यह बात कहने और सुनने में कुछ अजीब लग सकती है, परन्तु यह सत्य है कि जब आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, उस समय हम अपने उस विमर्श के लिए तरस रहे हैं, जो भारत का हो, जिसमें भारत की सांस हो, भारत का स्पंदन हो, भारत की पहचान हो कहा जा सकता है कि आज भारत में हर प्रकार का विमर्श अपने सम्पूर्ण रूप में उपस्थित है, परन्तु फिर भी कहीं न कहीं विमर्श की वह धारा अदृश्य है जो भारतीय स्त्रियों की बात भारतीय दृष्टि से करती है।
जब भी हम भारतीय स्त्रियों की बात करते हैं, तो या तो वेदों की स्त्रियों की बात करते हैं, या फिर सावित्री बाई फुले के बाद की स्त्रियों की और एक ऐसा विमर्श उत्पन्न हो जाता है कि बीच में खंड में स्त्रियों की विशेष पहचान थी ही नहीं। और जो कथित क्रांति आई वह या तो वामपंथी स्त्री विमर्श के साथ आई या फिर समाजवादी स्त्री विमर्श के साथ आई।
पहले जानते हैं कि पश्चिम के जिस फेमिनिज्म की बात यहाँ पर कथित फेमिनिस्ट करती हैं, उसकी कई लहरें क्या हैं? कहते हैं, पहली लहर का फेमिनिज्म, दूसरी और फिर तीसरी लहर का फेमिनिज्म! फेमिनिज्म की पहली लहर पश्चिम में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध या बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आरम्भ हुई। यह एक ऐसे वातावरण से उभरी थी, जो शहरी औद्योगीकरण एवं उदारवादी और समाजवादी राजनीति से उपजा था। इस लहर का उद्देश्य था कि महिलाओं के लिए अवसरों की खोज करना। औपचारिक रूप से इस लहर का आरंभ 1848 में सेनेका फॉल कन्वेंशन से माना जाता है।
उसके बाद दूसरी लहर का आरम्भ 1960 से माना जाता है जो 1990 तक रही, जिसमे नए वाम का उदय हुआ और इस चरण में यौनिकता एवं प्रजनन अधिकार अर्थात देह से सम्बन्धित अधिकार महत्वपूर्ण रहे और उसके बाद तीसरी लहर नब्बे के दशक के बाद आरम्भ हुई। भारत में वामपंथी फेमिनिज्म भी भारत की महिलाओं को उसी दृष्टि से देखता है, और उसका कहना है कि यदि पश्चिम से फेमिनिज्म नहीं आता तो भारतीय महिलाओं के पास कोई अधिकार नहीं होते। उनके पास संपत्ति का अधिकार नहीं होता आदि आदि! परन्तु क्या वास्तव में ऐसा है? क्या वास्तव में ही वर्ष 1848 के बाद से ही भारत में महिलाओं के बीच चेतना आरम्भ हुई? या इतिहास कुछ और ही कहता है, या फिर विमर्श ही हमारा यहीं तक रह गया है?
क्या भारत में वास्तव में ऐसा था कि महिलाओं के लिए शिक्षा नहीं थी? और क्या पश्चिम की स्थितियों की तुलना उस भारत से की जा सकती है, जो उस समय अपने धर्म और देश की रक्षा की लड़ाई लड़ रहा था? महिलाओं के लिए उस समय व्यक्तिगत से अधिक अपना देश अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि देश से बढ़कर कुछ नहीं होता है। उनके लिए जन्मभूमि ही सर्वस्व थी। उनके लिए परिवार, राष्ट्र दोनों ही महत्वपूर्ण थे। ऐसे में देखना होगा कि क्या भारतीय महिलाओं की उपलब्धियों को इस पहली दूसरी या तीसरी लहर की दृष्टि में देखना चाहिए?
भारत में महिलाओं की उपलब्धियां कभी भी पश्चिम के फेमिनिज्म के आईने से नहीं देखी जा सकती हैं क्योंकि जब वह 1848 में अपने लिए अधिकारों के लिए लड़ाई कर रही थीं, उस समय भारत में महिलाएं अंग्रेजों के अत्याचारों से पीड़ित थीं, क्योंकि उनका देश और उनके परिवार के पुरुष पीड़ित थे और यही कारण है कि वह उनका विरोध कर रही थीं, परन्तु यह विरोध इसलिए नहीं था कि उनके लिए समान अवसर किए जाएं, क्योंकि भारत में महिलाओं के लिए समान अवसर ही रहे थे, और महिलाओं की शिक्षा के विषय में धर्मपाल ने ब्यूटीफुल ट्री में भी लिखा है और उन्होंने Dr Buchanan के अनुभव से कही गयी है। उसमें लिखा है कि
“Dr Buchanan heard of about 450 of them, but they seemed to be chiefly confined to the Hindoo divisions of the district, and they are held in very low estimation।There is also a class of persons who profess to treat sores, but they are totally illiterate and destitute of science, nor do they perform any operation।They deal chiefly in oils।The only practitioner in surgery was an old woman, who had become reputed for extracting the stone from the bladder, which she performed after the manner of the ancients”
अर्थात Dr Buchanan ने एक ऐसी बूढ़ी महिला को गॉल ब्लेडर की पथरी की सर्जरी करते हुए देखा जो प्राचीन चिकित्सा से सर्जरी कर रही थी और पथरियों को निकाल रही थीं!
यही नहीं उससे कई वर्ष पूर्व अर्थशास्त्र में कौटिल्य भी महिला श्रमिकों के लिए कई प्रकार के अधिकारों की बात कर चुके थे। इतना पीछे न जाते हुए भक्ति काल से ही देखें तो मीराबाई, सहजोबाई, प्रतापकुंवरी बाई, उमा आदि ऐसी महिलाऐं इतिहास में हैं जिन्होनें लेखन को चुना और उस समय समाज में आध्यात्मिकता की आवश्यकता थी तो वह वह उसी धारा में रहीं। इतना ही नहीं अक्क महादेवी तो संन्यास के उपरांत निर्वस्त्र ही रहीं, शिव आराधना करती रहीं। अर्थात इतनी स्वतंत्रता भारत में स्त्रियों को थी। मुग़ल काल में भी ऐसी न जाने कितनी स्त्रियाँ थीं, जिन्होंने सिर न झुकाते हुए मुगलों से लोहा लिया एवं अपनी वीरता तथा शासन की क्षमताओं का लोहा मनवाया, फिर ऐसा क्या बात है कि यह सब विमर्श से बाहर हैं और अकादमिक में ऐसा कहा जाता है कि यदि वामपंथी फेमिनिज्म नहीं आता तो महिलाओं का इतिहास नहीं होता!
यही नहीं जब वहां पर कथित समान अधिकारों के लिए आन्दोलन हो रहे थे, उस समय जो स्त्रियाँ अंग्रेजों से लोहा ले रही थीं, उनकी वाम विमर्श में चर्चा भी नहीं होती है, जैसे झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, सन्यासी विद्रोह की नेता देवी चौधरानी, कित्तूर की रानी चेनम्मा, शिवगंगा की विद्रोही वीरांगना वेलुनाचियार, रानी तुलसीपुर, रानी अवंतिबाई लोधी। झलकारी बाई आदि! इतना ही नहीं 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अकेले मुजफ्फरनगर में ही 255 महिलाओं के बलिदान का रिकॉर्ड प्राप्त होता है। न जाने कितनी स्त्रियों ने अपना बलिदान दिया था, न जाने कितनी स्त्रियाँ जीवन भर यातनाएं सहती रहीं, न जाने कितनी स्त्रियाँ विमर्श से बाहर रखी जाती रहीं और स्वतंत्रता संग्राम में तो जब स्त्रियों ने सक्रिय भाग लिया तब तो न जाने कितने नाम हैं, जिन्हें लिया जा सकता है। परन्तु स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की सक्रियता का काल वही था, जिसके विषय में यह दावा किया जाता है कि स्वतंत्रता को समझने की चेतना उनमें उस पश्चिम के फेमिनिज्म से आई जो समानता की बात कर रहा था, अत: स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली महिलाएं वामपंथी समानता के चलते ही घर से निकल पाईं!
परन्तु वह यह नहीं बताती कि जब 1857 का विद्रोह दबा दिया था, परन्तु असंतोष नहीं तो उस समय के बाद भी ननी बाला देवी, टुकड़ी बाला देवी, आदि महिलाओं में चेतना किसकी देन थी? दरअसल भारत में स्त्रियों में चेतना किसी बाहरी तत्व की मोहताज नहीं है, बल्कि यह स्वत:स्फूर्त है, यह युगों-युगों से यात्रा करते हुए आई है। यह वेदों में ऋषिकाओं से यात्रा कर रही हैं, जो समय समय पर आवश्यकतानुसार समाज को समृद्ध करती रहती है।
आजादी के अमृत महोत्सव पर आवश्यकता है उसी चेतना को स्मरण करने का, शकुन्तला जैसी स्त्रियों का, जिन्होनें अकेले ही अपने पुत्र को सर्वदमन बनाया, जिनका एक और नाम भरत था, जिनके नाम पर आज हम सभी भारतवासी हैं। उसी सामर्थ्य को स्मरण करने का दिन है, सदियों की संचित चेतना को विमर्श में लाने का समय है!
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