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प्रकृति के साथ जीना सिखाता है ‘चातुर्मास’

देवशयनी एकादशी से विश्व के पालनकर्ता भगवान विष्णु चार माह की योगनिद्रा में चले जाते हैं और उनके साथ ही उनकी सहायक देवशक्तियां भी निष्क्रिय हो जाती हैं।

by पूनम नेगी
Jul 9, 2022, 06:54 pm IST
in संस्कृति
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आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी से देवोत्थानी एकादशी तक की चार महीनों की अवधि का सनातन हिन्दू संस्कृति में विशिष्ट महत्व है। वैदिक मनीषियों ने इस चातुर्मास काल को शारीरिक व मानसिक उत्कर्ष की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना है। पौराणिक मान्यता है कि देवशयनी एकादशी से विश्व के पालनकर्ता भगवान विष्णु चार माह की योगनिद्रा में चले जाते हैं और उनके साथ ही उनकी सहायक देवशक्तियां भी निष्क्रिय हो जाती हैं। फलतः आसुरी शक्तियों की ताकत बढ़ जाती है। इन नकारात्मक शक्तियों से निपटने के लिए इस अवधि में सृष्टि संचालन का दायित्व महादेव स्वयं अपने कन्धों पर उठाते हैं। इसी कारण चौमासे में विशेष रूप से शिव पूजन व अभिषेक की परम्परा है। भारत के सनातन ज्ञानतंत्र की इस वैज्ञानिकता को आधुनिक सन्दर्भों में कहीं अधिक गहराई से समझने व आत्मसात करने की जरूरत है। हमारे तत्वदर्शी ऋषि-मनीषियों की अनुभूत मान्यता थी कि प्रकृति का हमारे मन व देह से गहरा नाता है। इसीलिए उन्होंने वर्षा ऋतु में हमारी जीवनी शक्ति को मजबूत बनाये रखने करने के लिए चार माह की इस अवधि में पूजा-पाठ, जप-तप योग व ध्यान के साथ आहार-विहार के तमाम नियम व उप नियम निर्धारित किये थे।

सूत्र रूप में कहें तो‘चातुर्मास’ काल हमें प्रकृति को सहेजना सिखा कर संयम और सदाचार की प्रेरणा देता है। वैदिक साहित्य में “हरि” का अर्थ सूर्य, विष्णु, अग्नि आदि से भी है। हरिशयनी एकादशी से हरि के योगनिद्रा में जाने के पीछे का मूल भाव प्रकृति में अग्नि तत्व की न्यूनता और जल तत्व की अधिकता को दर्शाता है। भारतीय आयुर्वेद के मनीषियों के अनुसार सूर्य या अग्नि तत्व पोषण की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण होते हैं तथा वर्षाकाल में प्रकृति के सापेक्ष शरीर की जठराग्नि मन्द पड़ जाने से पाचन शक्ति कमजोर हो जाने से उदर व संक्रामक रोगों का प्रसार होने लगता है। मौसम में सूर्य के ताप में धीरे धीरे कमी और बरसात के साथ प्रकृति में जल तत्व की अधिकता से नमी या सीलन के कारण प्रतिरोधक क्षमता में कमी के चलते संक्रामक रोगाणुओं को पनपने का वातावरण मिल जाता है। अतः कमजोर पाचन के साथ त्वचा पर फोड़े-फुंसियां, घमौरी, दाद के अलावा दमा, सर्दी, खांसी, जुकाम आदि रोग प्रमुख रूप से बढ़ने लगते हैं। बरसात के कारण जगह जगह दूषित पानी व गन्दगी जमा होने से मक्खी, मच्छर या अन्य कीड़े मकोड़े के द्वारा होने वाले जैसे मलेरिया, टायफायड, चिकनगुनिया, डेंगू, ज्वर, पीलिया आदि में भी वृद्धि हो जाती है। प्रतीत होता है कि वैदिक मनीषी वर्षाकाल में पनपने वाली इन व्याधियों से भलीभांति परिचित थे; तभी तो उन्होंने इन रोगों से बचाव के जो नियम सदियों पहले बनाये थे,उनकी प्रासंगिकता आज भी जस की तस है। हमारे स्वास्थ्य विज्ञानियों की वर्षा ऋतु में देर से पचने वाले गरिष्ठ मसालेदार तैलीय व बासी भोजन, मांसाहार, बहुत ठंडे पेय के सेवन से बचने, दूध, दही आदि से परहेज करने तथा सादा सात्विक आहार लेने की सलाह को अब आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सक भी उचित मान रहे हैं ताकि जीवनी शक्ति और मस्तिष्क की क्रिया में सन्तुलन बना रहे।

चातुर्मास के शास्त्रीय विधानों का मूल उद्देश्य मनुष्य को त्याग और संयम की शिक्षा देना भी है। इन नियमों के पालन से आत्मानुशासन की भावना जागृत होती है तथा खान-पान और आचार-विचार की शुद्धि से आध्यात्मिक साधना फलीभूत होती है। प्राचीन काल में साधु, संत चातुर्मास के दौरान एक ही स्थान पर रुक कर स्वाध्याय व प्रवचन-सत्संग द्वारास्वयं की आत्मोन्नति के साथ जन सामान्य का भी आध्यात्मिक विकास किया करते थे, यह परम्परा आज भी किन्हीं अंशों में कायम है। श्रीरामचरित मानस के किष्किंधा कांड में भगवान श्रीराम द्वारा वर्षाकाल में देवताओं द्वारा निर्मित गुफा में स्वाध्याय, धार्मिक चिंतन एवं शास्त्रार्थ करने का सुन्दर वर्णन मिलता है।  बौद्ध व जैन धर्म में भी चातुर्मास का विशेष महत्व है। यह लोग इसे वर्षा वास कहते हैं। जैन मुनि वर्षा काल में धरती से निकलने वाले जीवों को हिंसा से बचाने के लिए एक ही स्थान पर रुककर स्वाध्याय, सत्संग व आध्यात्मिक ऊर्जा का विकास करते हैं।

एक ओर देवताओं के सो जाने का तर्क सामने रख आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी से शुरू चौमासे में विवाह, लग्न, मुण्डन, यज्ञोपवीत, शिलान्यास, नवगृह-प्रवेश व मंदिर तथा मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा आदि पर प्रतिबंध रहता है क्यूंकि हिंदू धर्म का प्रत्येक मांगलिक कार्य भगवान विष्णु को साक्षी मानकर किया जाता है। दूसरी ओर इस पावसी चौमासे में पड़ने वाले अनेकानेक पर्व-त्योहार तन-मन में एक अनोखे सात्विक उल्लास का सर्जन करते हैं। चातुर्मास काल में पड़ने वाले पर्वों की श्रंखला आषाढ़ माह की गुरु पूर्णिमा से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा (देवोत्थानी एकादशी) पर आकर थमती है। इस अवधि के प्रथम हिन्दू माह सावन में पड़ने वाले नागपंचमी, गुड़िया, हरियाली तीज व रक्षाबंधन आदि त्योहार हमें प्रकृति, जीवों व रिश्तों का महत्व बताते हैं। ‘श्रावण पूर्णिमा’ को दक्षिण भारत में ‘नारियली पूर्णिमा’ व ‘अवनी अवित्तम’, मध्य भारत में ‘कजरी पूनम’, उत्तर भारत में ‘रक्षाबंधन’ और गुजरात में ‘पवित्रोपना’ के रूप में मनाया जाता है। भादों माह में हरियाली तीज, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, गणेशोत्सव, अनंत चतुर्दशी, ऋषि पंचमी तथा अजा एकादशी व परिवर्तनी एकादशी जैसे पर्व और त्योहार पड़ते हैं। जिस तरह से सावन को भोले शंकर का महीना और भादों को श्रीकृष्ण का महीना माना जाता है, उसी तरह अश्विन मास को मां दुर्गा का महीना माना जाता है। ज्ञात हो कि भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से प्रारंभ होने वाले पितृपक्ष का समापन आश्विन मास की अमावस्या को होता है। श्राद्ध के 16 दिनों में पितरों की आत्मा की शांति और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उनका तर्पण और पिंडदान करने का विधान भारतीय संस्कृति में आत्मा की अनश्वरता का प्रतीक है। इसके बाद अश्विन माह में शारदीय नवरात्र व विजयदशमी मनायी जाती है तथा चातुर्मास काल के चौथे व अंतिम माह कार्तिक में करवाचौथ व अहोई अष्टमी के साथ धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज, छठ पूजा और देवोत्थानी (देवउठनी) एकादशी तुलसी विवाह का पर्व  सनातनधर्मी हर्षोल्लास से मनाते हैं। सूत्र रूप में कहें तो चातुर्मास काल स्वास्थ्य संरक्षण और आध्यात्मिक विकास दोनों ही दृष्टियों से संत व गृहस्थ दोनों वर्गों को अनूठा अवसर उपलब्ध कराता है।

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