जाति की जकड़न को मजबूत करने के लिए जातिगत जनगणना!!

जिस बिहार को जातिगत राजनीति ने पिछड़ा और गरीब बना रखा है, उसी बिहार में जाति पर आधारित जनगणना होने वाली है। लोग इसे बिहार में विकास की राजनीति को रोकने वाला कदम मान रहे हैं।

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अरुण कुमार सिंह

आखिरकार बिहार में वही हुआ, जो जाति के आधार पर राजनीति करने वाले नेता चाहते थे। गत 1 जून को पटना में आयोजित सर्वदलीय बैठक में निर्णय लिया गया कि जाति पर आधारित जनगणना कराई जाएगी। यानी बिहार में किस जाति में कितने लोग हैं, वे कितने पढ़े—लिखे हैं, क्या करते हैं, इस तरह के आंकड़े जुटाए जाएंगे। अंग्रेजों के राज में ऐसी जाति आधाारित जनगणना होती थी, वह भी अंतिम बार 1931 में हुई थी। इसके बाद से अब तक जाति पर आधारित जनगणना नहीं हुई है। यही कारण है कि कुछ क्षेत्रीय दलों की मांग के बाद केंद्र सरकार ने स्पष्ट कह दिया था कि देशव्यापी जाति आधारित जनगणना करना संभव नहीं है।
इसके बावजूद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव, उनके बेटे तेजस्वी यादव, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव जैसे नेता जातिगत जनगणना की मांग करते रहे थे। अखिलेश यादव ने तो पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान वायदा किया था कि यदि उनकी सरकार बनती है तो जाति आधारित जनगणना कराई जाएगी, लेकिन उनकी सरकार ही नहीं बनी। इसके बाद से वे इस पर चुप हैं। वहीं दूसरी ओर बिहार में जाति जनगणना की मांग होती रही और चूंकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके पक्ष में हैं, इसलिए उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाकर इस पर अंतिम निर्णय ले लिया।
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. शंभु नारायण मानते हैं जाति आधारित जनगणना होने से बिहार के लोगों को ही नुकसान होने वाला है। इससे विकास पीछे हो जाएगा और जातिगत भावना आगे हो जाएगी। वे कहते हैं,”स्वतंत्रता के बाद से बिहार में जाति के आधार पर राजनीति हो रही है। इस कारण लोग वोट देने से पहले अपनी जाति के उम्मीदवारों को खोजते हैं। भले ही उनकी जाति के उम्मीदवार जीतने की स्थिति में नहीं होते हैं, इसके बावजूद लोग उसी को वोट देते हैं। यानी मतदाताओं ने कभी विकास के लिए वोट नहीं किया। इस कारण आज भी बिहार में ढांचागत सुविधाओं का अभाव है। बिहार के लोग रोजगार के लिए पूरे देश में भटक रहे हैं। इलाज कराने के लिए दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े शहरों की ओर भाग रहे हैं। यदि बिहार के लोग जाति की राजनीति में नहीं उलझते तो आज बिहार बहुत आगे होता, क्योंकि यहां प्रतिभाशाली लोगों की कोई कमी नहीं है।”
वहीं सामाजिक कार्यकर्ता संजय सिंह कहते हैं,”मुख्य रूप से वही राजनीतिक दल जातिगत जनगणना पर जोर दे रहे हैं, जो 2014 के बाद से लगातार चुनाव हार रहे हैं। अब लोग विकास के लिए वोट करने लगे हैं, इसलिए जाति पर राजनीति करने वाले नेता हार रहे हैं। ये लोग अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन को फिर से उर्वर बनाने के लिए जाति—जाति की रट लगा रहे हैं।”
पटना में प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करवाने वाले गणेश कुमार कहते हैं, ”सच में देखा जाए तो जातिगत जनगणना में उन लोगों की कोई दिलचस्पी नहीं है, जो किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े हैं। ऐसे लोग विकास की राजनीति के पक्षधर हैं। अभी इस वर्ग के लिए सबसे पसंदीदा नेता हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। यही कारण है कि जातिगत जनगणना के मामले में भाजपा पहले खुलकर कुछ नहीं बोलती थी, लेकिन बिहार के ज्यादातर राजनीतिक दलों के रुख को देखते हुए भाजपा ने भी इसका समर्थन किया और सर्वदलीय बैठक में भाग लिया।”
सर्वदलीय बैठक में शामिल हुए बिहार प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष संजय जायसवाल ने कहा है कि भाजपा ने जातिगत जनगणना पर अपनी सहमति दी है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा है कि यह भी ध्यान रखा जाए कि इस जनगणना में कोई बांग्लादेशी घुसपैठिया या रोहिंग्या मुस्लिम शामिल न हो जाए। ऐसा होने पर वे लोग आगे चलकर इसी आधार पर भारत के नागरिक होने का दावा कर सकते हैं। संजय जायसवाल की चिंता स्वाभाविक है। उल्लेखनीय है कि बिहार के किशनगंज, अररिया, पूर्णिया, कटिहार, भागलपुर, जैसे जिलों में बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों की बड़ी संख्या है। ये लोग स्थानीय लोगों का ही हक मार रहे हैं। इसके बाद भी स्थानीय लोग इन घुसपैठियों का कभी एक स्वर में विरोध नहीं करते हैं।
भागलपुर के कारोबारी प्रदीप गुप्ता कहते हैं, ”जाति में बंटे होने के कारण अधिकांश भारतीयों की सोच देशव्यापी नहीं बन पाती है। इसलिए लोगों को न तो बांग्लादेशी घुसपैठिए दिखते हैं और न ही अन्य देशविरोधी तत्व दिखते हैं। लोग और अच्छी तरह जाति की जकड़न में रहें, इसलिए जातिगत जनगणना कराई जा रही है।”

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