जिस दौर में आवागमन और संचार के साधन सीमित थे, उन दिनों दुनिया का मानचित्र कैसे बना होगा, यह सोच कर ही आश्चर्य होता है। 19 शताब्दी में विभिन्न देशों के सर्वेक्षण विभागों ने लगभग पूरी दुनिया का नक्शा बना लिया था, लेकिन वर्ष 1870 तक तिब्बत का नक्शा नहीं बना था। एक खाली स्थान तिब्बत दिखाने के लिये छोड़ दिया गया था। लगभग उसी समय उत्तराखण्ड के कुछ भारतीयों ने कदमों से नाप कर तिब्बत का सटीक नक्शा तैयार किया, उन में प्रमुख थे पण्डित नैन सिंह रावत।
नैन सिंह रावत ने 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों के लिये हिमालय के क्षेत्रों की खोजबीन की थी। नैनसिंह कुमायूँ घाटी के रहने वाले थे, उन्होंने ही नेपाल से होते हुए तिब्बत तक के व्यापारिक मार्ग का मानचित्रण किया था। नैनसिंह रावत ने ही सबसे पहले ल्हासा की स्थिति तथा ऊंचाई ज्ञात की और तिब्बत से बहने वाली मुख्य नदी त्सांगपो के बहुत बड़े भाग का मानचित्रण भी किया था।
नैन सिंह रावत का जन्म पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में 21 अक्टूबर 1830 को हुआ था। उनके पिता अमर सिंह को लोग लाटा बुढा के नाम से जानते थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जल्द ही पिता के साथ भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गए। इससे उन्हें अपने पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने और उन्हें समझने का मौका मिला। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी जिससे आगे उन्हें काफी मदद मिली। हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। नैन सिंह ने दो सालों तक देहरादून में सर्वे का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। उनका चेहरा भी तिब्बतवासियों जैसा ही था, इस कारण तत्कालीन भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने तिब्बत का नक्शा बनाने का काम नैनसिंह को ही सौंपा। काम बड़ा कठिन था, क्योंकि पैदल चल कर ही तिब्बत को नापना था। साथ–साथ पकड़े जाने का भी डर था। नैन सिंह ने बौद्ध भिक्षुओं जैसा चोगा पहना, एक हाथ में पूजा का चक्र और दूसरे हाथ में माला ली और निकल पड़े, लेकिन उनकी माला में 108 की जगह 100 ही मनिये थे, नैन सिंह ने हिसाब लगाया था कि उनके दो हजार कदम चलने पर एक मील की दूरी तय हो जाती है। इसलिए सौ कदम चलने पर वे माला का एक मनिया आगे बढ़ा देते थे। इस प्रकार पूरी माला में वे दस हजार कदम आगे बढ़ जाते थे, इसका अर्थ हुआ कि एक माला में वे पांच मील की दूरी तय करते थे।
12 अक्टूबर सन 1866 को नैन सिंह काठमाण्डू से निकले, सर्वेक्षण के लिये बहुत जरूरी उपकरण उन्होंने अपने चोगे में छिपा लिये और पूजा चक्र में कागज, कलम और दवात छिपा ली। काठमाण्डू से वे ल्हासा होते हुए बारह सौ मील पैदल चल कर मानसरोवर तक गये और वापस उसी रास्ते लौटे। पूरी यात्रा में प्रत्येक कदम समान अन्तर से रखना, सौ कदम पर एक मनिया आगे बढाना, एक माला होने के बाद जमीन पर मील का निशान लगाना, यही क्रम पूरी यात्रा का रहा। इस यात्रा में उन्हें छः महीने लगे, इस अवधि में उन्होंने तिब्बत के दक्षिणी भाग का विस्तृत मानचित्र तैयार कर लिया। उनके आंकड़े इतने सटीक थे, कि सर्वेक्षण विभाग ने उन्हें “पण्डित’ की उपाधि प्रदान की। नैन सिंह ने तिब्बत की दूसरी यात्रा सन 1869 तथा तीसरी सन 1874 में की। इन दोनों यात्राओं में उन्होंने तिब्बत के अत्यंत दुर्गम उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र को छाना। लगभग अस्सी स्थानों की समुद्र तल से ऊंचाई पण्डित जी ने मापी।
इसी के साथ उन्होंने गणना की कि ल्हासा 90 डिग्री, 59 मिनिट तथा 30 सेकण्ड के देशांतर पर स्थित है, जो बिल्कुल सटीक सिद्ध हुई। उनके पास एक थर्मामीटर भी था और पानी के उबलने के तापमान से वे किसी स्थान की समुद्रतल से ऊंचाई का हिसाब लगाते थे। थर्मामीटर के अतिरिक्त उनके पास देशांतर के हिसाब के लिये छोटा सैक्सटैंट और दिशा ज्ञान के लिये छोटा दिशासूचक यंत्र ही थे। केवल इन्हीं उपकरणों की मदद से उन्होंने महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त कीं। सन 1865 से सन 1885 के बीच पं. किशन सिंह, पं. मनी सिंह, कल्याण सिंह, हरी राम, पं. किन्थुप, उग्येन ज्ञात्सो सहित कई सर्वेक्षकों ने तिब्बत, अफगानिस्तान तथा मंगोलिया तक की यात्राएं कीं। सभी का तरीका वही था जो नैन सिंह ने अपनाया था यानी कदमों के हिसाब से दूरी नापना और छोटे उपकरणों की सहायता से अन्य गणनाएं करना। इन सब के आंकड़ों के आधार पर पहली बार दुर्गम तथा रहस्यमय क्षेत्र तिब्बत का नक्शा तैयार किया गया था।
आज भी तिब्बत का वही मानचित्र प्रचलन में है। इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी। उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में बिताया। सन 1873 से 1875 के बीच नैन सिंह ने कश्मीर में लेह से ल्हासा की यात्रा की। पिछली बार वो सांगपो नदी के किनारे गये थे, इसलिए इस बार उन्होंने उत्तर का रास्ता चुना, अंतिम अभियान का नैन सिंह की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा। अब तक उन्होंने कुल सौलह हजार मील की कठिन यात्रा की थी और अपने यात्रा क्षेत्र का नक्शा बनाया था। उनकी आंखें बहुत कमजोर हो गयीं। उसके बाद भी वो कई सालों तक अन्य लोगों को सर्वे और जासूसी की कला सिखाता रहा। नैन सिंह के काम की ख्याति अब दूर-दूर तक फैल चुकी थी। उन्होंने ग्रेट हिमालय से परे कम जानकारी वाले प्रदेशों मध्य एशिया और तिब्बत की जानकारी दुनिया के सामने रखी थी। इन क्षेत्रों के भूगोल के बारे में उनकी एकत्र वैज्ञानिक जानकारी मध्य एशिया के मानचित्रण में एक प्रमुख सहायक साबित हुई।
सिंधु, सतलुज और सांगपो नदी के उद्गम स्थल और तिब्बत में उसकी स्थिति के बारे में विश्व को उन्होंने ही अवगत कराया था। उन्होंने ही पहली बार यह पता किया कि चीन की सांगपो नदी और भारत में बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी वास्तव में एक ही नदी हैं। सन 1876 में नैनसिंह की उपलब्धियों के बारे में ज्योग्राफिकल मैगजीन में एक लेख लिखा गया, सेवानिवृत्ति के बाद भारत की ब्रिटिश सरकार ने नैन सिंह को एक गांव और एक हजार रुपए का इनाम दिया। सन 1868 में रॉयल ज्योग्राफिक सोसायटी ने नैन सिंह को एक सोने की घडी़ पुरस्कार में दी। सन 1877 में इसी संस्था ने नैन सिंह को विक्टोरिया पेट्रन्स मैडल से भी सम्मानित किया। मेडल से सम्मानित करते हुए कर्नल यूल के द्वारा कहे गये ये शब्द नैन सिंह की सम्पूर्ण संघर्ष गाथा बता देती है – “यह वो इंसान है जिसने एशिया के बारे में हमारे ज्ञान को बेहद समृद्ध किया, उस समय कोई अन्य व्यक्ति यह काम नहीं कर सकता था।”
पैरिस स्थित सोसायटी ऑफ ज्योग्रफर्स ने भी नैन सिंह को एक घडी़ भेंट की थी। उनकी यात्राओं पर कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनमें डेरेक वालेर की द पंडित्य तथा शेखर पाठक और उमा भट्ट की एशिया की पीठ पर महत्वपूर्ण है। 27 जून सन 2004 को भारत सरकार ने नैन सिंह रावत के ग्रेट ट्रिगनोमैट्रिकल सर्वे में अहम भूमिका के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। लम्बी और दुष्कर यात्राओं के कारण नैन सिंह बीमार रहने लगे थे। सन 1895 में 65 वर्ष की आयु में जब वे तराई क्षेत्र में सरकार द्वारा दी गई जागीर की देखरेख के लिए गये थे, इन महान अन्वेषक दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।
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