मान्यताओं के अनुसार श्रीराम का वनवासियों से प्रथम संपर्क 14 वर्ष के वनवास के दौरान वन में पहुंचने पर हुआ, जब वे माता शबरी से मिले। माता शबरी वन में रहने वाली भील जाति की थीं। वह वर्षों से श्री राम की प्रतीक्षा कर रही थीं। शबरी श्रीराम के प्रति इतना स्नेह रखती थीं कि वह उन्हें खट्टे बेर नहीं देना चाहती थीं। इस उत्कंठा में वह चख-चखकर जंगली बेर श्री राम को दे रही थीं और प्रेम से बंधे श्री राम सम्मान पूर्वक वह बेर खा रहे थे।
रामायण और महाभारत की कथाएं कण-कण में, हमारी सोच में, हमारे मन-मस्तिष्क में समाई हुई हैं। हमारा व्यक्तित्व, हमारे निर्णय, हमारे लक्ष्य और हमारा जीवन इनसे प्रभावित होता है, चाहे प्रत्यक्ष रूप में हो या परोक्ष रूप से हो।
दंडकारण्य के निवासी श्री राम को अपना भांजा मानते हैं। सीता जी मिथिला की थीं। मिथिला में आज भी प्रत्येक विवाह राम सीता का मिलन ही माना जाता है। सभी लोकगीत वर को राम एवं वधु को सीता का प्रतीक मानकर ही गाए जाते हैं। जब द्वार पर बारात आती है तो वधू पक्ष की स्त्रियां अनेक गीत गाती हैं जो कि श्रीराम के बारात लेकर आने पर हर्ष के आह्लाद से भरे होते हैं। उस समय गाए जाने वाले गीतों में एक पक्ष और भी है जब वधु पक्ष की महिलाएं वर एवं उसके साथियों के साथ पारंपरिक रूप से हंसी ठिठोली करती हैं। उस समय गाए जाने वाला एक पारंपरिक गीत है:
तुमसे मैं पूछूं हे धनुषधारी,
एक भाई गोर क्यों एक भाई कारीI
वधु पक्ष की महिलाएं बारातियों से हंसी ठिठोली कर रही हैं। मजाक मजाक में दूल्हा बने श्री राम से पूछती हैं कि धनुषधारी तुम बताओ कि एक भाई गौर वर्ण और दूसरा श्याम वर्ण क्यों है?
यह उस समय के समाज की विविधता को प्रदर्शित करता है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि उस कालखंड में भी गोरे और श्याम रंग सभी प्रकार के विविध व्यक्ति समाज में मौजूद थे और सब बराबर थेI इस तरह लोकगीत और लोक साहित्य में बहुत सी जानकारी छिपी है जोकि बनावटी इतिहास को झूठा प्रमाणित करती हैं। जैसा कि आर्यों के बाहर से आने की बात है। आर्यों के आक्रमण की परिकल्पना यदि मानी जाए तो गोरे रंग के लोग बाहर से आर्यों के आक्रमण के साथ ही आए। उससे पूर्व भारत वर्ष में द्रविड़ ही थे जो कि गौर वर्ण नहीं थेI
अभिलिखित इतिहास में कई बातें ऐसी हैं जोकि लोकगीत, लोक गान, पहेलियां, बुझारतें, लोक कथाओं, चारण, भाटो एवं पंजाब क्षेत्र के ढाढी परंपरा के वाहकों द्वारा गाए जाने वाले गीतों के विपरीत हैं। सच तो यह है की असली इतिहास और घटनाक्रम पर इतनी लीपापोती की गई है कि मुख्यधारा इतिहास जोकि पढ़ा पढ़ाया जाता है उसमें अनेक त्रुटियां एवं मिथ्या जानकारी है। सबाल्टर्न अध्ययन, स्थानीय प्रचलित घटनाक्रम के विवरण के बिना इतिहास को पूर्ण रूप से समझा नहीं जा सकता। इतिहास संकलन की प्रक्रिया के अध्ययन के बिना सही इतिहास को जाना नहीं जा सकता। इतिहास संकलन एक चयनात्मक प्रक्रिया है। इतिहास तो विजेताओं द्वारा लिखा जाता है, यह पुरानी कहावत है। चाटुकार इतिहासकारों द्वारा पुरस्कार, प्रशस्ति, जागीरों के लालच में इतिहास को तोड़-मरोड़ कर विजेता को हीरो के रूप में दिखाया जाता है। सिद्धांत की लड़ाई लड़ते हुए हारे जाने वाले वर्ग का पक्ष अभिलेखों में नहीं आता है। कई बार लोक परंपरा इसे जीवित रखती है।
कोई भी विजेता खाली देश नहीं जीतता है। वह तो जीते गए लोगों के मन पर विजय पाना चाहता है। इस हेतु अनेक हथकंडे अपनाता है। वह सांस्कृतिक प्रभुत्व चाहता है। वह विजित जनों पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए प्रमुख औजार अपनी संस्कृति को उत्तम और हार गई जो संस्कृति है उसको हीन दिखाने पर सारा जोर लगा देता है। पर इतिहास की विकृति इसी दिशा में उठाया गया एक बड़ा कदम है। उदाहरण के तौर पर जब अंग्रेजों ने भारत पर विजय पाई तो उन्होंने सबसे पहले भारतीय परंपरा और इतिहास को खत्म किया। उन्होंने प्रचार किया कि अंग्रेजों के आने के पूर्व भारतीय असभ्य थे, उनमें ज्ञान नहीं था, वे आर्थिक रूप से भी कमजोर थे और वह अंग्रेजी ही आधुनिक प्रकृति एवं वैज्ञानिक सोच की धारा हमारे देश में लाए। वास्तविकता इसके विपरीत थी। भारत की संस्कृति प्राचीन थीI हमारी सभ्यता बहुत समृद्ध थीI अनेक क्षेत्रों में भारतीय पश्चिम देशों से बहुत आगे थेI वैचारिक रूप से तो मानवीय सभ्यता अपनी पराकाष्ठा पर जिन निष्कर्षों पर नहीं पहुंच पाएगी हमारे लिए वह निष्कर्ष हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्ष पूर्व निचोड़ कर रख दिए हैंI भगवत गीता का उपदेश इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैI
दर्शन शास्त्र में एक बड़ा प्रश्न मानव जीवन के अर्थ और उद्देश्य को लेकर है। विभिन्न दार्शनिकों ने अपने अपने ढंग से इसकी व्याख्या की है। जो व्याख्या गीता में श्री कृष्ण द्वारा अठारहवें अध्याय में अर्जुन को जीवन का मर्म समझाते हुए की गई है, आज से करोड़ों साल बाद भी दर्शनशास्त्र इससे अच्छी व्याख्या नहीं कर पाएगाI ऐसा पश्चिम के कई विद्वानों का भी मानना हैI
स्थानीय इतिहास में जानकारी के खजाने छिपे हैं। पंजाब में ढाढीओं के गाए गीतों में बहुत सी जानकारी छुपी है। वह गाते हैं कि कश्मीरी पंडितों का जत्था नवम गुरु श्री तेग बहादुर के पास आया और दुख से अपनी व्यथा कहने लगा। उन्होंने कहा कि औरंगजेब जब तक प्रतिदिन धर्म परिवर्तित किए हिंदुओं का उतारा हुआ डेढ़ मन जनेऊ जला नहीं देता वह सुबह का पानी भी नहीं पीता। इसी परंपरा में ढाढी गाते हैं कि जब गजनी ने सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया तो चालीस हज़ार साधुओं ने उससे लड़ते हुए अपना बलिदान दिया। किस प्रकार धर्म की रक्षा की गई यह भी अनेक लोक गीतों एवं लोक गाथाओं का विषय है।
ढाढी इसी प्रकार की ऐतिहासिक घटनाओं को मौखिक परंपराओं से पीढ़ी दर पीढ़ी स्मरण कराते आए हैं। जब चौदहवीं शताब्दी में सिकंदर शाह मीरी जोकि बुतशिकन के नाम से भी जाना जाता है कश्मीर आया, उसने सभी मंदिरों को तोड़ डाला। भोजपत्र के वृहत पुस्तकालय को, जिसमें लाखों पांडुलिपिया संग्रहित थी, उसको उसने जला डाला। यह संग्रह इतना विशद था कि 6 महीने से अधिक आग जलती रही और धुआं निकलता रहा। मानवीय ज्ञान की इस विरासत के दुखद अंत का बहुत मार्मिक चित्रण इन ढाढी गीतों में हैI वे शारदा पीठ की बात करते हुए कहते हैं इस सबके बावजूद वहां की श्रुति प्रथा इतनी मजबूत थी कि जब गुरु नानक के ज्येष्ठ पुत्र लक्ष्मीचंद घर से अध्ययन हेतु कश्मीर के शारदा पीठ गए तो उन्हें परम ज्ञान की प्राप्ति हुई। जब ढाढी अपनी भाव भरी आवाज में गाना गाते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह परंपरा अनेक क्षेत्रों में अलग-अलग नाम से है।
इस प्रकार की जानकारी जो हमारे वांग्मय में लोकगीत, लोक कथाओं, लोक श्रुति में है, लेकिन उनका अध्ययन किए जाने की और अभिलेख में लाने की आवश्यकता है। अनेक विश्वविद्यालयों में अनेक विषयों पर शोध होते रहे हैं परंतु अपनी वास्तविक स्थिति जानने के लिए लोक परंपराओं के अध्ययन के क्षेत्र मैं कार्य नहीं किया गया हैI
आजकल के बच्चों को नानी-दादी ना तो महाभारत, रामायण, भागवत इत्यादि से कहानियां सुनाती हैं, न ही पारिवारिक सामूहिक कथा वाचन अथवा प्रार्थना की परंपरा प्रचलित है, न ही रात में सोते समय घंटों आसमान में तारे देखते हुए बातें करना, पहेलियां बुझाना, ऐतिहासिक छंद की अंत्याक्षरी खेलना ही होता हैI आधुनिक युग में यह सब परंपराएं विलुप्त हो गई हैं। आज का बच्चा प्रकृति से दूर हो गया है, अपनी विरासत से भी बहुत दूर हो गया है और अपनी जड़ों को खो बैठा है। स्वयं की अस्मिता की पहचान अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। अपनी परंपरा का ज्ञान वह जरूरी चीज आज हम खो बैठे हैं, जो समाज अपने इतिहास को याद नहीं रखता है वह इतिहास दोहराने को मजबूर हो जाता है।
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