जगदीश भसीन
मंडी बहावली, गुजरात, पाकिस्तान
1947 में मैं 11 साल का था और पांचवीं में पढ़ रहा था। मेरे घर के पास ही संघ की शाखा लगती थी। मैं सायं शाखा में जाता था। 14 अगस्त, 1947 से ही कत्लेआम शुरू हो गया। नरसंहार होने लगा। मुसलमानों ने हमारे कुओं में जहर डालना शुरू कर दिया। यही नहीं, फसलों में भी जहर डाल दिया।
‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे के साथ हिंदुओं के घरों को लूटा जाने लगा। हमारे परिवार के लोग सेना में थे। उन्होंने हमारे लिए बस भेजी, ताकि हम लोग उस पर सामान रखकर निकल सकें। हम लोग रेलवे स्टेशन पहुंचे और रेलगाड़ी से गुजरांवाला गए।
देर रात गाड़ी पर हमला हुआ। जो मिला उसी को मार दिया गया। हम लोग दुबके रहे। डर से कुछ बोला भी नहीं जा रहा था। इसी बीच कुछ सुरक्षाकर्मी आए और उन्होंने हमारी जान बचाई। रातभर गाड़ी वहीं खड़ी रही। लोग शवों के साथ और खून से लथपथ होकर अंदर बैठे रहे और बाहर सेना के जवान खड़े थे। दूसरे दिन सुबह 10 बजे 20 सैनिकों की सुरक्षा में हमारी गाड़ी चली और लाहौर पहुंची।
लाहौर में भी वही स्थिति थी, लेकिन सैनिकों के कारण मुसलमान हमला नहीं कर सके। गाड़ी लाहौर से शाम को 4 बजे चली और हम करतारपुर पहुंचे। करतारपुर में जीटी रोड के किनारे एक स्कूल था, उसी में हम लोगों को ठहराया गया। दूसरे दिन हम लोगों को अंबाला भेज दिया गया।
हमारे बड़े भाई बैंक में प्रबंधक थे। भारत आने पर उनकी नौकरी लग गई। उनको प्रतिदिन 3 रुपए मिलते थे। फिर पिताजी भी कुछ काम करने लगे। धीरे-धीरे परिस्थितियों से तालमेल बैठा और परिवार संभला।
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