दीपावली का पर्व भारत ही नहीं, दुनियाभर में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। विशेष कर इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश में तो यह पर्व 2,000 वर्ष पूर्व से मनाया जा रहा है। धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त भारत आने वाले विदेशी यात्रियों के यात्रा वृत्तांतों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है
अनगिनत पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों की उल्लासमय स्मृतियों से जुड़ा दीपावली का पांच दिवसीय प्रकाश पर्व मानव सभ्यता का प्राचीनतम पर्व है। पुराणों और अन्य धर्मशास्त्रों में वर्णित दीपावली के अनेक विविध प्रसंगों के साथ प्राचीन काल से भारत आ रहे विदेशी यात्रियों ने भी इसका उल्लेख हर्ष-निमग्न समाज के एक जीवन्त राष्ट्रीय पर्व के रूप में किया है। सिंधु घाटी सभ्यता (जो अब 8000 वर्ष प्राचीन सिद्ध हो रही है) के पुरावशेषों में प्राप्त पक्की मिट्टी के दीपों सहित, दीप शृंखला युक्त मातृ देवी की प्रतिमा और घरों के बाहर दीप आलिन्द उस काल में भी दीपों के किसी पर्व का अस्तित्व सिद्ध करते हैं।
त्रेतायुग में 14 वर्ष के वनवास के बाद भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने पर उल्लासपूर्वक दीपों के इस पर्व को मनाए जाने के प्रसंग के अतिरिक्त इस पर्व से अनेक विविध पौराणिक प्रसंग जुड़े हैं। पुराणों में वर्णित पृथ्वी के प्रथम सम्राट महाराज पृथु द्वारा भूमि को उपजाऊ बना, बीज उन्नयन के साथ कृषि कर्म के विकास के आख्यान, दीपावली पर माता लक्ष्मी के प्राकट्य और महालय के बाद पितरों के पथ को आलोकित करने जैसे अनगिनत प्रसंग समय-समय पर इस पर्व से जुड़ते चले गए।
सदियों पुरानी परंपरा
संपूर्ण वृहत्तर भारत में इंडोनेशिया से अफगानिस्तान तक दीपावली मनाने के अति प्राचीन विवरण मिलते हैं। सुदूर पूर्व में इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश में इसे कई नामों से मनाने के विवरण मिलते हैं। 7वीं सदी में राजा हर्षवर्द्धन रचित संस्कृत नाटक ‘नागानन्द’ में इसका विवरण कई दिन चलने वाले उत्सव ‘दीप प्रतिपदुत्सव’ के रूप में मिलता है। कश्मीर के इतिहास पर ईसा पूर्व रचित नीलमत पुराण में ‘कार्तिक अमायां दीपमाला वर्णनम्’ पर एक विस्तृत अध्याय है। तीसरी सदी में वात्स्यायन ने यक्षरात्रि नाम से इसका वर्णन करते हुए इसे ‘महा महिमान्य उत्सव’ लिखा है।
चौथी सदी के महाराज दशरथ की माता इन्दुमती पर केंद्रित इंडोनेशियाई संस्कृत नाटक ‘सुमन सान्तक’, जिसका वहां मंचन भी होता रहा है, में महाराज दिलीप से पांच पीढ़ियों यथा रघु, अज, दशरथ और राम के प्रसंगों के साथ राम के अयोध्या लौटने पर दीप प्रज्ज्वलन के इस उत्सव का वर्णन भी मिलता है। भारत में दशरथ की माता, पिता व दादा का कदाचित ही प्रसंग आता है। 10वीं सदी में सोमदेव सूर्य ने अपने संस्कृत ग्रंथ ‘यशस्तिलक-चम्पू’ में इस पर्व पर लोगों द्वारा मकानों की सफाई, विविध मनोरंजक क्रीड़ाओं और जलते दीपों से वृक्षादि बना कर उससे भवनों को सजाने का वर्णन किया है।
इसी तरह, 11वीं सदी में भारत आने वाले मुसलमान पर्यटक अल बरूनी ने लिखा है, ‘‘हिंदुस्थान के घर-घर में इस दिन विष्णुपत्नी लक्ष्मी का पूजन किया जाता है। लोग सुंदर परिधान पहनकर एक-दूसरे से मिलते और पान-सुपारी भेंट करते हैं, देव दर्शनों के लिए मंदिरों में खूब दान देते हैं और रात में चिरागों की रोशनी करते हैं।’’ 15वीं शती में इटली के पर्यटक निकोलाई कांटी ने भी दीपावली की रात को भारत में सर्वत्र मंदिरों और भवनों की छतों पर दीपमाला के प्रकाश का वर्णन किया है। उस काल में नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश, पाकिस्तान व अफगानिस्तान भारत में ही थे।
पंच दिवसीय उत्सव
दीपावली पांच दिन तक पांच पर्वों के रूप में मनाई जाती है। ये पांच पर्व निम्न हैं-
धन्वन्तरी त्रयोदशी: कार्तिक कृष्ण तेरस तिथि को समुद्र मंथन से आयुर्वेद के प्रतिपादक धन्वन्तरि का प्राकट्य हुआ था। धन्वन्तरि त्रयोदशी के दिन आरोग्य के देवता धन्वन्तरि की पूजा की जाती है। इसके अतिरिक्त यम अर्थात् अकाल मृत्य से रक्षार्थ और धन प्रदाता कुबेर एवं महालक्ष्मी की प्रसन्नता हेतु भी दीपदान किया जाता है। यम के लिए किया दीपदान अकाल मृत्यु से बचाता है। धन्वन्तरि पूजा असाध्य रोगों व अकाल मृत्यु से बचाती है। कुबेर, विष्णु व लक्ष्मी पूजा उनके लिए दीपदान धन, सम्पदा में वृद्धि का कारक है।
रूप चतुर्दशी या नरक चतुर्दशी: कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध कर 16,000 राजकन्याओं को मुक्ति दिलाई थी। पुराणों के अनुसार, इस दिन सूर्योदय तक तेल में लक्ष्मी एवं सामान्य जल में गंगा का भी निवास होता है। इसलिए सूर्योदय के पूर्व शरीर पर तेल का अभ्यंग या मालिश एवं सूर्योदय से पहले ही जल से स्नान करने से आयु आरोग्य, रूप, बल, यश, धन व श्रीवृद्धि प्राप्त होती है। साथ ही, गंगा स्नान का पुण्य भी प्राप्त होता है।
सूर्योदय के पूर्व स्नान नहीं कर सके तो उसके बाद भी यथाशीघ्र स्नान का विधान है। मृत्यु के देवता यम की प्रसन्नता से नरक के भय से बचने के लिए भी इस दिवस के कई कृत्य हैं। इसमें तिल युक्त जल से यम के सात नाम लेकर तर्पण किया जाता है और यम के लिए दीपदान कर मंदिरों, राजपथों, कूपों व अन्य उद्यानों सार्वजनिक स्थानीय में भी दीपदान करना चाहिए। तिथि तत्व (पृ. 124) एवं कृत्य तत्व (पृ. 450-51) के अनुसार, चौदह प्रकार के शाक-पातों का सेवन करना चाहिए। यह दिन मास शिवरात्रि का भी है। इसलिए इस दिन रात्रि के शिव महापूजा भी की जाती है।
दीपावली: मुख्य पर्व कार्तिक अमावस्या के दिन कुल देवता और पितरों के तर्पण व पूजन सहित लक्ष्मी, कुबेर सहित गणपति, नव ग्रह, षोडष मातृकाओं का पूजन, परिजनों, परिवार के वृद्धजनों व अपने से बड़े परिजनों का सम्मान कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने की परंपरा रही है। मित्रों, परिजनों व आत्मीयजनों के साथ व परस्पर एक-दूसरे को बधाई-सम्मान व सामूहिक मिष्ठान सेवन भी इस पर्व के प्रमुख व्यवहार हैं। वैश्यों व व्यापारियों द्वारा बही-खातों की पूजा कर पुराने खाते बंद कर नए खाते खोले जाते हैं।
अमावस्या के कृत्यों में ब्रह्म मुहुर्त में जागरण, अभ्यंग स्नान (तेल से अभ्यंग व जल से सूर्योदय से पहले स्नान) देव, पितरों की पूजा, दही-दूध-घृत से पार्वण श्राद्ध, भांति-भांति के व्यंजन का परिजनों के साथ सेवन, नवीन वस्त्र धारण, विजय के लिए नीराजन (दीपक को घुमाना और अपने गृह में मंदिरों में, सार्वजनिक स्थानों, वीथियों व चौराहों पर दीपदान भी किया जाता है।
वर्ष क्रिया कौमुदी व धर्म सिंधु आदि ग्रंथों के अनुसार, आश्विन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी और अमावस्या की संध्याओं को लोगों को मशाल लेकर अपने पितरों को दिखा इस मंत्र का पाठ करना चाहिए – ‘‘मेरे कुटुम्ब के वे पितर जिनका दाह-संस्कार हो चुका है, जिनका दाह संस्कार नहीं है और जिनका दाह संस्कार केवल प्रज्ज्वलित अग्नि से (बिना धार्मिक कृत्य के) हुआ है, परम गति को प्राप्त हों। ऐसे पितर लोग जो यमलोक से यहां महालया श्राद्ध पर आए हैं उन्हें इस प्रकाश से मार्गदर्शन प्राप्त हो और वे अपने लोकों को पहुंच जाएं।’’ आज भी पितरों के श्राद्ध व तर्पण का चलन है। इस दिन पितरों की दी जल की अंजली से उन्हें अनंत तृप्ति प्राप्त होती है और उनका अमोघ आशीर्वाद प्राप्त होता है।
गोवर्द्धन पूजा व बलि प्रतिपदा: दीपावली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्द्धन पूजा, प्रारंभ कर इंद्र के गर्व का हरण किया था। यह दिन गो व गोवत्स क्रीड़ा अर्थात् बछड़ों एवं बैलों के पूजन का भी दिन है। श्रीकृष्ण ने इस दिन गिरिराज पर्वत को अपनी छोटी अंगुली पर उठा कर इंद्र के कोप से ब्रजवासियों की रक्षा थी। अन्नकूट उत्सव में 56 व्यंजन व 33 प्रकार के शाक-पात से देवारा धनपूर्वक बस्ती व ग्राम के सभी लोगों के समरसतापूर्वक ऊंच-नीच के भाव से दूर प्रसाद रूप में सामूहिक भोजन की भी परंपरा रही है। इस दिन गोवंश के गोबर से गोवर्द्धन पर्वत बना कर उसकी भी पूजा की जाती है।
स्वाति नक्षत्र से संयुक्त यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन भी अभ्यंग स्नान (तेल-स्नान) व बलि पूजन प्रमुख कृत्य है। भविष्योत्तर पुराण (140-47-73) के अनुसार रात्रि में पांच प्रकार के रंगीन चूर्णों से भूमि पर एक वृत्त पर दो हाथों वाले बलि की आकृति और उसके पास विध्यावलि (बलि की पत्नी) और चारों ओर से कूष्माण्ड, बाण, मुर आदि असुर घेरे हुए हों। मूर्ति या आकृति पर कुकुट एवं कणार्भूषण हों। चन्दन, धूप, नैवेद्य दे भोजन देना चाहिए और यह मंत्र कहना चाहिए, ‘‘बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचन सुत प्रभो। भविष्येन्द्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्मताम्। अर्थात् विरोचन के पुत्र राजा बलि, तुम्हें प्रणाम। देवों के शत्रु एवं भविष्य के इंद्र यह पूजा लो।’’ इसके उपरांत उसे क्षत्रियों की गाथाओं पर आधारित नृत्यों, गीतों से प्रसन्न करते हुए कहते हैं, शत्रु एवं भविष्य के इंद्र, यह पूजा लो। इस अवसर पर दान अक्षय होता है और विष्णु को प्रसन्न करता है। कृत्यतत्त्व (पृ.453) के अनुसार बलि को तीन पुष्पांजलियां दी जानी चाहिए। स्नान एवं दान सौ गुना फल देते हैं।
भाई दूज: कार्तिक शुक्ल द्वितीया को भ्रातृ द्वितीया, भाई दूज या यम द्वितीया के दिन भविष्य पुराण (14118-73) भविष्योत्तर पुराण व पद्म पुराण के अनुसार यमुना ने अपने भाई यम को घर पर भोजन कराया था। इस दिन अपने घर में मध्याह्न का भोजन न करके अपनी बहन के घर में खाना चाहिए और बहनों को आदरपूर्वक स्वर्णाभूषण, वस्त्र के उपहार देने चाहिए। यदि बहन न हो तो अपने चाचा या मौसी की पुत्री या मित्र की बहन को बहन मानकर ऐसा करना चाहिए। (हेमाद्रि व्रत, भाग 1, पृ. 374, कार्य विवेक, पृ. 405, कृत्य रत्नाकर, पृ. 413, व. क्रिया कौमुदी पृ. 476-489, तिथि तत्व पृ 29, कृत्यतत्त्व, पृ. 453)। पद्मपुराण के अनुसार जो व्यक्ति अपनी विवाहिता बहनों को वस्त्रों एवं आभूषणों से सम्मानित करता है, वह वर्ष भर किसी झगड़े में नहीं पड़ता और उसे शत्रुओं का भय नहीं रहता है।
पौराणिक प्रसंगों में विविधता
रामायण, महाभारत, स्कन्द पुराण, पद्मपुराण, भविष्य पुराण व भविष्योत्तर पुराण आदि लगभग सभी पुराणों और धर्म सिंधु, निर्णय सिंधु, वर्ष क्रिया कौमुदी, तिथि तत्व एवं कृत्य तत्व जैसे अनेक धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में कई हजार पृष्ठों की विविधतापूर्ण सामग्री दीपावली के महत्व, इतिहास व पूजा विधानों पर संकलित है। राज मार्तंड व कालविवेक में इसका सुखरात्रि के नाम से, व्रत प्रकाश व हेमाद्रि व्रतभाग में सुख सुप्तिका, काल तत्व विवेचन में यक्ष रात्रि जैसे नामोल्लेख के साथ दीपावली पर प्रचुर विवेचन मिलता है। विश्व में मनाए जाने वाले किसी भी पर्व पर इतना प्राचीन, विविधतापूर्ण और विशाल वांग्मय अर्थात सहित्य सर्वथा अकल्पनीय है।
भगवान श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर दीपों के आलोक का यह पर्व जन-जन के मानस पर अंकित है। उसके पूर्वकाल में वर्षक्रिया कौमुदी एवं धर्म सिंधु आदि प्राचीन शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध पक्ष में कुल देवता व पितरों की महालय के उपरांत विदाई के लिए मशाल दीपों के प्रज्ज्वलनपूर्वक विदा करने की परंपरा भी रही है। दीपावली के दिन पितरों का स्मरण व उन्हें जलांजली अर्पण की परंपरा आज भी है। पौराणिक विवरणों के अनुसार समुद्र मंथन से आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरि और महालक्ष्मी के प्राकट्य के पर्व के रूप में भी इसे मनाते रहे हैं। सर्वाधिक प्राचीन प्रसंग सृष्टि के आदि में प्रथम सम्राट महाराज पृथु द्वारा बंजर भूमि को उपजाऊ बना विविध बीजों के प्रसंस्करणपूर्वक कृषि कर्म का सूत्रपात करने के पर्व के रूप में ही मनाए जाने का रहा है। इस पर्व के अवसर पर परिवारों में उत्साह सौहार्द व उल्लास के साथ गणेश जी, भगवान धन्वतरि, श्रीराम, श्रीकृष्ण, कुबेर, विष्णु, लक्ष्मी की पूजा की परंपरा के साथ ही बंगाल में काली पूजा के अत्यंत विस्तृत विधान व इतिवृत्त मिलते हैं।
विभिन्न मत-पंथों में दीपावली
जैन मतावलंबियों के अनुसार, 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को भी केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसी दिन अमृतसर में 1577 में सिखों के स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास भी हुआ था। 1619 में दीपावली के दिन छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह साहब को भी जेल से रिहा किया गया था। पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण, दोनों दीपावली के दिन ही हुए और आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने भी दीपावली के दिन ही अजमेर के निकट अवसान लिया था। बौद्धमत में भी दीपोत्सव की परंपरा का साहित्य उपलब्ध है। तीसरी सदी के दीपवंस नामक ग्रंथ में दीपों के उत्सव के दो प्रसंग मिलते हैं। प्रथम प्रसंग जब अशोक बौद्ध मत में दीक्षित होते हैं, तब नगरवासी अपने घरों से दीपक लेकर निकलते हैं। इसकी तिथि का संदर्भ नहीं मिलता है।
दिवा दीपं जलमानं अभिहरन्तु महाजना।
यावता मया आणत्ता तायता अभिहरन्तु ते।। -षष्ठं परिच्छेद, 73
दीपवंस में दीपोत्सव का दूसरा प्रकरण है, जब महाबली राजा तिष्य गज पर बैठकर सम्राट अशोक से भेंट करने आते हैं, तब नगरवासी स्तूपों का पूजन तथा उन्हें दीपों से सुसज्जित करते हैं।
चातुमांस कोमुदियं दिवसं पुण्णरत्तिया।
आगतो च महावीरो.. गजकुम्भे पतिट्ठितो।। -15वां परिच्छेद, 19
पच्चेकपूजं चाकंसु खत्तिया थूपमुत्तमं।
वररतन सझ्छत्रं धातुदीपं वरुत्तमं।। -15वां परिच्छेद, 25
वहां यह भी वर्णन है कि तब वहां उपस्थित क्षत्रियों ने उस उत्तम स्तूप की पृथक-पृथक पूजा की और उसे विविध रत्नों व धातुओं से बने दीपों से सजाया। इस प्रकार तब सनातन वैदिक व बौद्ध मतों में भी एकता थी।
संसार के अन्य भागों में दीपोत्सव
प्रवासी भारतीयों द्वारा दुनियाभर में यह पर्व मनाया जाता है। नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, मॉरीशस व फिजी में तो यह प्राचीन पारंपरिक उत्सव रहा है। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, केन्या, तंजानिया, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो, नीदरलैंड, कनाडा, ब्रिटेन, संयुक्त अरब अमीरात और संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय संस्कृति की समझ और भारतीय मूल के लोगों के वैश्विक प्रवास के कारण दीपावली मनाने वाले लोगों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। अब यह सामान्य स्थानीय संस्कृति का हिस्सा भी बनता जा रहा है। मलेशिया, सिंगापुर आदि कई देशों में दीपावली का अवकाश भी होता है।
इंडोनेशिया में तो यह 2,000 वर्ष पूर्व से मनाया जा रहा है, जहां बाली, सुमात्रा और सुलावेसी, पश्चिमी पापुआ में यह प्रमुख पर्व है। वहां दीपावली के लिए अनुष्ठान 30 दिन पहले शुरू हो जाते हैं। लोग 30 दिन तक व्रत रखते हैं। 30 दिन का यह व्रत आत्मशुद्धि और दीपावली से नई शुरुआत करने के लिए किया जाता है। भारत की ही तरह इंडोनेशिया में 30 दिन में लोग घर की सफाई, सजावट, रंग-रोगन करते हैं और दीये भी जलाते हैं। दीपावली की सुबह स्नान करके सपरिवार मंदिर जाते हैं। रात्रि में पूजन के बाद माता-पिता और बुजुर्गों के पैर छूते हैं। आतिशबाजी भी की जाती है। बहुसंख्य मुस्लिम भी अपने हिंदू पूर्वजों के इस पर्व को मनाते रहे हैं। अब तब्लीगी जमात के दबाव में इस परंपरा को बहुत ही कम लोग निभा पाते हैं।
इंडोनेशिया, कंबोडिया आदि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में ईसा पूर्व काल से यह अधर्म पर धर्म की जीत के पर्व के रूप में मनाया जाता है। हिंदू मूल के इंडोनेशिया का15वीं सदी से कन्वर्जन हुआ है। यहां कुछ क्षेत्रों में स्थानीय भाषा में इस पर्व को ‘गलुंगन’ कहा जाता है। हिंदुओं के सांस्कृतिक केंद्र जावा के योगाकार्ता शहर में प्रम्बनन अर्थात परब्रम्हन मंदिर है, जिसे संजय वंश के शासक रकाई पिकातन ने 850 ई. में बनवाया था। यह मंदिर यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में है। मंदिर में ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्थापित हैं। इसी मंदिर का प्राचीन एंफीथियेटर रामायण मंचन के लिए प्रसिद्ध है। यहां के रामायण के मंचन में बड़ी संख्या में मुस्लिम भी सम्मिलित होते हैं। यह विश्व का सबसे लंबे समय से चलने वाला स्टेज शो भी माना जाता है। मुस्लिम समुदाय का मानना है कि ‘हम लोग सिर्फ मुस्लिम नहीं, जवानीज (जावा संस्कृति के वाहक) भी हैं और हम हिंदू-बौद्ध कहानियां सुनकर बड़े हुए हैं।’
दीपावली के करणीय अनुष्ठानों व कृत्यों की शास्त्रोक्त सूची बहुत वृहद् है। वैदिक विधानों में भी अश्वयुजौ एवं आग्रयण या नवशस्येष्ठी जैसे बड़े-बड़े अनुष्ठान किए जाते रहे हैं। पुराणों में आए मां दुर्गा द्वारा काली का रूप धरने व महाकाल का उनके क्रोध शमन हेतु प्रकट होने के प्रसंग बंगाल में दीपावली, काली पूजा का पर्व मनाया जाता है। शरद ऋतु में अन्न अन्य कृषि पदार्थ, वर्ष भर की वस्त्र की आवश्यकता हेतु कपास आदि अनेक फसलों से राज्य व प्रजा के भंडार भर जाते हैं। इस उल्लास में राजा व प्रजा के बीच प्रीति वृद्धि के लिए मार्गपाली बंधन व रस्साकशी जैसे अनेक मनोरंजक खेल भी होते रहे हैं। आदित्य पुराण, निर्णय सिंधु व्रतराज (पृष्ठ 70) आदि में सार्वजनिक स्थल पर समसंख्यक राजकुल के युवाओं एवं प्रजा के सर्वजातीय युवाओं के बीच सार्वजनिक स्थल पर बलि प्रतिपदा के दिन रस्साकशी भी की जाती रही है। उसमें प्रजाजन की जीत को राज्य की सर्वदूर विजय का सूचक कहा गया है। इस प्रकार दीपावली का पर्व राजा और प्रजा के मध्य समरसता का पर्व भी रहा है। दीपावली के पर्व का वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्व है। वर्षा में उत्पन्न रोगाणुओं व कीट-पतंगों का घरों की साफ-सफाई, रंगाई-पुताई व दीपों के आलोक से विलोपन हो जाता है।
(लेखक उदयपुर में पैसिफिक विश्वविद्यालय समूह के अध्यक्ष-आयोजना व नियंत्रण हैं)
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