धर्म का दण्ड धारण करने वाले दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती भारतीय इतिहास के वह युग पुरुष हैं, जिनके व्यक्तिव में धर्माचार्य, जननायक, लोकचिंतक, साहित्यकार और समाज सुधारक का अनोखा समिश्रण हुआ था। इन्होंने एक साथ और एक समय में धर्म, राजनीति, समाज और शास्त्र को समजोपयोगी बनाने के लिए संघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया। आजादी की ज्योति को शहरों से निकालकर कर गांवों से लेकर सुदूर तक ले गए और तब के 80 प्रतिशत देशवासियों के बीच राष्ट्रीयता का बीज बोया। पांच हजार वर्षों के भारतीय कृषक इतिहास में किसानों को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर संगठित किया और उसके नेतृत्वकर्ता बने। इनकी अध्यक्षता में पहले 17 नवंबर, 1929 को बिहार राज्य किसान सभा और 11 अप्रैल, 1936 को अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई।
उल्लेखनीय है कि 1939 के रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन में सहजानन्द ने ही पहली बार ‘भारत छोडो’ का नारा दिया था और इसी दण्डी स्वामी के बारे में सुभाषचंद्र बोस ने कहा था, ‘‘साबरमती आश्रम में मैंने खादी धोती पहने पूंजीपतियों के एक संन्यासी को देखा, परन्तु भारत का एक सच्चा संन्यासी मुझे सीताराम आश्रम पटना (इसी आश्रम में सहजानन्द रहते थे) में मिला। साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें ‘नये भारत का नया नेता’ से सम्बोधित किया है। अमेरिकी विद्वान वाल्टर हाउजर ने किसान आंदोलन पर अपने शोध कार्य में सहजानन्द की दो अप्रकाशित पुस्तकों ‘झारखंड के किसान’ और ‘खेत मजदूर’ का उल्लेख करते हुए उन्हें भारतीय राष्ट्रीय किसान आंदोलन का सबसे बड़ा नायक माना है। इसके अलावा, इतिहासकार विलियम पिंच ने अपने शोध ग्रंथ में कहा है कि ग्रामीण क्षेत्र में संत एंव किसानों का पारस्परिक संबंध बड़ा मधुर था और निश्चित रूप से अपनी संत छवि के कारण स्वामी सहजानन्द ग्रामीण क्षेत्रों में सहज स्वीकार किए गए। किसान वर्ग ने उनके क्रांतिकारी कार्यों का जोरदार समर्थन किया। इसी कारण तब के 80 प्रतिशत ग्रामीण भारतीयों के बीच आज़ादी के आंदोलन की ज्योति जलाने में सहजानन्द कामयाब रहे।
दरअसल, कांग्रेस के अलावा समाजवादी क्रांतिकारियों के साथ किसान आंदोलन ही स्वतंत्रता आंदोलन की सबसे बड़ी धारा थी और किसानों के बीच आज़ादी की दीवानगी का परवान चढ़ने के बाद ही स्वतंत्रता आंदोलन तीव्र। किसान संगठन के बूते ही सहजानन्द ने खुद को गांधी, नेहरू, बोस और तिलक के समकक्ष खड़ा किया। किसानों से उनके अटूट जुड़ाव का आलम यह था कि उन्होंने किसानों के मुद्दे पर माहत्मा गांधी से भी मतभेद कर लिया। इसके बावजूद, वे कांग्रेस को छोड़कर समाजवादियों, वामपंथियों, क्रांतिकारियों के स्वामी बने रहे। सुभाषचंद्र बोस, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया या नंबूदरीपाद या नरेंद्र देव, चाहे जिस विचारधारा से जुड़े हों, सभी स्वामी जी का मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे।
धर्म के क्षेत्र में स्वामी सहजानंद ने वैसा ही योगदान रहा, जैसा स्वामी दयानन्द और स्वामी विवेकानंद का रहा। उन्होंने धार्मिक मानदंडों से ऊपर “रोटी” को रखा। समाज सुधार के क्षेत्र में स्वामी सहजानंद के अर्थपूर्ण हस्तक्षेप के लिए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें ‘दलितों का सन्यासी’ कहा। उन्होंने संस्कृत भाषा पर विशेष अधिकार को चुनौति देकर एक समाजिक क्रांति का सूत्रपात किया। उनकी दर्जनों प्रकाशित पुस्तकों एवं लघु-निबन्धों में एक अन्वेषी पाठक को न सिर्फ सामाजिक क्रांति के पूर्ववर्त्ती आधारभूत विचारों के गहन दार्शनिक चिंतन की छाप मिलती है, बल्कि उन विचारों के वैज्ञानिक विश्लेषण का ठोस प्रमाण भी मिलता है। धर्म, परंपरा जाति और कर्म की दृष्टि से उनके द्वारा रचित ‘गीता हृदय’ और ‘झूठ, भय मिथ्या, अभिमान ‘अत्यन्त ही शोध परक रचना है। 1400 पृष्ठों का ‘कर्मकलाप’ कर्मकांड संबंधी सबसे बड़ी रचना है। ‘मेरा जीवन जीवन संघर्ष’ उनकी अनमोल साहित्यक कृति है, जिसमें उनकी आत्म कथा है। यह ग्रंथ अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का दर्पण है।
असल में सहजानन्द वह सन्यासी हैं जो एक-दो नहीं, बल्कि कम-से-कम पांच क्षेत्रों में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” पाने के प्रथम हक़दारों में से एक हैं। लेकिन आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी उन्हें भारत के इतिहास लेखन में उचित स्थान नहीं मिला है। भारतीय इतिहासकारों ने स्वतंत्रता आंदोलन की तीन बड़ी धाराओं में किसान आंदोलन की गिनती करने के बाद भी किसान आंदोलन को कायदे से कुछ-एक पन्नों में समेट दिया है। सहजानन्द के नाम पर भारत का आधुनिक इतिहास मौन है। यही वजह है कि संघर्ष के नायक रहे सहजानन्द के लिए ”भारत रत्न ” की मांग के साथ ही उन्हें इतिहास के पन्नों में भी उचित स्थान दिलवाने के लिए उनके अनुआयियों को संघर्ष करना पड़ रहा है।
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