फारुख अब्दुल्ला के शासन के समय उनके जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट से संबंधों को फोटो सहित उजागर किया। वे कश्मीर और जम्मू के संघर्ष के जीते-जागते विश्वकोश थे। देश के प्रति उनके इस योगदान को देखते हुए ‘पाञ्चजन्य’ ने उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के करकमलों से नचिकेता सम्मान से सम्मानित करवाया था
भारतीय राष्ट्रीयता के अमर साधक पत्रकार गोपाल सच्चर 14 नवंबर को 97 वर्ष की आयु में दिवंगत हो गए। वे जम्मू-कश्मीर में भारतीयता की पराक्रमी आवाज थे। अब्दुल्लाशाही से जम्मू-कश्मीर को मुक्त करने वाले कलम के महान योद्धा थे। उन्होंने पंडित प्रेमनाथ डोगरा, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और अटल जी के कश्मीर प्रवास के समय निष्पक्ष पत्रकारिता का धर्म निभाया। फारुख अब्दुल्ला के शासन के समय उनके जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट से संबंधों को फोटो सहित उजागर किया। वे कश्मीर और जम्मू के संघर्ष के जीते-जागते विश्वकोश थे। देश के प्रति उनके इस योगदान को देखते हुए ‘पाञ्चजन्य’ ने उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के करकमलों से नचिकेता सम्मान से सम्मानित करवाया था।
‘पंजाब केसरी’ से उनका विशेष संबंध था। उन्होंने लाला जगत नारायण जी के आशीर्वाद से बहुत काम किया और जम्मू-कश्मीर के देशद्रोही तत्वों को निर्भीक रूप से बेनकाब किया। जब गोपाल जी पत्रकारिता में सक्रिय हुए तब देश के लिए लिखना खतरों से भरा हुआ था। उस समय राष्ट्रीय फलक पर लाला जगत नारायण, के. आर. मलकानी और रामनाथ गोयनका जैसे असमझौतावादी दिग्गज नक्षत्र चमक रहे थे। उन्होंने ‘पंजाब केसरी’, ‘आर्गनाइजर’, ‘पाञ्चजन्य,’ ‘यूएनआई’, ‘डेक्केन हेराल्ड’, ‘मदरलैंड’, ‘दिनमान’ जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों-पत्रिकाओं के लिए लिखना प्रारंभ किया। उनकी रपटों में कश्मीर में चल रहे देशद्रोही अलगाववादी तत्वों के मंसूबों, उनके साथ सत्ता पक्ष की साठगांठ, पाकिस्तान और अन्य विदेशी तत्वों से मिलने वाली सहायता, जेकेएलएफ जैसे संगठनों के साथ अब्दुल्लाओं के षड्यंत्र आदि का खुलासा होता था। उनकी रपटें सत्य घटनाओं, तथ्यों, सप्रमाण वृत्तांत के लिए जानी जाती थीं। इसलिए अब्दुलाशाही तिलमिला कर रह जाती थी, परन्तु उनकी एक भी रिपोर्ट का खंडन करना उनके लिए कभी संभव नहीं हुआ। इसीलिए लाला जगत नारायण जी ने उनको जम्मू पंजाब केसरी का प्रकाशक बनाया, जो बहुत बड़ा सम्मान था।
उनके पास उर्दू, अंग्रेजी, हिंदी के पुराने अखबारों का ट्रकों भरा दस्तावेजी संकलन था। 17 जुलाई, 1927 को जम्मू के पास एक गांव में जन्मे गोपाल सच्चर ने राष्ट्रीय पत्रकारिता का धर्म बखूबी निभाया और वे जम्मू-कश्मीर के एक सचल प्रेस संस्थान बन गए। उन्होंने शेख अब्दुल्ला के समय अपनी राष्ट्रभक्ति की कीमत जेल में रह कर चुकाई। उन्हें मार पड़ी। पुलिस की मार से उनकी एक अंगुली आजीवन मुड़ी रही। प्रजा परिषद् आंदोलन के समर्थन में लिखने के कारण उन्हें श्रीनगर की जेल में डाल दिया गया। न मुकदमा, न पेशी और उनकी बैरक के सामने बोर्ड पर लिखा होता था- दुश्मन एजेंट।
सच्चर एक साधारण परिवार में जन्मे थे। उनकी माताजी को आंखों से दिखता नहीं था, पर वे बहुत विचारवान और अनुभव समृद्ध थीं। उनकी माता जी ने उनकी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दिया, डोगरी सिखाई,पहाड़े और गिनती सिखाई। तब उनके मामा ने उन्हें टिकरी डोगरी पढ़ाई जो अब दुर्लभ हो गई है। उन्होंने जम्मू के पास मनावर (छम्ब सेक्टर) से मिडिल पास किया। उनके जन्म के बाद उनकी दादी एक पंडित के पास गर्इं और पूछा, मेरा पोता पटवारी बनेगा या नहीं? तब सामान्य घरों में पटवारी बनना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। पंडित ने कहा, ‘‘बहुत पढ़ा-लिखा बनेगा, पटवारी से बहुत ऊंची इज्जत होगी।’’ गोपाल जी हंस कर कहते थे, ‘‘मेरे घर में कागज नहीं थे, आज मैं इस उम्र में भी चारों तरफ कागजों से घिरा रहता हूं।’’
जम्मू से कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद गोपाल सच्चर लिखने लगे। प्रजा परिषद् आंदोलन में पंडित प्रेमनाथ डोगरा के सहयोगी बने, और उसी समय ‘स्वदेश’ नामक अखबार भी शुरू किया। वे अपने जीवन में पांच अखबारों के संपादक रहे और सभी का तेवर राष्ट्रवादी ही रहता था। पंडित प्रेमनाथ डोगरा के समर्थन के कारण पुलिस ने उनको कई बार यातनाएं भी दीं।
प्रजा परिषद के आंदोलन में
जब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार करके श्रीनगर लाया गया तो उस समय प्रजा परिषद् आंदोलन में भाग लेने के ‘जुर्म’ में गोपाल सच्चर भी श्रीनगर जेल में थे। वे बताते थे कि डॉ. मुखर्जी को निशातबाग में माली के झोंपड़े में रखा गया था। सरकार की बदनीयती पहले से ही साफ थी। झूठ कहा गया कि उन्हें बंगले में कैद रखा गया है। सरकार डॉ. मुखर्जी को जिन्दा नहीं देखना चाहती थी। उनको एक रहस्यपूर्ण ढंग से जबरदस्ती रावी पार रातोंरात श्रीनगर खुली जीप में लाया गया। अगर दिल्ली की नेहरू सरकार चाहती तो उन्हें जम्मू सीमा से ही वापस दिल्ली भेज सकती थी, लेकिन ऐसा न करके उनको सता कर श्रीनगर की ठंड में खुली जीप में भेजा गया।
बाद में उस माली के झोंपड़े को देखने बहुत से लोग आने लगे तो शेख अब्दुल्ला ने उस झोंपड़े को ही उठवा दिया। उस समय देश के लिए जम्मू के 16 लोगों ने अपनी जान दी थी। पाकिस्तानी मदद से फल-फूल रहे गिलानी और उनके आतंकवादी संगठनों-लश्कर, हिज्बुल मुजाहिदीन, जैश-ए-मोहम्मद आदि के कारनामों, उनके विरुद्ध भारतीय सेना की कार्रवाइयों की सचित्र खबरें भेजने वाले गोपाल सच्चर ने अकेले भारत मीडिया के डेस्क का जिम्मा उठाया और कश्मीर घाटी के पाकिस्तान-परस्त मीडिया को मुंह तोड़ जवाब दिया। गोपाल सच्चर ने जम्मू क्षेत्र में विख्यात दैनिक ‘पंजाब केसरी’ की स्थापना के लिए अपना नाम प्रकाशक और मुद्रक के रूप में दिया, क्योंकि तब स्थानीय नागरिको को ही यह अधिकार था। आज भी जम्मू पंजाब केसरी में उनका ही नाम प्रकाशक के रूप में जाता है। वे पंजाब केसरी के यशस्वी संपादक विजय चोपड़ा तथा अश्वनी चोपड़ा के बहुत प्रशंसक थे। सच्चर जी पत्रकारिता में 70 वर्ष सक्रिय रहे। उनकी आंखों ने जम्मू-कश्मीर का हर रंग देखा और उस पर लिखा।
आज जम्मू-कश्मीर में आए परिवर्तन के बारे में गोपाल जी कहते थे, ‘‘मोदी ने कश्मीर में वे परिवर्तन ला दिए हैं जो अब कश्मीर में आजादी जैसे नारों या जिहादी ख्वाबों की वापसी असंभव कर चुके हैं। अनुच्छेद 370 के अंत ने हड़तालों और पत्थरबाजों से घाटी को मुक्ति दिला दी है। पिछले तीस साल में पूरे 11 वर्ष का समय कश्मीर में हड़तालों और पत्थरबाजी में बीता। इसका मेरे पास पूरा आंकड़ा है। वह वक्त अब खत्म हो गया है। किसी ने ऐसा सपना भी नहीं देखा था।’’ हिंदुओं ने शेख अब्दुल्ला और उसके बाद आए मुख्यमंत्रियों के क्रूर राज में कितना दु:ख और कितनी अन्यायी नीतियों को सहा, इसका आज सामान्य भारतीय को कोई अंदाजा नहीं है। पचास के दशक में पहले मंत्रिमंडल (पहली वजारत) में छह हिंदू मंत्री थे, जिनमें डी. पी. धर भी एक थे। उस समय घाटी में कश्मीरी हिंदुओं की संख्या 15 प्रतिशत थी, लेकिन न तो उन हिंदू मंत्रियों को कुछ करने दिया गया और न ही हिंदुओं की जमीन और सम्मान की रक्षा की गई। आज उसी कश्मीर में, आजाद हिंदुस्थान में, कश्मीरी हिंदू आधा प्रतिशत भी नहीं रह गए हैं। मोदी ने अब कश्मीर में हिंदुओं के सुरक्षित और ससम्मान लौटने का मार्ग खोला है। गोपाल सच्चर बताते थे कि 1997 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने संपत्ति बेचने और खरीदने पर रोक लगाने के लिए एक कानून पारित किया था। इसके बावजूद कश्मीरी पंडितों की सम्पत्तियां बेचने और खरीदने की लगभग 15,000 घटनाएं हो गई हैं, यह कैसे हुई?
वे यह भी कहते थे कि स्वतंत्र भारत में, संविधान और तिरंगे के प्रति निष्ठा दिखाने वाले हिंदुओं को अपने ही देश में किस प्रकार बेइज्जत होना पड़ा, इसकी कोई सीमा नहीं है। और उस पर इस्लामी राज के हिसाब से शासन चलने वाले मुस्लिमों ने इस बारे में कभी दु:ख, क्षोभ अथवा खेद प्रकट नहीं किया। सेकुलर हिंदू प्रेस भी उन्हीं के साथ उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाता रहा। एक आदमी था जिसने जम्मू में 8 अगस्त, 1952 की सभा में साफ-साफ कहा था और उनके ये शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं, ‘‘या तो विधान दूंगा या प्राण दूंगा।’’ वे थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी। उन्होंने अपने शब्द रखे, प्राण दे दिए लेकिन विधान देकर गए। उनके कारण कश्मीर में सब परिवर्तन हुए हैं। मोदी कश्मीर में जो परिवर्तन लाए हैं, वे श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सपनों को ही पूरा करने वाले हैं।
पाञ्चजन्य परिवार की ओर स्व. गोपाल सच्चर को भावभीनी श्रद्धांजलि।
(लेखक राज्यसभा के सदस्य रहे हैं)
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