संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के साथ गांधी जी की मुलाकात और दोनों के बीच वार्ता विशाल सामाजिक-राजनीतिक मिशन की कल्पना करने वाले दो राष्ट्रवादी दिग्गजों के बीच हुई एक दुर्लभ, विशिष्ट और रचनात्मक बातचीत है। लेकिन इसे भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श से दूर रखा गया
‘कर्तव्य पथ’, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी , इंडिया गेट, भारत जैसे बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक राष्ट्र क्षेत्रीय भाषा
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया गेट की कैनॉपी में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 28 फुट ऊंची काले ग्रेनाइट की भव्य प्रतिमा का अनावरण किया। साथ ही, ‘कर्तव्य पथ’ का भी उद्घाटन किया, जो सेंट्रल विस्टा परियोजना का एक हिस्सा है। इस वर्ष 23 जनवरी को नेताजी बोस की 125वीं जयंती को ‘पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाया गया था। वास्तव में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपनी मातृभूमि को उपनिवेशवाद की बेड़ियों से मुक्त करने के महान उद्देश्य हेतु भारतीय उपमहाद्वीप की विविध सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, बौद्धिक, दार्शनिक और आर्थिक पहचानों के एकीकरण का अनन्य अवसर था।
स्वतंत्रता आंदोलन निर्विवाद रूप से बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों और संगठनों के लिए भारत की स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बाद के उपक्रमों के बारे में अपने विचारों और कल्पनाओं को साझा करने का मंच भी था। अपनी-अपनी धारणाओं के बावजूद अहिंसा, सशस्त्र संघर्ष, सांस्कृतिक जागृति, सामाजिक उत्थान आदि भारत को स्वतंत्र कराने के लिए कई महान व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त कुछ तरीके थे।
भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र में क्षेत्रीय भाषाओं में राष्ट्रवादी भावना और जोश जगाने वाला विपुल साहित्य भरा है, जिसकी गूंज ने लाखों भारतीयों को एकजुट कर सड़क पर उतारा था। स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली महान हस्तियों के बीच ऐतिहासिक वार्ताएं हुई थीं, जिनसे विविधता के बीच वे संयुक्त रूप से जीवित सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप में भारत की अपनी समझ को समृद्ध कर सके थे। ऐसी ही एक वार्ता वर्ष 1934 में मोहनदास करमचंद गांधी और रा.स्व.संघ के संस्थापक तथा पहले सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के बीच हुई थी।
संघ की स्थापना के नौ वर्ष बाद 25 दिसंबर 1934 को वर्धा जिला शिविर में गांधी जी का आगमन और डॉक्टर जी से उनकी बातचीत शायद राष्ट्र के लिए विशाल सामाजिक-राजनीतिक मिशन की कल्पना करने वाले दो राष्ट्रवादी दिग्गजों के बीच हुई एक दुर्लभ, विशिष्ट और रचनात्मक बातचीत है। गांधी ने भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए जहां सत्य और अहिंसा को माध्यम चुना था, वहीं डॉक्टर जी सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर राष्ट्र के पुनर्निर्माण और परिवर्तन के लिए जनता को हिंदू-सांस्कृतिक और भारतीय पहचान प्रदान करने की अत्यधिक आवश्यकता महसूस करते थे।
वर्धा शिविर में गांधी का आगमन
वर्धा में शिविर की तैयारियां और उसका आरंभ देखने के बाद पास के ही सेवाग्राम आश्रम में ठहरे गांधी जी उत्सुकतावश शिविर पहुंचे। उनका मार्गदर्शन अप्पाजी जोशी कर रहे थे। वर्धा शिविर शुरू करने में हर छोटी-छोटी बात को लेकर किए गए नियोजन, इस संबंध में आयोजकों और स्वयंसेवकों के प्रयास को देखकर गांधी जी बहुत प्रसन्न हुए। स्वयंसेवकों के साथ बातचीत के बाद गांधीजी को तब और भी आश्चर्य हुआ कि वर्धा शिविर में अस्पृश्यता, जातिगत उपेक्षा या अन्य भेदभाव बिल्कुल नहीं थे। पूछने पर एक स्वयंसेवक ने गांधी से कहा, ‘‘संघ में ब्राह्मण, मराठा, अस्पृश्य आदि जैसे कोई मतभेद नहीं हैं। वास्तव में हम यह भी नहीं जानते हैं कि हमारे कौन से स्वयंसेवक भाई किस जाति के हैं; न ही हम यह जानने में रुचि रखते हैं। हमारे लिए इतना ही काफी है कि हम सब हिंदू हैं।’’ इस पर गांधी ने अप्पाजी की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘हमारे समाज से अस्पृश्यता की बुराई को दूर करना लगभग असंभव प्रतीत होता है। संघ में यह कैसे संभव हुआ है?’’
अप्पाजी ने उत्तर दिया, ‘‘सभी हिंदुओं की अंतर्निहित एकता पर जोर देकर ही ऊंच-नीच, छुआछूत और अस्पृश्यता की भावनाओं को समाप्त किया जा सकता है। ऐसा होने पर ही उनके सच्चे व्यवहार में भाईचारे की भावना झलकेगी, न कि केवल शब्दों में। इस उपलब्धि का श्रेय डॉ. केशवराव हेडगेवार को है।’’ उसके बाद संघ की परंपरा के अनुसार, प्रार्थना कक्ष में एकत्र स्वयंसेवकों के साथ गांधीजी ने भी भगवा ध्वज को प्रणाम किया। जब अप्पाजी उन्हें शिविर की अन्य व्यवस्थाएं दिखाने ले गए, तब गांधीजी को एक चित्र दिखा। उन्होंने पूछा कि वह किसका चित्र है? अप्पाजी ने बताया कि वह डॉ. हेडगेवार का चित्र है। गांधी ने पूछा, ‘‘क्या वही डॉ. केशवराव हेडगेवार जिनका बारे में आपने अस्पृश्यता के बारे में बातचीत करते हुए बताया था? उनका संघ से क्या जुड़ाव है?’’
अप्पा जी ने उत्तर दिया, ‘‘वह संघ के प्रमुख हैं। हम उन्हें सरसंघचालक कहते हैं। संघ की सभी गतिविधियां उनके मार्गदर्शन में चलती हैं। उन्होंने ही संघ की शुरुआत की है।’’ गांधी ने उत्सुकता से अप्पाजी से पूछा, ‘‘क्या डॉ. हेडगेवार से मिलना संभव होगा? संभव हो तो मैं सीधे उन्हीं से संघ के बारे में जानना चाहता हूं।’’ उस समय डॉ. हेडगेवार वर्धा शिविर में नहीं थे, इसलिए उन्होंने अगले दिन गांधी से मुलाकात की। दो दिग्गजों के बीच की यह चर्चा विविध विचारों, दृष्टिकोणों और प्रथाओं की स्वीकृति और उनके सह-अस्तित्व की समृद्ध भारतीय संस्कृति का प्रमाण है।
दोनों विभूतियों के बीच हुई वार्ता
चर्चा के दौरान गांधी जी ने डॉ. हेडगेवार से कहा, ‘‘डॉक्टर जी, आपका संगठन सराहनीय है। मैं इस तथ्य से अवगत हूं कि आप कई वर्षों तक कांग्रेस के कार्यकर्ता थे। आपने कांग्रेस जैसे लोकप्रिय संगठन के तत्वावधान में ऐसे स्वयंसेवी संवर्ग का निर्माण क्यों नहीं किया? आपने एक अलग संगठन क्यों बनाया?’’ डॉक्टर जी ने स्पष्ट उत्तर दिया, ‘‘यह सच है कि मैंने कांग्रेस में काम किया है। 1920 के कांग्रेस अधिवेशन के समय जब मेरे मित्र डॉ. परांजपे स्वयंसेवक दल के अध्यक्ष थे, तब मैं दल का सचिव भी था। इसके बाद हम दोनों ने कांग्रेस के अंदर एक ऐसा स्वयंसेवक आधार बनाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। इसलिए मैंने यह स्वतंत्र शुरुआत की।’’ इस संदेह पर कि डॉक्टर जी को कांग्रेस में संभवत: किन्हीं वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ा हो, गांधीजी ने पूछा, ‘‘आपका प्रयास विफल क्यों हुआ? क्या ऐसा वित्तीय सहायता के अभाव में हुआ?’’ इस पर डॉक्टर जी ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं, नहीं! धन की कोई कमी नहीं थी। बेशक पैसों से बड़ी मदद हो सकती है, लेकिन सिर्फ पैसा ही सब कुछ पूरा नहीं कर सकता। हमारे सामने जो समस्या थी, वह पैसे की नहीं, बल्कि नजरिए की थी।’’
गांधी ने संदेह के साथ डॉक्टर जी से पूछा, ‘‘क्या आपकी राय है कि कांग्रेस में नेक दिल वाले लोग नहीं थे, या वे अब नहीं हैं?’’ तब डॉक्टर जी ने उन्हें कांग्रेस के भीतर इस तरह के एक समर्पित कैडर के निर्माण में आने वाली चुनौतियों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा, ‘‘कांग्रेस में कई अच्छे लोग हैं। मुद्दा बुनियादी दृष्टिकोण का है। कांग्रेस का गठन मुख्य रूप से एक राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त करने की दृष्टि से किया गया है। इसके कार्यक्रम भी उसी के अनुसार तैयार किए गए हैं और इन कार्यक्रमों की व्यवस्था के लिए स्वयंसेवकों की आवश्यकता होती है। इसीलिए कांग्रेस के नेता स्वयंसेवकों को बैठकों और सम्मेलनों के दौरान कुर्सियों और बेंचों की व्यवस्था देखने वाले अवैतनिक सेवकों के रूप में देखने के आदी हैं। कांग्रेस यह नहीं मानती कि राष्ट्र की समस्याओं को केवल तब प्रभावी ढंग से हल किया जा सकता है, जब समर्पित स्वयंसेवकों का ऐसा बड़ा और अनुशासित निकाय हो जो स्वेच्छा से और किसी अन्य से प्रेरणा की प्रतीक्षा किए बिना ही देश की सेवा करने को उत्सुक हो।’’
इस वार्ता से पहले के दिन वर्धा शिविर में कई स्वयंसेवकों के साथ बातचीत कर चुके गांधी ने डॉक्टर जी से पूछा, ‘‘स्वयंसेवकों के बारे में आपकी अवधारणा वास्तव में क्या है?’’ इस पर, डॉक्टर जी ने नि:स्वार्थ और समर्पित स्वयंसेवक के विचार को विस्तार से बताते हुए कहा, ‘‘स्वयंसेवक वह होता है, जो राष्ट्र के सर्वांगीण उत्थान के लिए अपना जीवन प्रेमपूर्वक न्यौछावर कर दे। ऐसे स्वयंसेवक बनाना और ढालना संघ का उद्देश्य है। संघ में ‘स्वयंसेवक’ और ’नेता’ में कोई अंतर नहीं है। हम सभी स्वयंसेवक हैं और इसलिए समान हैं। हम सभी को समान रूप से प्रेम और सम्मान करते हैं। हमारे यहां किसी की स्थिति में अंतर के लिए कोई जगह नहीं हैं। वास्तव में, बिना किसी बाहरी मदद, धन या प्रचार के इतने कम समय में संघ के उल्लेखनीय विकास का रहस्य यही है।’’ गांधी जी ने बातचीत जारी रखते हुए कहा, ‘‘मैं वास्तव में बहुत खुश हूं। आपके प्रयासों की सफलता से देश निश्चित रूप से लाभान्वित होगा। मैंने वर्धा में बड़ी संख्या में संघ के अनुयायियों के बारे में सुना है। आप इतने बड़े संगठन का खर्च कैसे चलाते हैं?’’
विश्वगुरु बनने की यात्रा में आगे बढ़ने के इस काल में जनता को राजनीतिक और सामाजिक बाधाओं से आगे बढ़ कर निर्णय ले पाने में सक्षम बनाने के लिए समाज में रचनात्मक विमर्श और आलोचनात्मक सोच की अधिक आवश्यकता है। इसलिए ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ के माध्यम से भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने का उत्सवों को एक राष्ट्र के रूप में तेजी से आगे बढ़ने की प्रेरणा होना चाहिए ताकि भारत गौरव के शिखर पर पहुंच सके।
इस पर डॉक्टर जी ने संघ की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नि:स्वार्थ योगदान का सर्वश्रेष्ठ तरीका समझाया। उन्होंने कहा कि यह बोझ स्वयंसेवक स्वयं उठाते हैं और प्रत्येक स्वयंसेवक यथाशक्ति गुरु दक्षिणा के रूप में अपना छोटा सा योगदान करता है।’’ संघ परंपरा है कि स्वयंसेवक स्वेच्छा से वर्ष में एक बार गुरु पूर्णिमा पर अपनी कमाई का एक हिस्सा गुरु दक्षिणा के रूप में देते हैं। यह भारत की प्राचीन सनातन प्रथा है, जिसके अनुसार हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख आध्यात्मिक परंपराओं में स्वेच्छा से मानदेय या दान देकर अपने गुरु या शिक्षक को स्वीकार करने की पवित्र व्यवस्था है। संघ में स्वयंसेवक भगवा ध्वज को गुरु का प्रतीक और स्वरूप मानते हैं तथा उसे नमस्कार व प्रार्थना करने के बाद दक्षिणा प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में खुले आसमान के नीचे सूर्य के सामने फहराते भगवा ध्वज का एक महान इतिहास है और इससे धर्म की शाश्वत वैचारिक शिक्षाएं प्राप्त की जा सकती है।
संघ के मामलों में डॉक्टर जी की गहरी भागीदारी से चकित होकर गांधी जी ने पूछा, ‘‘ऐसा लगता है कि आपका पूरा समय इस काम में लग जाता है। ऐसे में आप अपने चिकित्सा पेशे को कैसे चलाते हैं?’’ जिस पर डॉक्टर जी ने उत्तर दिया कि संगठनात्मक निर्माण के प्रति समर्पण के कारण वह चिकित्सा को पेशे के रूप में नहीं लेते। उनके उत्तर से चकित गांधी जी ने पूछा, ‘‘फिर, आप अपने परिवार की जरूरतें कैसे पूरी करते हैं।’’ गांधी जी को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर जी ने शादी नहीं की। उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा तो आपने शादी नहीं की है! बहुत अच्छा। अब पता चला कि आपने इतनी कम अवधि में इतनी उल्लेखनीय सफलता कैसे हासिल की है! डॉक्टर जी, कोई संदेह नहीं कि आप जैसा चरित्रवान और निष्ठावान व्यक्ति सफलता पाएगा।’’
संघ के वर्धा शिविर में गांधी की ऐतिहासिक यात्रा और संघ के दार्शनिक विकास, राष्ट्र की नि:स्वार्थ सेवा और उसके प्रति दृष्टिकोण के बारे में डॉक्टर जी के साथ विस्तृत वार्ता की उपेक्षा की गई है। उसे भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श से दूर रखा गया है। विश्वगुरु बनने की यात्रा में आगे बढ़ने के इस काल में जनता को राजनीतिक और सामाजिक बाधाओं से आगे बढ़ कर निर्णय ले पाने में सक्षम बनाने के लिए समाज में रचनात्मक विमर्श और आलोचनात्मक सोच की अधिक आवश्यकता है। इसलिए ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ के माध्यम से भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने का उत्सवों को एक राष्ट्र के रूप में तेजी से आगे बढ़ने की प्रेरणा होना चाहिए ताकि भारत गौरव के शिखर पर पहुंच सके।
(स्रोत: डॉ. हेडगेवार: द इपोक मेकर- ए बायोग्राफी, 1981; एचवी शेषाद्रि (सं),
साहित्य सिंधु प्रकाशन, बेंगलुरु। आईएसबीएन: 81-86595-34-1)
(लेखक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री आफ साइंस इन इंडिया’ के लेखक हैं)
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