नागपुर में बाबासाहेब ने कहा था कि, ‘बौद्ध धर्म अंगीकार कर मैं इस देश का अधिक से अधिक हित साध्य कर रहा हूं क्योंकि बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही हिस्सा है। इस देश की संस्कृति, इतिहास की परंपरा को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए, ऐसी पूरी खबरदारी मैंने ली है।‘ बौद्धधर्म भारतीय संस्कृति का अंग है। यह सत्य और अहिंसा का प्रेरक है।
हिंदू समाज में अस्पृश्य लोगों के लिए समानता का अधिकार पाने का डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का संघर्ष निरंतर चला। उन्हें समाज में जिस परिवर्तन की अपेक्षा थी, उसके आने का उन्होंने संयमपूर्वक इंतजार भी किया था। इस अपेक्षा और प्रतीक्षा की पूर्ति की किरण न दिखने पर ही उन्होंने अपने कदम तथागत ‘बुद्ध’ की शरण में जाने के लिए बढ़ाए। जिस समस्या को बाबासाहेब ने जाना था, पहचाना था और पूरे हिंदू समाज को अवगत करने का भरसक प्रयास किया, उस समस्या को हल किए बिना इस दुनिया से विदा लेना उन्हें मंजूर न था। अंतत: 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में उन्होंने बौद्ध धर्म में प्रवेश किया।
बाबासाहेब समाजपुरुष थे। उनका जीवनध्येय व्यक्तिनिष्ठ नहीं बल्कि समाजनिष्ठ था। अस्पृश्यता निर्मूलन का कार्य अगर मुझसे नहीं भी होगा तो भी उसे सारे विश्व के सामने लाने का कार्य मुझे करना होगा। अस्पृश्यता हिंदू समाज का एक अंग है, ऐसा माना गया था, इसलिए डॉ. आंबेडकर को धार्मिक लड़ाई लड़नी थी। वे मानते थे कि हिंदू धर्म का तत्वज्ञान समानता की दृष्टि से श्रेष्ठतम है, मगर वह आचरण के स्तर पर बिल्कुल नहीं दिखाई दे रहा था।
तत्व और व्यवहार का मेल बैठाना चाहिए, ऐसा उनका मत था। धर्म के दार्शनिक तत्व सामाजिक आचरण में कैसे प्रतिबिंबित हो सकते हैं और उनके अनुसार कैसे व्यवहार हो सकता है, इसीलिए बाबासाहेब ने महाड का धर्मसंगर किया था। वे तो कहते ही थे कि, ‘जब-जब धर्म के आचार उस धर्म के विचारों के विरोध में दिखाई देते हैं, तब- तब धार्मिक आचारों में बदलाव कर उसे धार्मिक विचारों से सुसंगत कर लेना अत्यंत आवश्यक होता है।’
वंशशास्त्र की दृष्टि से समूचे लोक समूह के एक होने के लिए सांस्कृतिक एकता ही उनके एकत्व का चिन्ह होता है। यह कथन स्वीकृत हुआ तो मैं साहसपूर्वक एक विधान करना चाहता हूं कि लोगों की सांस्कृतिक एकता को लेकर दूसरा कोई भी देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। केवल भौगोलिक दृष्टि से भारत एक है, यही नहीं, एकता के अन्य किसी भी लक्षण की अपेक्षा भारत की सांस्कृतिक एकता अधिक मूलभूत रही।
हिंदुत्व, बुद्धिज्म और लोकतंत्र
मगर हिंदू समाज से बदला लेने के लिए धर्मांतरण करना -ऐसी भावना उनकी कभी भी नहीं रही थी। हिंदुत्व का त्याग कर हिंदुत्व से शत्रुत्व मोल लेने वाला धर्म तत्वज्ञान स्वीकृत करने में उनकी भूमिका नहीं थी। धर्मांतरण से राष्ट्रांतर नहीं होना चाहिए, इस बारे में बाबासाहेब पूरे सावधान थे।
नागपुर में बाबासाहेब ने कहा था कि, ‘बौद्ध धर्म अंगीकार कर मैं इस देश का अधिक से अधिक हित साध्य कर रहा हूं क्योंकि बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही हिस्सा है। इस देश की संस्कृति, इतिहास की परंपरा को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए, ऐसी पूरी खबरदारी मैंने ली है।‘ बौद्धधर्म भारतीय संस्कृति का अंग है। यह सत्य और अहिंसा का प्रेरक है। इससे भारतीय संस्कृति और परम्परा का रक्षण होगा। इसीलिए आंबेडकर ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया है।
आंबेडकरजी का मानना था कि शांति, मैत्री और न्याय के माध्यम से हिन्दुत्व वैश्विक शांति का संदेश देता है। तो बौद्धधर्म प्रज्ञा, शील, करुणा के माध्यम से वैश्विक मैत्री का संदेश देता है। समता, बंधुत्व और न्याय के जरिए लोकतंत्र वैश्विक न्याय का संदेश देता है। हिन्दुत्व की शांति, बुद्धिज्म की मैत्री और लोकतंत्र का न्याय – यह त्रिसूत्रीय संगम हो तो यह विश्व एक नए आदर्श समाज के निर्माण की संभावना बन सकता है।
राष्ट्र प्रथम
डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर के संपूर्ण जीवन का केन्द्र बिन्दु तो सामाजिक विषमता मिटाकर, समाज में समता-ममता और समरसता के आधार पर हिन्दू समाज को शक्तिशाली बनाना था। डॉ. बाबासाहेब आंबडेकर का राष्ट्रवादी हृदय यह चाहता था कि हिन्दू समाज में सुधार हो, हिन्दू समाज एकात्म बने। वे हमेशा एक बात से दुखी रहे कि हिन्दू समाज जातपात के कारण असंगठित है। इसी कारण यह देश विदेशी आक्रांताओं का शिकार बना।
उनका अंत:करण भारत भक्ति से आकंठ भरा हुआ था। उन्होंने अपने भारत समर्पण और भारत भक्ति का परिचय एक ही वाक्य में दिया था- पहले भी देश और अंत में भी देश… राष्ट्र व्यक्ति से महान है, व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो वह राष्ट्र के समक्ष तो छोटा ही है… राष्ट्र की रक्षा के लिए मैं अपना सर्वस्व समर्पित करने को भी तैयार हूं।
इस्लामी कट्टरवाद
आज पूरा विश्व मजहबी कट्टरवाद से परेशान है। भारत एक हजार वर्ष से इस कट्टरवाद को झेलता आया है। बाबासाहेब ने हिन्दू-मुस्लिम समस्या की जड़ में जाकर ऐसा निष्कर्ष निकाला जो आज भी उपयोगी है। सेकुलरवाद की नकाब को बाबासाहेब ने बड़ी स्पष्टता से नकार दिया है। जिहादी मानसिकता और मजहबी कट्टरवाद पूरी मानवजाति और विश्व के लिए जोखिम है। बाबासाहेब द्वारा लगभग 75 वर्ष पूर्व व्यक्त किए गए ये विचार पूरी मानव जाति के लिए उपयोगी हैं।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का इस्लामी कट्टरवाद के बारे में दृष्टिकोण हमेशा एकदम स्पष्ट था। जब देश का राष्ट्रीय नेतृत्व हिन्दू-मुस्लिम एकता की आड़ में मुस्लिम तुष्टीकरण में लगा था, उस समय 18 जनवरी, 1929 के ‘बहिष्कृत भारत’ के संपादकीय में डॉ. बाबासाहेब ने लिखा, ‘मुस्लिम लोगों का झुकाव मुस्लिम संस्कृति के राष्ट्रों की तरफ रहना स्वाभाविक है। लेकिन यह झुकाव हद से ज्यादा बढ़ गया है। मुस्लिम संस्कृति का प्रसार कर मुस्लिम राष्ट्रों का संघ बनाना और जितना हो सके काफिर देशों पर उनका अलम चलाना, यही उनका लक्ष्य बन गया है। इसी सोच के कारण उनके पैर हिन्दुस्थान में होकर भी उनकी आंखें तुर्कस्तान अथवा अफगानिस्तान की ओर लगी हैं।
हिन्दुस्थान मेरा देश है, ऐसा जिनको अभिमान नहीं है और अपने निकटवर्ती हिन्दू बंधुओं के बारे में जिनकी बिलकुल भी आत्मीयता नहीं है, ऐसे मुसलमान लोग मुसलमानी आक्रमण से हिन्दुस्थान की सुरक्षा करने हेतु सिद्ध हो जाएंगे, ऐसा मानना खतरनाक है।’ मुस्लिम कट्टरवाद की असहिष्णुता, आक्रामकता और हठधर्मिता के कारण ही अखंड भारत खंडित हुआ और भारतभूमि पर पाकिस्तान नामक एक देश का सृजन हुआ, यही धारणा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की थी, जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थॉटस आॅन पाकिस्तान’ (1941) में प्रस्तुत किया।
हिन्दू-मुस्लिम एकता भ्रम
हिन्दू-मुस्लिम एकता एक भ्रम और सेकुलरवाद की बातें व्यर्थ हैं- ऐसा बाबासाहेब का मत था। उन्होंने कहा है, ‘मेरे तर्कों का बहुत बड़ा भाग हिन्दुओं को संबोधित है। इसका एक स्पष्ट कारण है, जो किसी की भी समझ में आ जाएगा। हिन्दू बहुसंख्या में हैं। इस नाते उनके दृष्टिकोण का महत्व होना ही चाहिए। उनकी आपत्तियों को, चाहे वे तर्कसम्मत हों या भावुकता पूर्ण, दूर किए बिना (हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की) समस्या का शांतिपूर्ण हल संभव नहीं है।
हिन्दुओं को यह बोध नहीं होता, यद्यपि यह अनुभव सिद्ध है कि हिन्दू व मुसलमान न तो स्वभाव में एक हैं, न आध्यात्मिक अनुभव में और न ही राजनीतिक एकता की इच्छा में। जिन कुछ थोड़े क्षणों में वे सौहार्द संबंधों की ओर बढ़े, तब भी ये संबंध तनावपूर्ण थे। फिर भी हिन्दू इसी भ्रम को प्रसन्नतापूर्वक अपनाए रहेंगे कि पिछले अनुभवों के बावजूद, हिन्दुओं व मुसलमानों में घनिष्ठता बनाने के लिए दोनों के बीच लक्ष्यों, भावनाओं व नीतियों की व्यापक एवं वास्तविक एकता की पर्याप्त मात्रा बची हुई है।’
बाबासाहेब मानते थे कि हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रयास भ्रामक है और दंगों में मुस्लिम कट्टरपंथियों के शामिल होने के स्पष्ट प्रमाण के बावजूद कांग्रेस और गांधीजी ने उनको दोषी नहीं माना। एकता के इन प्रयासों की विफलता के कारण क्या हैं? डॉ. बाबासाहेब कहते हैं- ‘हिंदू-मुस्लिम एकता की विफलता की वास्तविक व्याख्या यह है कि इस बात को समझा ही नहीं गया है कि दोनों समुदायों के बीच की समस्या केवल मतभेद की दीवार खड़ी होना नहीं है और दोनों की शत्रुता के पीछे भौतिक कारण नहीं है। यह शत्रुता आध्यात्मिक स्वरूप की है। यह ऐसे कारणों से उत्पन्न हुई है, जिनकी जड़ें ऐतिहासिक, सांप्रदायिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विद्वेष में हैं तथा राजनीतिक विद्वेष जिनकी एक परछाई मात्र है।
डॉ. बाबासाहेब आंबडेकर का राष्ट्रवादी हृदय चाहता था कि हिन्दू समाज में सुधार हो, हिन्दू समाज एकात्म बने। वे हमेशा एक बात से दुखी रहे कि हिन्दू समाज जातपात के कारण असंगठित है। इसी कारण यह देश विदेशी आक्रांताओं का शिकार बना।
डॉ. आंबेडकर कहते हैं, ‘वे जिहाद केवल छेड़ ही नहीं सकते, बल्कि जिहाद की सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति को सहायता के लिए बुला भी सकते हैं। और, इसी प्रकार यदि भारत के विरुद्ध कोई विदेशी मुस्लिम शक्ति ही जिहाद छेड़ना चाहती है, तो मुसलमान उसके प्रयास की सफलता के लिए सहायता भी कर सकते हैं।’
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘थॉट्स आॉन पाकिस्तान’ में मुस्लिम राजनीति के सांप्रदायिक आधार का विस्तृत वर्णन किया है। इस वर्णन से मुस्लिम राजनीति के दो आयाम दृष्टि-गोचर होते हैं- आक्रामकता और अलगाववाद। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा- ‘सरसरी दृष्टि से देखने पर भी यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि मुसलमानों के प्रति हिन्दू मनोवृत्ति और हिन्दुओं के प्रति मुस्लिम मनोवृत्ति में एक मूलभूत आक्रामक भाव विद्यमान रहता है। हिन्दुओं का आक्रामक भाव एक नई प्रवृत्ति है जिसे उन्होंने हाल ही में विकसित करना प्रारंभ किया है। मुसलमानों की आक्रामक भावना उनकी जन्मजात पूंजी है और हिन्दुओं की तुलना में बहुत प्राचीन काल से उनके पास है।’
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