दुनिया को यह संदेश दिया है कि मातृ शक्ति के बारे में भारतीय दृष्टि क्या है। भारत ने हमेशा जगत जननी के रूप में मातृशक्ति का सम्मान किया है। हम, पुरुष श्रेष्ठ या महिला श्रेष्ठ, इस बहस में नहीं पड़ते। भारतीय दृष्टि हम स्त्री-पुरुष को परस्पर पूरक मानती आई है। बाहरी आक्रमणों के चलते बंधन बने, बंधनों को स्वीकार्यता प्राप्त हुई।
जब भी किसी देश के संबंध में स्वाभिमान, सम्मान और आत्मविश्वास का प्रश्न आएगा, उसके साथ उस देश की महिलाओं की स्थिति, उनके सम्मान का सवाल स्वयं ही जुड़ जाएगा। यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख परमपूज्य मोहन भागवत जी ने विजयादशमी पर दिए गए अपने संबोधन में शक्ति पुंज समझी जाने वाली मातृशक्ति पर महत्वपूर्ण बातें रखीं।
दुनिया को यह संदेश दिया है कि मातृ शक्ति के बारे में भारतीय दृष्टि क्या है। भारत ने हमेशा जगत जननी के रूप में मातृशक्ति का सम्मान किया है। हम, पुरुष श्रेष्ठ या महिला श्रेष्ठ, इस बहस में नहीं पड़ते। भारतीय दृष्टि हम स्त्री-पुरुष को परस्पर पूरक मानती आई है। बाहरी आक्रमणों के चलते बंधन बने, बंधनों को स्वीकार्यता प्राप्त हुई। उनकी सक्रियता के दायरे को सीमित कर दिया गया। भागवत जी का संकेत बहुत स्पष्ट है कि इस देश की महिलाएं अंधेरे में अपना अस्तित्व नहीं ढूंढ रहीं बल्कि इस देश की महिलाओं के गौरवशाली इतिहास की परम्परा रही है।
उन्होंने देशवासियों यह को संदेश दिया है कि प्रश्न पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की जय-पराजय का नहीं बल्कि आधे भाग की सामर्थ्य, कौशल एवं क्षमता को निखारने और संवारने का है। अगर हम अपने देश को एक सशक्त, संगठित एवं समग्र राष्ट्र के रूप में ऊंचाई पर देखना चाहते हैं तो हम मातृशक्ति की उपेक्षा नहीं कर सकते। तरह-तरह के अतिवादों से मुक्त कर हम मातृशक्ति का सम्मान करना सीखें, उसे कमतर न समझें, महत्वपूर्ण निर्णयों में उन्हें भागीदार बनाएं।
भारतीय महिलाओं की उज्ज्वल गाथाओं को जाननेवाले सभी जानते हैं कि भारतीय महिलाओं के भीतर असीम क्षमताएं हैं। विकास की अनंत संभावनाएं मौजूद हैं। तरह-तरह के अवांछित बंधन उसकी संभावनाओं के कपाट बंद कर देते हैं। भारतेंदु ने ‘नारि नर सम होंहि’ का नारा दिया था लेकिन विडम्बना यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी हम उसे व्यावहारिक धरातल पर उतार नहीं पाए। अन्याय, अत्याचार की शिकार हुई, जीवन त्रासद बना। उसके बावजूद स्त्री प्रतिभाओं ने प्रस्फुटन का रास्ता स्वयं प्रशस्त किया। मील के कई पत्थर कायम किए।
भारतीय मूल की महिलाएं विश्व में अपनी प्रतिभा का परचम लहरा रही हैं। हिन्दुस्तान के मानचित्र में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक प्रत्येक वर्ग की महिलाओं की सफलता, क्षमता और सामर्थ्य की अनगिनत कहानियां हैं। खेल का मैदान हो, एवरेस्ट की चोटी हो या फिर अन्तरिक्ष की यात्रा, स्त्री की प्रतिभा ने हर क्षेत्र का संस्पर्श किया। लेकिन जनमानस की सोच ऐसी बन गई है कि महिलाओं की क्षमताओं और उपलब्धियों के उदाहरणों के बावजूद स्त्रियों की अपार संभावनाओं और क्षमताओं का अनुमान नहीं लगा पाते। लेकिन इक्कीसवीं सदी में महिलाओं की सहभागिता के बिना देश के विकास का स्वप्न नहीं देखा जा सकता।
ऐसे समय में भागवत जी का संबोधन देश भर की महिलाओं के लिए वसंत के संदेश जैसा है क्योंकि इसमें आह्वान है मातृशक्ति के जागरण का। इसमें आह्वान है माइक्रो स्तर पर मजबूत होती हुई महिलाओं को मैक्रो स्तर पर मजबूती देने का। इसमें आह्वान है महिलाओं के अन्तर में छिपी शक्ति और चेतना को सही मोड़ देने का।
इसलिए भागवत जी के संबोधन के पाठ में निहित दिशा सूत्रों से किसी की भी असहमति नहीं हो सकती कि देश का नवोत्थान मातृशक्ति के जागरण के बिना असंभव है। महिलाओं के हितों के संरक्षण के साथ-साथ उन्हें हर दृष्टि से सशक्त बनाना होगा। उन्हें सशक्त किए बिना आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना अधूरी रहेगी।
विकास की धारा में मातृशक्ति को उसकी सक्रिय भागीदारी के जीवंत अहसास की अनुभूति करानी होगी। तभी वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी उपलब्धियों से भारत के विश्वगुरु की छवि को प्रतिष्ठापित करने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेंगी।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)
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