भारत और अमेरिका के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक के लिए अमेरिकी उप विदेश सचिव डोनाल्ड लू और उप रक्षा सचिव एली रैटनर भारत के दौरे पर थे। हालांकि भा, रत ने इस निर्णय पर कोई जन- सूचना नहीं जारी की, लेकिन उसने ‘गंभीर विरोध’ जताया और अतिथियों और अमेरिकी राजदूत को यह स्पष्ट कर दिया गया कि भारत इससे ‘निराश’ है।
पिछला एक महीना भारत के लिए कूटनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रहा। तीन ऐसी घटनाएं हुईं जिन्होंने दिखा दिया कि भारत की विदेश नीति कितनी स्पष्ट, कितनी गतिशील और कितनी सुविचारित है।
संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को 45 करोड़ डॉलर के एफ-16 युद्धक विमान के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दिए जाने का भारत ने आशानुरूप पुरजोर विरोध किया। हैरत की बात तो यह है कि अमेरिकी फॉरेन डिफेन्स सिक्योरिटी कोआपरेशन एजेंसी (एफडीएससीऐ), जो विदेशों को अमेरिकी हथियार बेचने के लिए अधिकृत है, द्वारा इसकी घोषणा तब की गई, जब 10 सितम्बर को भारत और अमेरिका के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक के लिए अमेरिकी उप विदेश सचिव डोनाल्ड लू और उप रक्षा सचिव एली रैटनर भारत के दौरे पर थे। हालांकि भारत ने इस निर्णय पर कोई जन- सूचना नहीं जारी की, लेकिन उसने ‘गंभीर विरोध’ जताया और अतिथियों और अमेरिकी राजदूत को यह स्पष्ट कर दिया गया कि भारत इससे ‘निराश’ है।
अमेरिका को आईना
अमेरिका में एक बैठक को सम्बोधित करते हुए विदेश मंत्री जयशंकर ने अमेरिका के इस तर्क को मानने से इनकार कर दिया कि कल-पुर्जों की यह बिक्री एक पुराने समझौते का हिस्सा है और स्पष्ट प्रतिक्रिया दी- ‘आप यह कह कर किसे बेवकूफ बना रहे हैं?’ जयशंकर ने अपने अमेरिकी समकक्ष के साथ बैठक में भी भारत के एतराज को रेखांकित किया।
यह विरोध सही भी है क्योंकि पाकिस्तान ने अभी तक किसी आतंकवादी संगठन के खिलाफ एफ-16 का उपयोग नहीं किया है, न ही इसकी कोई सम्भावना है। चूंकि पाकिस्तान के सम्बन्ध दक्षिण एशिया में भारत के अतिरिक्त किसी भी अन्य देश से बुरे नहीं हैं (भारत विरोध जाहिर तौर पर पाक विदेश नीति का एकमात्र उद्देश्य रहा है), इसलिए इन हथियारों का उपयोग भारत के विरुद्ध होने की ही आशंका है। अमेरिका का यह कदम एकांगी और दोनों देशों के बीच हथियारों की दौड़ को बढ़ाने वाला सिद्ध होगा।
यह पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर अमेरिका से सहायता लेकर उसे बेवकूफ बना रहा है। इस मदद के पीछे अभी कुछ ही दिनों पहले हुई पाक सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा की अमेरिका यात्रा भी है। इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि अपने ऊपर लटक रही एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट की तलवार को हटाने के लिए पाकिस्तान यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि ‘वह आतंकवाद को मिटाने के लिए उत्सुक ही नहीं वरन् बहुत प्रतिबद्ध भी है’ और इसी के नाम पर वह उसी अमेरिका से फिर से सहायता लेने के प्रयास में है जिसके पाले से वह आतंकवाद को पोषित करने के कारण अलग कर दिया गया था। अपनी इस छद्म प्रतिबद्धता का प्रदर्शन कर पाकिस्तान दुनिया के आर्थिक संगठनों, बैंकों आदि से कर्ज लेने के लिए भी अमेरिका की सहमति प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है ताकि उसकी पतनशील अर्थव्यवस्था को उबारा जा सके।
शांति और वार्ता की राह
विगत माह की दूसरी महत्वपूर्ण घटना थी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रूसी राष्ट्रपति पुतिन से शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शीर्ष सम्मलेन के मौके पर हुई बातचीत जिसमें उन्होंने पुतिन को सलाह दी कि ‘यह युद्ध का समय नहीं है’ और यह अनुरोध किया कि इस अवसर का उपयोग करते हुए युद्ध की समाप्ति पर सोचा जाना चाहिए।
पश्चिमी देशों समेत सभी देश जब अपने राष्ट्रीय हित में कार्य कर रहे हों और जब यूरोप युद्ध के दौरान भी रूस से तेल ले रहा हो, तो रूस से तेल लेने के लिए भारत की आलोचना कितनी एकांगी और पाखण्डपूर्ण है, विदेश मंत्री जयशंकर ने यह पश्चिम को साफ शब्दों में समझा दिया है। अपने राष्ट्रीय हित को सर्वोच्च प्राथमिकता देना सभी देशों का कर्तव्य है और ऐसा करके हम कोई अपराध नहीं कर रहे। इस प्रकार पिछले माह की इन तीन घटनाओं ने फिर से यह सिद्ध कर दिया कि भारत की विदेश नीति एक सुविचारित और सुलझी हुई राह पर चल रही है।
प्रत्युत्तर में पुतिन ने भारत के रुख की सराहना की और मोदी को यह विश्वास दिलाया कि रूस भी युद्ध समाप्त करना चाहता है और इस बारे में हर संभव प्रयास किया जाएगा। इसके कुछ ही घंटों पूर्व भारत ने संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की को भाषण की अनुमति देने के प्रस्ताव का समर्थन किया था।
इन दोनों घटनाओं को पश्चिमी मीडिया ने खूब उछाला और यह दिखाने की कोशिश की कि भारत का रूस से मोहभंग हो रहा है और रूस के ऊपर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता जा रहा है। कुछ तथाकथित भारतीय राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने भी इस गलतफहमी को हवा दी। लेकिन शीघ्र ही इस गलतफहमी की हवा तीसरी घटना से निकल गई और यह स्पष्ट हो गया कि भारत और रूस के सम्बन्ध इतने दुर्बल नहीं हैं कि दस महीने के एक युद्ध से टूट जाएं।
दोस्त से दोस्ती
तीसरी घटना थी संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में रखे गए रूस की निंदा के प्रस्ताव पर भारत की अनुपस्थिति। 2 अक्तूबर को अमेरिका द्वारा परिषद् में रखे गए इस प्रस्ताव के मसौदे में पूर्वी यूक्रेन के चार हिस्सों में रूस द्वारा कराए गए जनमत संग्रह के आधार पर उनको रूस में मिलाने की घोषणा पर निंदा की गई थी। पंद्रह सदस्यीय परिषद् में जहां रूस ने आशानुरूप वीटो किया, भारत, चीन, ब्राजील और गैबन ने मतदान में भाग नहीं लिया। इससे यह सिद्ध हो गया कि रूस के प्रति भारत की नीति में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं आया है जिसकी कि पश्चिम आशा कर रहा था।
भारत और रूस के संबंधों के दो और सशक्त पहलू हैं-सैन्य सहयोग और द्विपक्षीय व्यापार। भारत की सैन्य सामग्री की आवश्यकताओं के आधे की पूर्ति रूस से ही होती है। जो रूसी हथियार हमने लिए हैं, उनके कल पुर्जों के लिए भी हम रूस पर निर्भर हैं। दूसरा पहलू है व्यापार। युद्ध के चलते कच्चे तेल का आयात महंगा हो जाने से हमें काफी नुकसान हो रहा था। ऐसे में रूस द्वारा, जिसका तेल निर्यात पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण बुरी तरह प्रभावित हुआ था, हमें रियायती दर पर तेल देने की पेशकश हमारे लिए वरदान से कम नहीं थी क्योंकि हमारी आवश्यकताओं का 85 प्रतिशत से अधिक आयात होता है।
रूस का भी यूक्रेन युद्ध पर होने वाला दैनिक खर्च भारत और चीन द्वारा तेल आयात से लगभग पूरा हो जाता है और भारत तथा चीन, दोनों को सस्ती दरों पर तेल मिल जाता है। साथ ही हम खाद की आवश्यकताओं के लिए बहुत कुछ रूस पर निर्भर करते हैं। यह दोनों ही पक्षों के लिए लाभ का सौदा है। पिछले वित्तीय वर्ष में जहां भारत ने रूस से कुल लगभग 77 करोड़ डॉलर मूल्य की खाद मंगाई, वहीं इस वित्तीय वर्ष के केवल चार महीनों में यह आंकड़ा 100 करोड़ डॉलर पार कर गया।
पश्चिमी देशों समेत सभी देश जब अपने राष्ट्रीय हित में कार्य कर रहे हों और जब यूरोप युद्ध के दौरान भी रूस से तेल ले रहा हो, तो रूस से तेल लेने के लिए भारत की आलोचना कितनी एकांगी और पाखण्डपूर्ण है, विदेश मंत्री जयशंकर ने यह पश्चिम को साफ शब्दों में समझा दिया है। अपने राष्ट्रीय हित को सर्वोच्च प्राथमिकता देना सभी देशों का कर्तव्य है और ऐसा करके हम कोई अपराध नहीं कर रहे। इस प्रकार पिछले माह की इन तीन घटनाओं ने फिर से यह सिद्ध कर दिया कि भारत की विदेश नीति एक सुविचारित और सुलझी हुई राह पर चल रही है।
(लेखक पूर्व राजदूत हैं)
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