अतुल कोठारी शिक्षाविद और शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव हैं तथा 2015 में भोपाल में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन की आयोजन समिति के सदस्य तथा माॅरीशस में विश्व हिन्दी सचिवालय के स्थापना दिवस के अवसर पर मुख्य अतिथि रह चुके हैं। शिक्षा संवर्धन के कार्यों हेतु निरंतर प्रयासरत हैं। मातृभाषा के भविष्य के संदर्भ में शिक्षाविद अतुल कोठारी जी से रंजना बिष्ट की बातचीत
आज के समय में मातृभाषा की क्या प्रासंगिकता है आप इसे कैसे देखते हैं ?
मातृभाषा की हमेशा प्रासंगिकता रहेगी। यह कल भी थी आज भी है और आगे भी रहेगी। यह पूर्ण रूप से एक वैज्ञानिक दृष्टि है। भारत एवं वैश्विक स्तर पर जितने भी शोध और अनुसंधान एवं अध्ययन हुए हैं उन सबका निष्कर्ष एक ही है कि शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए। आज मातृभाषाओं की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गयी है चूंकि कई भाषाएं मर गयी हैं और कई मृत्यु के कगार पर खड़ी हैं। जब एक भाषा समाप्त होती है तब मात्र एक भाषा समाप्त नहीं होती उसके साथ उस भाषा की सभ्यता, संस्कृति, परंपराएं यह सब समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार इसकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गयी है।
मातृभाषा का सांस्कृतिक महत्व है इसे आज के संदर्भ में कैसे देखा जाना चाहिए ?
कई बार कहा जाता है कि भाषा संप्रेषण का माध्यम है, यह बात पूर्ण सत्य नहीं हैं यह अर्द्ध सत्य है वास्तव में भाषा संस्कृति की संवाहिका है। किसी भी देश की संस्कृति हो वह भाषा के बिना आगे नहीं बढ़ सकती। इसलिए भाषा और संस्कृति एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं।
आज के दौर में जब अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा बनती जा रही है ऐसे दौर में मातृभाषा का भविष्य क्या होगा ?
अंग्रेजी वैश्विक भाषा बने उसमें कोई आपति नहीं हैं मगर इस कारण से मातृभाषा का महत्व कम नहीं होता है। लेकिन आज जो एक भाषा को दुनिया के ऊपर थोपने का प्रयास चल रहा है वह खतरनाक है क्योकि विविधता में ही दुनिया की सुंदरता है। जब अपनी भाषाओं में कार्य नहीं होगा तब व्यक्ति की सृजनात्मकता, नवाचार और अनुसंधान जो अपनी भाषा में ही संभव हो पाता है उस पर दुष्प्रभाव होगा क्योंकि विज्ञान के अनुसार सृजनात्मकता, नवाचार एव शोध-अनुसंधान अपनी भाषा में ही ठीक प्रकार से होता है।
कैसे मातृभाषा में ही बेहतर सृजन हो सकता है ?
अपनी मातृभाषा में जब आप कोई भी कार्य करते हैं चाहे वह नवाचार हो या अनुसंधान वह बेहतर ढंग से हो पाता है। जिस भाषा को बच्चा अपनी मां के गर्भ से सीखता है वह उसकी सहज भाषा होती है। उसमें समझने के लिए उन्हें अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती है। जब वह किसी दूसरी भाषा में कार्य करता है तो पहले वह अपनी भाषा में सोचता है उसका अनुवाद करता है और फिर वह लिखता या बोलता है जिसमें उनकी दुगना शक्ति खर्च होती है। उसमें मूल तत्व या वास्तविकता की झलक कम मिल पाती है। गांधीजी ने भी कहा था कि हमारे बच्चे स्नातक तथा परास्नातक तक की पढाई करते हैं तब वह कम से कम अपनी जिन्दगी के छः वर्ष अंग्रेजी सीखने में व्यर्थ में बर्बाद करते हैं। छः वर्ष वह अपने विषय के पीछे खर्च करेगें तब वह अपने विषय में कितने आगे बढ़ जाएंगे। इस प्रकार अपनी भाषा में बेहतर सृजन हो सकता है। विदेशी भाषा थोपने से छात्रों की सृजनात्मकता पर गलत प्रभाव पडा है इसका हम अनुभव कर रहे हैं।
विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी को लेकर ज्यादा आकर्षण है और उस पर जोर दिया जाता है ऐसे में मातृभाषाएं कैसे विकसित होंगी ?
अंग्रेजी के प्रति आकर्षण का कारण भी है पिछले लगभग पौने दो सौ वर्ष से देश में विशेष करके शिक्षा क्षेत्र में अंग्रेजी का साम्राज्य चल रहा है इस कारण से बच्चे, अभिभावकों की अंग्रेजी सीखना मजबूरी हो गयी। इस हेतु तीन-चार स्तर पर बदलाव की आवश्यकता है। अभी वर्तमान में हमारी उच्च शिक्षा और विशेषकर व्यावसायिक शिक्षा का माध्यम मात्र अंग्रेजी है। अभिभावक सोचते हैं कि जब हमारे बच्चों को उच्च शिक्षा में अंग्रेजी में ही पढ़ना है तो प्रारंभ से ही उनको अंग्रेजी मीडियम में क्यों न डाला जाए। यह बात तथ्यात्मक दृष्टि से कितनी सत्य है वह दूसरा विषय है। इसी प्रकार प्रतियोगी परिक्षाओं का माध्यम अंग्रेजी है या एक प्रश्न पत्र अंग्रेजी में अनिवार्य होता है। दोनों एक ही बात है। यह दूसरा कारण है। तीसरा कारण देश में न्यायालय से लेकर शासन-प्रशासन का अधिकतर कार्य अंग्रेजी में चल रहा है। यह तीन चार स्तर पर जब तक अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त नहीं होगी तब तक शैक्षिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम का आकर्षण चाहे अभिभावक हो या बच्चों का कम नहीं होगा।
हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 में यह प्रावधान है कि कक्षा-5 तक की प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा/स्थानीय/क्षेत्रीय भाषा में ही बच्चों को दी जाए। संभव है तो कक्षा-8 तक भी मातृभाषा में शिक्षा देने का सुझाव दिया गया है तथा उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध रहेगा। नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह एक अच्छी बात कही गयी है और अभी आईआईटी से लेकर इंजीनियरिंग, मेनेजमेंट की शिक्षा स्थानीय भाषा में देने का भी प्रयास प्रारंभ हो गया है। इस प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषा संबन्धी अनुसंधानों का शिक्षा के सभी स्तर पर समग्रता से क्रियान्वयन के माध्यम से देश में अंग्रेजी का आकर्षण क्रमशः कम होता जाएगा।
मातृभाषा उन्नयन के माध्यम से सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को किस प्रकार चुनौती दी जा सकती है ?
अपनी मातृभाषा को संरक्षण देना उसके संवर्धन की दिशा में प्रयास करना वास्तव में अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है। आज अंग्रेजी के माध्यम से ताकतवर राष्ट्र विकासशील देशों पर अपनी संस्कृति और मूल्यों को थोपने का प्रयास कर रहें हैं। ऐसे समय में मातृभाषाओं के संवर्धन एवं सशक्तिकरण की दिशा में किए जा रहे प्रयास सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के आधिपत्य के लिए एक बडी चुनौती साबित हो सकता है।
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