पं. जवाहर लाल नेहरू ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ न केवल छल-कपट किया वरन उन्हें गुमनाम जीवन गुजारने के लिए भी मजबूर किया और उनके जीवन को एक पहेली बना दिया। यह दावा महान स्वतंत्रता सेनानी एवं स्वतंत्र भारत में गुमनाम जीवन गुजारने वाली सरस्वती राजामणि की आत्मकथा ‘हार नहीं मानूंगी’ में किया गया है। राजामणि का स्वर्गवास 13 जनवरी, 2018 को हुआ था और यह आत्मकथा उन दिनों एक प्रसिद्ध समाचार पत्र में सारांश रूप में प्रकाशित हुई। इसके बाद इसे पुस्तक रूप में आर्यखंड टेलीविजन प्राइवेट लिमिटेड ने आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित किया है। 176 पन्नों में सिमटी इस आत्मकथा में आजाद हिन्द फौज के अत्यंत दुर्लभ चित्र भी हैं और आजादी के इतिहास की अनेक दुर्लभ जानकारी है। इसकी कीमत 150 रुपये है।
राजामणि ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब वे स्थायी रूप से भारत में बसने के लिए आई तो कांग्रेस सरकार ने उनके सारे सामान को जब्त कर लिया, जिनमें नेताजी के हस्तलिखित पत्र भी थे। सरकार यहीं तक नहीं रुकी, उन्होंने मेरी जासूसी तक करवाई और जब मैं अपनी व्यथा सुनाने दिल्ली पहुंची तो नेहरू जी ने मिलने से इनकार कर दिया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने न केवल मेरी बात सुनी, वरन मुझे 5000 रुपये भी दिए, ताकि मैं कहीं किराए का मकान ले सकूं।
राजामणि को नेताजी ने सरस्वती नाम दिया था, उनकी आत्मकथा में खुलासा हुआ है कि सरस्वती राजामणि के पिता स्वामीनाथन जी भी पहले कांग्रेसी थे, लेकिन जब वे आर्य समाज के नेता लाला लाजपत राय के संपर्क आए तो उनकी विचारधारा क्रांतिकारी हो गई और वे अंतत: अंग्रेजों के निशाने पर आ गए। इस कारण वे त्रिची से जाकर बर्मा में बस गए और वहां उन्होंने आर्य समाज की स्थापना भी की।
आत्मकथा के अनुसार, यहीं रंगून (अब यंगून, बर्मा की राजधानी) में 11 जनवरी 1927 को राजामणि ने जन्म लिया। सरस्वती राजामणि के जीवन पर भी आर्य समाज का गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने वेदों का तमिल में सरल हिन्दी रूपांतरण भी किया है। एक बार राजामणि का पूरा परिवार गांधीजी से मिलने के लिए एकत्रित हुआ था, जो उस समय तक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेता के रूप में उभर चुके थे। हार नहीं मानूंगी नामक अपनी आत्मकथा में इस प्रसंग को राजामणि ने इस प्रकार लिखा है-
1937 में मेरे पिता के आमंत्रण पर मोहनदास करमचंद गांधी बर्मा आए। बर्मा में गांधीजी का सोने से तुलादान हुआ और मेरे पिता की शानो-शौकत देखकर गांधीजी ने हमारे घर में अतिथि के रूप में डेरा डाल लिया था। उस समय मेरी उम्र 10 वर्ष की थी। मेरा पूरा परिवार एकत्र होकर गांधीजी से मुलाकात कर रहा था। परिवार के सदस्यों का परिचय चल रहा था, लेकिन मैं तो अपने बगीचे में बंदूक के साथ खेलने में व्यस्त थी। जिस बंदूक से मैं खेल रही थी। मेरे चाचू ने मुझे मेरे 10वें जन्मदिन पर भेंट की थी। उससे मैं बगीचे में उन कौओं को डराती थी, जो अन्य चिड़िया के अंडे फोड़ देते थे या फिर कांव-कांव करके जीना मुश्किल करते थे। जब गांधीजी ने सबसे परिचय कर लिया तो उनकी नजर मुझ पर पड़ी और मैं बड़े बाप की बेटी थी, इसलिए गांधीजी स्वयं मेरे पास चलकर आए और बोले, ‘तुम बड़ी होकर क्या बनोगी?’
‘झांसी की रानी।’ मैंने जवाब दिया।
‘झांसी की रानी ही क्यों? गार्गी क्यों नहीं?’
‘दादू, आर्य समाज में जाकर बड़ी-बड़ी किताबें पढ़कर गार्गी तो मैं कब की बन गई, अब तो मुझे अंग्रेजों को मारकर भारत से भगाना है, इसलिए रानी झांसी बनूंगी।’
‘अंग्रेजों को भारत से क्यों भगाना चाहती हो?’
‘क्योंकि वे लुटेरे हैं। वे हमें लूट रहे हैं।’ मैंने जवाब दिया।
‘अंग्रेज लुटेरे नहीं, इस देश के शासक हैं और उन्हें मारकर भगाना धर्म और कानून हर दृष्टि से गलत है, इतने बड़े बाप की बेटी के आतंकियों जैसे घटिया विचार। किसने दी ऐसी शिक्षा…आर्य समाज ने?’
‘दादू, क्या अंग्रेजों को हमने खुद भारत का शासक बनाया है, नहीं! उन्होंने हमारे राजा-महाराजाओं को छल से लूटकर इस देश पर गैर कानूनी ढंग से कब्जा किया है। लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं।’ फिर मैंने गांधीजी से पूछा, जिन्हें मैं दादू कहकर पुकार रही थी, ‘दादू मैंने सुना है आप सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलकर शासन में भारतीयों की भागीदारी चाहते हैं, और कांग्रेस चुनाव लड़कर अंग्रेजों की छत्रछाया में सरकार बनाती रहे, इसके लिए धन एकत्र कर रहे हैं, क्या आप मानते हैं आपका रास्ता सही है?’
‘हां गुड़िया मेरा रास्ता सही है, क्योंकि हमारे शास्त्रों में भी लिखा है कि अहिंसा परमो धर्म अर्थात् अहिंसा ही परम धर्म है। अहिंसा के रास्ते पर चलकर ही हमें सरकार में भागीदारी मिल सकती है।’
‘दादू, मूर्ख किसे बना रहे हो, मुझे या सारे देश को?’ फिर मैंने गंभीर होकर कहा, ‘मैंने आर्य समाज में रखी किताबों में अहिंसा परमो धर्म का पूरा श्लोक पढ़ा है यानी अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव चः अर्थात् यदि अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है, तो धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उससे भी श्रेष्ठ है। दादू उस हिंसा को हिंसा नहीं बल्कि अपराधी को दंड देना कहते हैं और मैं बड़ी होकर अंग्रेेजों को दंड देना चाहती हूं। आपकी तरह मुझे सरकार में भागीदारी नहीं, मुझे पूरा देश स्वतंत्र चाहिए।’
दादू गांधी उसके बाद कुछ न कह सके और उन्होंने हाथ से मेरे गाल पर स्पर्श किया और मेरे पिता की ओर देखकर मुस्कुरा दिए, ‘बहुत बोलती है आपकी बच्ची!’
उन्होंने अपनी आत्मकथा में एक अन्य स्थान पर लिखा है कि
वृद्धावस्था में मैं एक कमरे के मकान में रहती थी और दो दिन में एक बार ही भोजन मिल पाता था, क्योंकि मेरे पास पैसे नहीं थे। वृद्धावस्था में आय का कोई साधन नहीं था। भीख मांग नहीं सकती थी। आत्महत्या कर नहीं सकती थी। विवश थी। ईश्वर इतना विवश कभी किसी को न करें। अब तो मुझे चलने में भी कष्ट होता था। बूढ़ी काया के साथ समय काट रही थी।
एक पत्रकार महोदय नीरा आर्य की मृत्यु के बाद मेरे पास आए। नीरा आर्य की झुग्गी झोंपड़ी से ही उन्हें मेरा लिखा हुआ नीरा के नाम एक पत्र मिला था, जिस पर लिखे मेरे प्रेषक पते के आधार पर वे मेरे पास पहुंचे। वे उत्तर भारतीय थे और उनका नाम तेजपाल सिंह धामा था। हैदराबाद, निजामाबाद और विशाखापटनम से प्रकाशित दैनिक स्वतंत्र वार्ता में वे वरिष्ठ उपसंपादक के रूप में कार्य कर रहे थे। उन्होंने मेरा साक्षात्कार लिया और स्वतंत्र वार्ता में प्रकाशित किया। वार्ता के तेलुगू संस्करण में भी वह प्रकाशित हुआ और उसके बाद तो मेरे पास कई अन्य बड़े अखबारों के पत्रकार आने लगे और आजाद हिन्द फौज में किए गए मेरे संघर्ष की दास्तान छापने लगे। मुख्यमंत्री जयललिता तक मेरी कहानी पहुंची तो उन्होंने मुझे नाममात्र के किराए पर सरकारी आवास उपलब्ध करा दिया, भले ही वह बहुत पुराना था। एक उपकार मुख्यमंत्री जी ने और किया। वह था मेरी आर्थिक सहायता, उन्होंने मुझे पांच लाख रुपए दिए।
मुझे किसी से कुछ लेना अच्छा नहीं लगता था, लेकिन अपनी वृद्धावस्था को देखकर मैंने ले लिया कि चलो अब बुढ़ापा आराम से कट जाएगा। अब स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन भी बुढ़ापे में मुझे मिलने लगी थी।
कुछ ही दिनों बाद सुनामी आई। इंडोनेशिया के साथ-साथ मेरा भारत भी इससे प्रभावित हुआ। मैंने सुना कि हजारों लोग इसमें मारे गए। सैकड़ों बच्चे अनाथ हो गए। मेरा दिल दहल उठा और मैंने वे पांच लाख रुपए जो मुझे बुढ़ापे में सरकार ने दिए थे, मैंने सरकार को सुनामी पीड़ितों की मदद के लिए वापस कर दिए।
मैं बुढ़ापे में पैसे का क्या करती भला! मुझसे ज्यादा उन पीड़ितों को उनकी जरूरत थी, जिनका सबकुछ बर्बाद हो गया। मेरे पास तो अब सरकारी मकान भी था, पेंशन भी मिलने लगी थी और इस जीवन में भला मुझे क्या चाहिए! बस इतनी ही इच्छा थी कि मेरे देश का हरेक नागरिक सुखी रहे। संसार का उपकार करना ही मुख्य उद्देश्य होना चाहिए, यह मैंने बचपन में आर्य समाज से सीखा था।.
(सौजन्य से सिंडिकेट फीड)
टिप्पणियाँ