1947 : टीस और सीख
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होम भारत

1947 : टीस और सीख

भारतीय स्वतंत्रता की कहानी और अंतत: मातृभूमि का विभाजन यानी हिन्दू नर संहार का वह सबसे बड़ा मुकदमा जिसकी सुनवाई तो छोड़िए, जिसे इतिहास में ठीक से दर्ज भी नहीं किया गया। पाञ्चजन्य का यह विशेषांक केवल वर्तमान की घटनाओं से प्रेरित नहीं है। यह 1947 में हुए विभाजन की विभीषिका में झांकने का अवसर देने वाली दरार है, जो न केवल अतीत का स्पष्ट झलक देती है, बल्कि इस निरंतर प्रक्रिया के बारे में चेतावनी भी देती है

by हितेश शंकर
Aug 15, 2022, 07:12 pm IST
in भारत, सम्पादकीय
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पाकिस्तान और बांग्लादेश वे देश हैं जिन्हें इस्लाम के नाम पर भारत से अलग किया गया है। और जो बात ऊपर कही गई है, उसे वह वहां पूरा कर चुके हैं। वहां हिंदू अल्पसंख्यकों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए शून्य अधिकार हैं; जीवन की, आत्मसम्मान की सुरक्षा शून्य है, और कट्टरपंथी इस्लाम के सतत दबाव में उनकी कोई सुनवाई तक नहीं है। उसे ‘सामान्य’ मानकर पेश किया जाता है।

भारत के विभाजन का पुनरावलोकन करें, तो कुछ ऐसे तथ्य सामने आते हैं, जिन्हें-

  •  कभी सामने नहीं आने दिया गया
  • सामने आए, तो दबा-छिपा दिया गया और
  • फिर भी बात नहीं बनी, तो सिरे से खारिज ही कर दिया गया। यह तथ्य भारत भूमि के साथ, यहां की संस्कृति और यहां के धरतीपुत्र हिन्दुओं के साथ सदियों से होते आ रहे ऐसे अन्याय और अत्याचारों से संबंधित हैं, जिनकी चीख तक को उठने अवसर नहीं दिया गया।

अफगानिस्तान, पाकिस्तान और पहले पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश के इतिहास को देखें। सब भारत से ही अलग हुए हैं, और एक ही बहाने से अलग हुए हैं।

प्रथम दृष्टि में ही स्पष्ट हो जाता है कि भारत से विभाजन की मांग या उसकी मुहिम का सार केवल यह था कि इन्हें ऐसा निजाम चाहिए था, जिसमें हिंदुओं और हिंदू अतीत के नरसंहार को किसी समाज, व्यक्ति या कानून के प्रतिरोध का सामना न करना पड़े।
‘सीधी कार्रवाई’ का और क्या अर्थ था? अलग पाकिस्तान की मांग का मुख्य वैचारिक आधार क्या था?

पाकिस्तान और बांग्लादेश वे देश हैं जिन्हें इस्लाम के नाम पर भारत से अलग किया गया है। और जो बात ऊपर कही गई है, उसे वह वहां पूरा कर चुके हैं। वहां हिंदू अल्पसंख्यकों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए शून्य अधिकार हैं; जीवन की, आत्मसम्मान की सुरक्षा शून्य है, और कट्टरपंथी इस्लाम के सतत दबाव में उनकी कोई सुनवाई तक नहीं है। उसे ‘सामान्य’ मानकर पेश किया जाता है।

पाञ्चजन्य का यह विशेषांक केवल वर्तमान की घटनाओं से प्रेरित नहीं है। यह 1947 में हुए विभाजन की विभीषिका में झांकने का अवसर देने वाली दरार है, जो न केवल अतीत की स्पष्ट झलक देती है, बल्कि इस निरंतर प्रक्रिया के बारे में चेतावनी भी देती है।

हाल की घटनाओं में से एक उदाहरण विभाजन के इस यथार्थ को समझने के लिए काफी है। भारत सरकार ने पड़ोसी देशों के लगभग 4300 उत्पीड़ित और वंचित हिंदुओं-सिखों को नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान किया। वहां यह सारे लोग अमानवीय स्थितियों का सामना कर रहे हैं। पाकिस्तान में, उनके घरों और पूरी कॉलोनियों को जला दिया जाता है, उनकी महिलाओं और लड़कियों का सरे आम अपहरण और बलात्कार किया जाता है, सार्वजनिक रूप से अन्य अत्याचार किए जाते हैं, सरकार और जनता न केवल मूक-मुखर समर्थ देती है, बल्कि मुसलमानों को इन क्रूर कृत्यों के लिए अधिकृत कर देती है।

पूर्व की दिशा में उनकी संपत्तियां छीन ली जाती हैं, उनकी दुकानें और व्यापारिक स्थान जला दिए जाते हैं, मंदिरों का विध्वंस और हत्या-बलात्कार तो पुन: सामान्य बात ही होती है। अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों को संसद में एक भी सीट देने की आवश्यकता भी महसूस नहीं की जाती है। बाकी जो है, वह सभी के सामने है।

पाकिस्तान से हजारों लुटे-पिटे हिन्दू-सिख शरणार्थियों को लेकर आती थीं रेल गाड़िया। सैकड़ों रास्ते में ही कत्ल कर दिए जाते थे। (फाइल फोटो)

आजादी के अमृत महोत्सव के इस दौर में भी जब हम ‘विखंडनकारी शक्तियोंं’ का सामना करते हैं, तो जाहिर है, हमसे इतिहास पढ़ने में, समझने में जरूर कोई चूक हुई होगी। हमें इतिहास से सीख लेने की भी आवश्यकता है, लेकिन इतिहास तो हम में से कई लोगों ने पढ़ा है, और कई पढ़ भी रहे हैं, लेकिन जब हम इस पढ़े और पढ़ाए गए इतिहास पर दृष्टि डालते हैं, तो वह एक किसी मसालेदार कहानी की तरह प्रतीत होता है, जिसका आदि- अंत सब बहुत कुछ पूवार्नुमानित होता है।

विडंबना का एक अन्य पहलू अंग्रेजों की, साम्राज्यवादियों की और उनके औरस-अनौरस उत्तराधिकारियों की भूमिका का है। आज भले ही पूरा भारतीय उपमहाद्वीप मुस्लिम आतंकवाद का सामना कर रहा हो, भले ही उसका असर पूरे विश्व को भोगना पड़ रहा हो, लेकिन इन साम्राज्यवादियों की करतूतों के कारण खुद इस उपमहाद्वीप की पीड़ा विश्व के चिंतन पटल से गायब नजर आती है। उल्टा उसे संरक्षण देने के लिए पश्चिम में हिन्दुओं के प्रति अनर्गल प्रलाप किया जाता है। आप देखें कि कश्मीर और रोहिंग्या जैसे तथाकथित और गैर-मुद्दे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मुद्दे बन जाते हैं, लेकिन पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं और सिखों के दुर्भाग्य को सिरे से दरकिनार कर दिया जाता है।

तीसरी विडंबना यह कि भारत के विभाजन की कथा किसी मानचित्र में परिवर्तन कर देने की कहानी नहीं है। यह भारत माता को चीरने की कहानी है। भारत माता की कल्पना करें, और फिर विचार करें कि किसने रची यह साजिश? इसमें कौन-कौन शामिल था? चीरने की इस प्रक्रिया में किसका रक्त बहा? किसने रक्त दिया? किसने घाव दिए? किसने दवा और सांत्वना दी? बहुत लंबी कहानी है।
और एक प्रश्न- अब कहां है वे लोग? घाव देने वाले भी और घाव झेलने वाले भी।

वास्तव में भारत का स्वाधीनता संग्राम अपने आपमें विश्व इतिहास का एक अप्रतिम युग है। इतने बलिदानों, इतने संघर्षों और इतने कुचक्रों की गाथा विश्व इतिहास में कहीं और नहीं मिलती। इस अप्रतिमता को लिपिबद्ध कर सकना, या किसी एक अंक अथवा पुस्तक में समेट सकना शायद संभव ही न हो। भारत को पुण्य भूमि यूं ही नहीं कहा जाता है। यहां का कण-कण उन बलिदानियों के रक्त से पुष्ट हुआ है, जो इस धरती को अपनी माता मानकर जिए और मरे। इस पुण्य भूमि को, उसमें निहित पुण्य को सिर्फ महसूस किया जा सकता है।

यह पुस्तक इस आभास के पास ले जाने का एक बहुत संक्षिप्त प्रयास है। संक्षिप्त इसलिए, क्योंकि स्वतंत्रता की गाथा बहुत-बहुत विशाल है।
इसी कारण, यह इतिहास नहीं है। लेकिन इतिहास पर दृष्टिपात करने वाला विशेषांक है। इतिहास अपने को दोहराता है, लेकिन सिर्फ उस स्थिति में, जब उसे देखा, समझा, पढ़ा और बताया न जाए।

1947 में हुए विभाजन की विभीषिका से लेकर ‘विखंडनकारी ताकतों’ (Breaking India Forces) का सामना करते हुए, भारत को जिस चुनौती का सामना करना पड़ता आ रहा है, ऐसा लगता है कि वह आज भी उसी तरह है, जैसे अतीत में थी। इस पुस्तक में इस पक्ष को काफी खोजबीन कर प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है।

आजादी के अमृत महोत्सव के इस दौर में भी जब हम ‘विखंडनकारी शक्तियोंं’ का सामना करते हैं, तो जाहिर है, हमसे इतिहास पढ़ने में, समझने में जरूर कोई चूक हुई होगी। हमें इतिहास से सीख लेने की भी आवश्यकता है, लेकिन इतिहास तो हम में से कई लोगों ने पढ़ा है, और कई पढ़ भी रहे हैं, लेकिन जब हम इस पढ़े और पढ़ाए गए इतिहास पर दृष्टि डालते हैं, तो वह एक किसी मसालेदार कहानी की तरह प्रतीत होता है, जिसका आदि- अंत सब बहुत कुछ पूवार्नुमानित होता है। ऐसे में इससे क्या सीख लें?
इतिहास तथ्यों पर होना चाहिए, कथानकों पर नहीं।

भारत विरोधियों की एक सबसे बड़ी शक्ति है- कथानकों को इतिहास बनाकर पेश करना। और भारत के स्वाधीनता आंदोलन के अति व्यापक इतिहास को अगर इसी प्रकार कथानकों के तौर पर पढ़ा-समझा जाता रहा, तो इससे उन्हीं का वही कार्य सिद्ध होता जाएगा, जो संभवत: 100 वर्षों से भी अधिक समय से चलता आ रहा है।

इसलिए हमने निर्णय लिया है कि इतिहास के उन पक्षों को, साक्ष्यों-प्रमाणों सहित सामने रखा जाए, जिन्हें आज तक दबाया जाता रहा है।
कार्य श्रम-साध्य है, लेकिन विभाजन की विभीषिका को समग्रता में समझने और पाठकों के सामने लाने के लिए आवश्यक है। यह अन्वेषण न तो पहली बार हो रहा है, न अंतिम बार। यह एक सतत प्रक्रिया है।
चैरेवति-चैरेवति.. यह विशेषांक इसी दिशा में एक कदम है

@hiteshshankar

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