कश्मीर को फिर से प्राचीन कश्मीर बनाने की तमाम कोशिशें राजनीतिक स्तर पर हुईं। यह कश्मीर और कश्मीरियत क्या है? क्यों यहां के निवासी केवल पंडित शब्द से संबोधित होते हैं? क्या यहां पंडित (एक वर्ण) को छोड़कर दूसरे वर्णों के लोग नहीं रहते थे? इन स्वाभाविक जिज्ञासाओं पर यदि हम गहराई से विचार करें तो सब कुछ झलमल-सा स्पष्ट हो जाएगा।
कश्मीर के साथ कश्मीरी पंडितों का नाम अपृथक भाव से जुड़ा है। कश्मीर की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना के साथ जुड़ी रही यह पांडित्य परंपरा ज्ञात और लिखित इतिहास से भी बहुत पहले तक जाती है। उन्हीं कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की त्रासदी पर पूरा विश्व चिंतित हो उठा। भारतीय लोकतंत्र के माथे पर भी चिंता की लकीरें उभरना स्वाभाविक था।
कश्मीर को फिर से प्राचीन कश्मीर बनाने की तमाम कोशिशें राजनीतिक स्तर पर हुईं। यह कश्मीर और कश्मीरियत क्या है? क्यों यहां के निवासी केवल पंडित शब्द से संबोधित होते हैं? क्या यहां पंडित (एक वर्ण) को छोड़कर दूसरे वर्णों के लोग नहीं रहते थे? इन स्वाभाविक जिज्ञासाओं पर यदि हम गहराई से विचार करें तो सब कुछ झलमल-सा स्पष्ट हो जाएगा।
काशी को ज्ञान की नगरी मानते हैं। इस ज्ञान की परंपरा को काशी की पांडित्य परंपरा नाम से भी संबोधित करते हैं। पंडित का शाब्दिक अर्थ ही ज्ञान के साथ जुड़ा हुआ है। पंडित यानी ज्ञाता। प्राचीन काल से ही काशी और कश्मीर दोनों ही अपनी ज्ञान परंपरा के लिए विश्वविख्यात थे। अपने ज्ञान को प्रमाणित करने और पुष्ट करने के लिए भारत के हर कोने से विद्वान, तपस्वी ,संत, कलावंत सभी काशी अवश्य आते थे। शंकराचार्य आए, बुद्ध आए, जैन गुरु आए तो अन्य बड़े-बड़े विचारक और साधक भी काशी से सनद लिए बिना विद्वान न कहला सके। जाति, वर्ग से ऊपर उठकर काशी ज्ञान और शिक्षा की अद्भुत नगरी बन गई। काशी के समकक्ष ही कश्मीर भी अपने ज्ञान परंपरा के कारण पुरातन काल से विख्यात था।
आज भी काशी और अन्य स्थानों पर अपने बच्चों के यज्ञोपवीत और अक्षर ज्ञान समारोह के अवसर पर प्रतीक रूप में कश्मीर की दिशा में सात कदम चलने का एक अनुष्ठान होता है। इसका यही तात्पर्य है कि काशी की ज्ञान परंपरा कश्मीर तक पहुंचे बिना अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं कर सकती। क्योंकि कश्मीर भारतीयों की ज्ञान, आस्था और शिक्षा तथा दर्शन की उद्गम स्थली है। शैव दर्शन कश्मीर की आत्मा है।
स्वयं अलबरूनी ने लिखा है, ‘‘कश्मीर हिंदू विद्वानों की सबसे बड़ी पाठशाला है।’’ यह भी कहा जाता है कि मुगल राजकुमार मुहम्मद दारा शिकोह भी कश्मीर में संस्कृत पढ़ने आया था। खैर, तथ्य जो भी हो, इतना तो निर्विवाद है कि विश्व के तमाम देशों से लोग भारत में कश्मीर के शिक्षा केंद्रों में संस्कृत सीखने आते थे और अधिकांश कश्मीर की घाटी की जलवायु और प्राकृतिक दृश्यों से अभिभूत होकर प्राय: यहीं के होकर रह जाते थे। विश्व प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ ‘राज तरंगिणी’ भारत के धर्म दर्शन और सांस्कृतिक एकात्मता का हजारों वर्ष पुराना प्रामाणिक इतिहास ग्रंथ है।
विश्व के इतिहास में इस दृष्टि से यह ग्रंथ एक कीर्तिमान स्थापित करता है कि इस ग्रंथ में शताब्दियों तक एक के बाद एक कई लेखकों ने कश्मीर के क्रमिक घटनाक्रम को लिखा है। यह ग्रंथ प्रमाण है कि अनेक शताब्दियों तक इस वीरभूमि के सपूतों ने विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों को अपने शौर्य के बल पर रोका है। कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ ग्रंथ में गोनन्द नाम के कश्मीरी सम्राट का उल्लेख किया है और यही कालखंड महाराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का भी है। यानी कश्मीर का ज्ञात इतिहास महाभारत के समय के साथ चलता है। कश्मीर की घाटी में शंकराचार्य मंदिर का अस्त-व्यस्त स्वरूप आज भी प्राचीन इतिहास की कहानी कहता है। तो, काशी की तरह ही कश्मीर में भी सभी क्षेत्रों और वर्गों के लोग आकर बसे थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी थे कश्मीर में।
कश्मीर के क्षत्रिय नामों के साथ आदित्य शब्द जुड़ा रहता था। लोहर, डामर, राठौर, ठाकुर आदि उपनामों से अथवा उनके गोत्र नामों से भी इनकी पहचान थी। कश्मीर में व्यापारी वर्ग भी था और वातल आदि शूद्र वर्ण के लोग भी थे। परंतु कश्मीर की बात आते ही केवल कश्मीरी पंडित ही क्यों कहा जाता है? यह प्रश्न जितना गहरा है, उतना ही कश्मीर की उदात्त सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान से जुड़ा हुआ भी है। कश्मीर प्रारंभ से ही विद्वानों की भूमि रही है। ऋषि-मुनियों, मठों ,मंदिरों और आध्यात्मिक केंद्रों ने इस भूमि का परिमार्जन किया और दिग्विजयी विद्वान पैदा किए।
कश्मीरियत का यह एक अत्यंत गौरवशाली पक्ष है कि इसने छोटे-बड़े, वनवासी, नगरवासी सभी को एक समान ज्ञान का अधिकारी माना और जाति वर्ग से ऊपर उठकर सभी को पंडित अर्थात् ज्ञान बांटने और ज्ञान पाने का अधिकारी मानकर समाज को एकरस कर दिया। सभी को पंडित बनने का अधिकार था कश्मीर की भूमि पर, इसलिए यह भूमि धरती का स्वर्ग कहलाई। शैव दर्शन जैसे ज्ञान के उद्गम स्थल कश्मीर की जातीय पहचान ही पंडित हो गई। कश्मीरी लोग ही पंडित हो गए। कश्मीर की पहचान हो गए कश्मीरी पंडित।
पंडित शब्द कश्मीरियत जिसे भारतीयता भी कह सकते हैं, का पर्याय बन गया जिसने हजारों वर्षों से पूरे विश्व को ज्ञान दिया और अपने दर्शन की ओर आकृष्ट किया। सभी वर्णों को ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित करने वाली भूमि है कश्मीर। कश्मीर में जितने भी भवनों के ध्वंसावशेष या भग्नावशेष मिलते हैं उन सब के नाम हिंदू देवस्थान हैं, यथा- शारदा तीर्थ, त्रिपुरेश्वर, शिवभूतेश्वर, सिद्ध पद, पंचाल धर आदि। कश्मीर की पर्वत शृंखलाओं के नाम भी इसके इतिहास का प्रमाण हैं, यथा- हर मुकुट, ब्रह्म शिखर, नाग पर्वत, महादेव पर्वत, शिवालिक शृंखलाएं। सभी शिव से जुड़े संस्कृत नाम। ‘राजतरंगिणी’ में उत्तर गंगा का नाम आता है, जिसके पास प्राचीन तीर्थ स्थल नंदी क्षेत्र जो आज नंद कोट के नाम से पहचाना जाता है, स्थित है। पास ही कनक वाहिनी नदी जो आज की कनकई नदी और वैदिक नदी वितस्ता जो आज झेलम नाम से विख्यात है, कश्मीर की पहचान हैं।
काशी को भगवान शिव की नगरी मानते हैं और कश्मीर शैव दर्शन का उद्गम स्थल है। यहां के 90 प्रतिशत लोग शिव के उपासक हैं। शिव परिवार की अवधारणा में अन्नपूर्णा मां की तरह पूरी प्रकृति में प्राणियों के सम्पोषण का दायित्व संभालती हैं तो गणेश गण के नायक हैं और युद्ध की स्थिति कार्तिकेय संभालते हैं। कृषि प्रधान राष्ट्र का आधार गोवंश अर्थात वृषभ है और धरती को उर्वर और शस्य-श्यामला बनाने वाली गंगा शिव की जटा में विराजती हैं। शिव ध्यानस्थ हैं। योग मुद्रा में हैं। अर्थात् कश्मीर की भूमि पर पैदा हुआ शैव दर्शन धरती पर प्राणियों के जीवन जीने का दर्शन देता है। ज्ञान बांटने के कारण कश्मीर और काशी दोनों पांडित्य परंपरा से जुड़े और शिक्षा तथा ज्ञान का केंद्र बने। इसी ज्ञाननिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ कश्मीरियत को सीने से लगाए ये कश्मीरी पंडित स्वाभिमान के साथ संघर्ष करते हुए अपने धर्म और धरती से जुड़े रहे हैं। आतंकी घटनाएं उनका मनोबल तोड़ने के लिए बार-बार सिर उठाती रही हैं परंतु कश्मीर में तैनात हमारी सेना के जवान अपने जीवन की बाजी लगा कर भी उन आतंकियों का फन कुचलते रहते हैं। माता सती के देश कश्मीर और कश्मीरियत को सुरक्षित रखने के लिए कश्मीरी पंडितों का स्वाभिमान सुरक्षित रखना सरकारों की प्राथमिकता होनी चाहिए।
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं)
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