपी) के नाम से जाना जाता है, जिसमें ‘जीवाश्म ईंधन’ पर पहला कॉप निर्णय हुआ। जीवाश्म ईंधन से आशय कोयला, तेल प्राकृतिक गैस आदि से है। मसौदे में हानि व क्षति के मुद्दे को जलवायु वार्ता के एजेंडे में शामिल किए जाने का स्वागत तो किया गया, पर वित्त पोषण के लिए नया कोष बनाने का उल्लेख नहीं किया गया। इस बीच, यूरोपीय संघ ने हानि व क्षति प्रतिपूर्ति निधि बनाने के लिए 18 नवंबर को एक आधिकारिक प्रस्ताव पेश किया, जिसके बाद दूसरे देशों में इस मुद्दे पर प्रगति की उम्मीद जागी।
कॉप-28 से पहले कमेटी स्तर पर वार्ताएं जारी रहेंगी। संशय इस बात पर है कि क्या अमेरिका का योगदान बढ़ेगा? क्या चीन पैसे देगा? उसने काफी आर्थिक प्रगति की है, पर जलवायु संरक्षण के लिए उसने बहुत कम योगदान किया है। इस दशक के अंत तक अमेरिका को पीछे करते हुए उत्सर्जन के मामले में वह सबसे आगे हो जाएगा। वह दुनिया की नंबर दो अर्थव्यवस्था है, पर संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा में वह विकासशील देश है। ईयू का प्रयास था कि इसमें चीन के साथ भारत को भी जोड़ा जाए। सच यह है कि अमेरिका जैसे अमीर देश का भी इस कोष में खास योगदान नहीं है। यदि चीन और अमेरिका उचित रुप में योगदान करें, तो काफी समस्याओं का समाधान हो सकता हैं।
टिप्पणियाँ