किसी भी मनुष्य को अपने महान पूर्वजों, विभूतियों, मनीषियों के देश, धर्म, संस्कृति के लिए दिए योगदान, त्याग और बलिदान स्मरण होना अति आवश्यक है। अपनी जन्मभूमि के आत्माभिमान के लिए त्याग और बलिदान भी देश के स्वतंत्रता प्राप्ति आन्दोलन में योगदान देने जैसा ही ही है। अपने महान पूर्वजों के इतिहास को सुरक्षित, संरक्षित और अक्षुण रखना भी एक सामाजिक दायित्व है। अपने उक्त सभी सामाजिक उत्तरदायित्व का अक्षर से अक्षर निर्वहन करने वाले डॉ. शिवप्रसाद डबराल उत्तराखंड राज्य के महान इतिहासकार, भूगोलवेत्ता, अकादमिक और लेखक थे, उन्हें उत्तराखंड का विश्वकोश भी कहा जाता है।
शिवप्रसाद डबराल का जन्म 13 नवम्बर सन 1912 को पौड़ी के गहली गांव में हुआ था। उनके पिता कृष्णदत्त डबराल प्राइमरी विद्यालय में प्रधानाध्यापक थे और माता भानुमती डबराल सामान्य गृहणी थीं। शिवप्रसाद ने प्राइमरी शिक्षा मांडई व गढ़सिर के प्राइमरी स्कूल से प्राप्त की और मिडिल की परीक्षा गुमखाल से पास की थी। सन 1935 में उनका विवाह विश्वेश्वरी देवी से हुआ था। शिवप्रसाद ने मेरठ से बी.ए., इलाहाबाद से बी.एड. और एम.ए. आगरा विश्वविद्यालय से किया था। शिवप्रसाद डबराल डी.ए.बी. कॉलेज दुगड्डा में सन 1948 में प्रधानाचार्य के रुप में गए, जहां से वह सन 1975 में सेवानिवृत होने तक प्रधानाचार्य के पद पर बने रहे। इसी समयकाल के मध्य में वह सन 1962 में उन्होंने पी.एच.डी. का अध्ययन कर डॉ.शिवप्रसाद डबराल हो गए। उनकी लेखन यात्रा सन 1931 से ही शुरु हुई, उनका प्रथम काव्य संग्रह “जन्माष्टमी” इसी वर्ष प्रकाशित हुआ था। मात्र 270 रुपये पेंशन के बावजूद शिवप्रसाद डबराल ने कभी भी अपने शोध कार्य में कमी नहीं आने दी थी। उन्होंने अपना प्रेस भी खोला और वीरगाथा प्रकाशन के नाम से किताबें प्रकाशित की थी। कालांतर उन्होंने अपने घर दुगड्डा में “उत्तराखंड विद्या भवन” नामक पुस्तकालय और संग्रहालय खोलकर उसमें लगभग 3000 पुस्तकें, दुर्लभ पांडुलिपियां, प्राचीन सिक्के और पुरातात्विक महत्व के बर्तन एकत्रित किए। उत्तराखंड के भोटियों और चरवाहों की जीवन शैली ने उन्हें बेहद प्रभावित किया था। उन्होंने उनके इतिहास में शोध शुरू किया था।
सन 1956 से उन्होंने मलारी गांव में भोटियों पर अपना शोध शुरू किया, जो बाद में उन्हें मलारी की प्राचीन समाधियों तक ले गया, जिसके पुरातत्व का भी उन्होंने शोध किया था। समाधियों पर उनके निष्कर्षों को कर्मभूमि नामक पुस्तक में लेख के रूप में प्रकाशित किया गया था, जिसने समय के साथ ए.एस.आई. को साइट पर जाकर उचित शोध करने के लिए प्रेरित किया था। सन 1960 के बाद से शिवप्रसाद ने पांडुवाला, कोटद्वार, मोरध्वज, पारसनाथ किला और वीरभद्र के पुरातात्विक अवशेषों का अध्ययन किया और विभिन्न अभिलेखागारों में बिखरी सामग्री एकत्र की थी। इसके साथ ही उन्होंने उत्तराखंड के धार्मिक स्थलों, मंदिरों और मूर्तिकला वास्तुकला का भी अध्ययन किया और प्राचीन शिलालेखों एवं दुर्लभ सिक्कों की भी खोज की थी। उन्होंने हिंदी भाषा में अनेक नाटक, काव्य और बाल साहित्य भी लिखे थे। उत्तराखंड के पुरातत्व और इतिहास पर 20 बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिखी। उत्तराखंड के जनजीवन पर पांच पुस्तकें लिखकर प्रकाशित की थी। शिवप्रसाद डबराल ने गढ़वाली भाषा की 22 दुर्लभ पुस्तकों को विस्तृत भूमिका के साथ पुनः प्रकाशित कर लुप्त होने से बचाया था। गढ़वाल शैली के महान चित्रकार एवं कवि मौलाराम की दुर्लभ पांडुलिपि ढूंढकर लुप्त होने से बचाई थी। शिवप्रसाद डबराल ने चालीस बरस तक हिमालय और उसके इतिहास पर शोध किया। उन्होंने उत्तराखंड का इतिहास 25 भागों में लिखा था। विकट आर्थिक परिस्थितियों के कारण कुछ वर्षों के लिए वीरगाथा प्रेस से प्रकाशन बंद कर दिया गया था, लेकिन शिवप्रसाद डबराल चारण ने अपना शोध व लेखन कार्य जारी रखा था।
शिवप्रसाद डबराल ने अपनी पुस्तक “प्राग-ऐतिहासिक उत्तराखंड” में लिखा है– “कुछ लोग कहते हैं हमारी जानकारी में सारे उत्तराखंड के किसी भी गांव के एक ही मकान में, किसी एक ही व्यक्ति द्वारा उत्तराखंड पर इतने अधिक और महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना और प्रकाशन का कार्य संभव नहीं हुआ है। जितना सरोड़ा गांव के उस मकान में हुआ है जो दो सौ साल पुराना जीर्ण-शीर्ण है, जो रेडियो, टेलीविजन, पंखा, फ्रिज जैसे नये संसाधनों से पूर्णतः अछूता है। जिसकी दीवारें भूचाल से फट गयी हैं और जिसकी छत सामान्य वर्षा से भी अनेक स्थानों पर टपकने लगती हैं एवं जिसकी दीवारों पर पिछले दस सालों से सफेदी नहीं हुई है।”
शिवप्रसाद डबराल ने अपनी पुस्तक “कुमाऊं का इतिहास” की भूमिका में लिखा कि– “छह वर्षों तक सूरदास बने रहने के कारण लेखन कार्य रुक गया था। प्रकाशन कार्य में निरंतर घाटा पड़ने से प्रेस बेच देना पड़ा। ऑपरेशन से ज्योति पुन: आने पर पता चला कि दर्जनों फाइलें जिसमें महत्वपूर्ण नोट्स थे, शायद रद्दी कागजों के साथ फेंक दी गईं हैं। कुमाऊँ का इतिहास भी गढ़वाल के इतिहास के समान ही छः सौ पृष्ठों में छपने वाला था। इस बीच कागज़ का मूल्य छः गुना और छपाई का व्यय सौलह गुना बढ़ गया था। छह सौ पृष्ठों का ग्रन्थ छपने के लिए पैंतीस हजार रुपयों की आवश्यकता थी। इतनी अधिक राशि जुटाना सम्भव नहीं था। 76 वर्ष की आयु में मनुष्य को जो भी करना हो तुरंत कर लेना चाहिए। दो ही साधन थे, भूमि बेच देना और पांडुलिपि को संक्षिप्त करना। अस्तु मैंने कुछ राशि भूमि बेचकर जुटाई तथा कलम कुठार लेकर पांडुलिपि के बक्कल उतारते-उतारते उसे आधा, भीतरी, ‘टोर’ मात्र बना दिया। किसी चिपको वाले मित्र ने मुझे इस क्रूर कार्य से नहीं रोका।”
डॉ. शिवप्रसाद डबराल ने उत्तराखंड के सभी क्षेत्रों के इतिहास पर अन्वेषण किया और उसे लिपिबद्ध किया था। निरंतर अन्वेषण, लेखन, प्रकाशन कार्यों के लिए उन्हें बेहद कष्ट भी सहने पड़े थे। दुर्भाग्य का विषय है कि वर्तमान समय के सबसे बड़े अन्वेषक, लेखक, इतिहासकार को उत्तराखण्ड की संस्कृति, सभ्यता का इतिहास सहेज कर रखने के लिये न केवल अपनी प्रेस बल्कि अपनी जमीन तक बेचनी पड़ी थी। 24 नवम्बर सन 1999 को इस महान इतिहासकार और अन्वेषक का देहावसान हुआ था।
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