पुरुषोत्तम लाल मेहता
सौवाल, झेलम, पाकिस्तान
दरअसल भारत विभाजन का घाव इतना गहरा है कि आज भी दर्द महसूस होता है। उस समय मेरे परिवार में कुल 14 सदस्य थे और 11 को मुसलमानों ने मार दिया। मैं, तीन साल की मेरी चचेरी बहन और मेरे पिताजी ही बचे थे। मैं साढ़े 10 साल का था। भारत विभाजन के बाद हम लोगों को इतना प्रताड़ित किया गया कि वहां से पलायन करना पड़ा।
हम सभी पिंड दादनखान में 23 सितंबर, 1947 को एक मालगाड़ी में बैठे। शाम को हमारी गाड़ी कामुकी मंडी पहुंची। यह मंडी लाहौर और गुजरांवाला के बीच है। कुछ देर में पुलिस आई और कहने लगी, ‘‘जिनके पास भी हथियार हैं, वे जमा करा दें, क्योंकि उन्हें भारत नहीं ले जा सकते।’’
यह उनकी चाल थी। यह सब जानते हुए भी हिंदुओं ने अपने हथियार उन्हें दे दिए। इसके बाद 24 सितंबर की तड़के सैकड़ों मुसलमान आए और कहने लगे, महंगे सामान और पैसे जमा कर दो, नहीं तो सभी मारे जाओगे। फिर उन लोगों ने जवान लड़कियों और महिलाओं को उतार लिया।
इन सबके बाद मुसलमान हर डिब्बे में तलवारों के साथ घुस गए और एक तरफ से हिंदुओं को काटना शुरू कर दिया। गाड़ी में 40 डिब्बे थे और हर डिब्बा खचाखच भरा हुआ था। अनुमान है कि गाड़ी में 6,000 हिंदू थे। इनमें लगभग 500 हिंदू ही बचे, लेकिन सभी घायल। मेरी आंखों के सामने ही मेरी मां, चाचा और अन्य संबंधियों को मार दिया गया। जब एक मुसलमान ने मेरे चाचा पर हमला किया तो उन्होंने मुझे अपने नीचे दबा लिया। उन्हें तलवार से काट दिया गया। वे 45 साल के थे। चाचा पर हमले के दौरान मेरी गर्दन और अंगुलियों पर तलवार की नोक लगी। उसके निशान आज भी हैं। मैं डर के मारे शवों के साथ दुबक गया।
यह मारकाट देर तक चली। इसी दौरान हिंदू सेना, जो पाकिस्तान से भारत लौट रही थी, की नजर हमारी गाड़ी पर पड़ी। उन्होंने हमलावरों को भगाया और घायलों को गुजरांवाला के एक अस्पताल में भर्ती कराया। अस्पताल में सभी डॉक्टर मुसलमान थे। हिंदू सेना ने चिकित्सकों को धमकाते हुए कहा कि यदि कोई घायल मरा तो तुम लोग भी नहीं बचोगे। इसके बाद उन्होंने घायलों का ठीक से इलाज किया। गुजरांवाला में हम लोग करीब 15 दिन रहे। उस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने हम लोगों की बड़ी मदद की। उन्होंने खाने और ठहरने की व्यवस्था की और उन्हीं की देखरेख में हम भारत आने के लिए दोबारा गाड़ी में बैठे।
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