द्रुपद को न तो अपने मित्र द्रोण की योग्यता की पहचान थी और न उसके लिए मन में सम्मान। वहीं, कर्ण-दुर्योधन की मित्रता का आधार स्वार्थ था। सब कुछ जानते हुए भी वह दुर्योधन का साथ देता रहा। दूसरी ओर कृष्ण हैं, जो सुदामा को दूसरे का हिस्सा खाने के पाप के दंड से बचाते हैं। गलती का अहसास दिलाते हैं व दूसरा मौका देकर सुदामा को हृदय से लगाते हैं
एक बार बचपन में राजकुमार द्रुपद ने अपने मित्र द्रोण से कहा कि जब राजा बनूंगा तो आधा राज्य तुम्हें दे दूंगा। द्रोण ने इसे सच मान लिया। समय आने पर वे आधा राज्य मांगने द्रुपद के पास पहुंच गए, पर द्रुपद ने उनका अपमान किया। बाद में अर्जुन ने द्रुपद को युद्ध में पराजित कर उनका राज्य द्रोण को सौंप कर गुरु की इच्छा पूरी की। पर द्रोण ने आधा राज्य द्रुपद को लौटा दिया। द्रुपद द्रोण की योग्यता को नहीं पहचान सके। उन्होंने धन-वैभव को मित्रता और द्रोण की योग्यता से ऊपर रखा, जबकि द्रोण अकेले सारा देश जीत कर अपने मित्र को दे सकते थे।
दुर्योधन इस मामले में बेहतर था। उसे योग्यता की परख थी। इसलिए उसने पहली नजर में कर्ण की योग्यता और कमजोरी, दोनों पहचान ली और एक राज्य उपहार में देकर दानवीर को एक तरह से खरीद लिया। कर्ण आजीवन दुर्योधन के पास अर्जुन की काट की तरह रहे। कर्ण की शक्ति ने दुर्योधन को और तेजी से अधर्म के रास्ते पर बढ़ने का आत्मविश्वास दिया। उनकी मित्रता का आधार स्वार्थ था। लेकिन कर्ण अंत में दुर्योधन के उस काम नहीं आ सका, जिसके लिए वह सारा जीवन साथ रहे।
वहीं, कृष्ण-सुदामा की कहानी बिल्कुल अलग है। दोनों गुरुकुल में पढ़ते थे। एक दिन दोनों लकड़ी चुनने वन में गए। अचानक तेज बारिश शुरू हो गई तो बचने के लिए दोनों मित्र पेड़ पर चढ़ गए। सुदामा को आश्रम से चने मिले थे, जो दोनों के लिए थे। लेकिन सुदामा अकेले ही चने खाने लगे। जब कृष्ण ने चने मांगे तो उन्होंने कहा कि चने तो रास्ते में गिर गए। तुम जो आवाज सुन रहे हो, वह चने खाने की नहीं है।
द्रुपद -द्रोण की तरह कृष्ण अपनी मित्रता के बीच न तो राजा और भिक्षुक की हैसियत लाए और न ही कर्ण-दुर्योधन की तरह स्वार्थ। दरअसल, कृष्ण गलती का अहसास दिलाते हैं। दूसरा मौका देते हैं और प्रायश्चित होने पर फटेहाल सुदामा को हृदय से भी लगाते हैं, जैसे एक मित्र को करना चाहिए।
ठंड के कारण मेरे दांत बज रहे हैं। कृष्ण ने उनकी बात मान ली। फिर बोले- मेरे पास पिछली बार के कुछ चने बचे हुए हैं, तुम उसमें से खा लो। सुदामा को अपने स्वार्थी होने का अहसास हुआ तो रोने लगे, पर दोस्त का हिस्सा मारने के ऋण से वे मुक्त नहीं हुए। उनका सारा जीवन दरिद्रता में बीता।
सुदामा बाद में जब द्वारिकाधीश कृष्ण से मिले तो उन्होंने पहले जैसा स्वार्थ नहीं दिखाया। सुदामा घर से जो चावल लेकर आए थे, उसे प्रसन्नता से खाकर कृष्ण ने उन्हें पाप से मुक्त किया। जब सुदामा द्वारिका से लौटे तो उनकी दरिद्रता समाप्त हो चुकी थी।
द्रुपद -द्रोण की तरह कृष्ण अपनी मित्रता के बीच न तो राजा और भिक्षुक की हैसियत लाए और न ही कर्ण-दुर्योधन की तरह स्वार्थ। दरअसल, कृष्ण गलती का अहसास दिलाते हैं। दूसरा मौका देते हैं और प्रायश्चित होने पर फटेहाल सुदामा को हृदय से भी लगाते हैं, जैसे एक मित्र को करना चाहिए।
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