प्लास्टिक पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचा रहा है। इससे आहत कुछ लोग प्लास्टिक कबाड़ से तरह-तरह के सामान, टाइल्स और खेल परिधान बनाकर पर्यावरण की सुरक्षा के साथ रोजगार के अवसर भी कर रहे सृजित
कुछ साल पहले जब पेन्सिलवेनिया के व्हार्टन स्कूल एडम ग्रांट के एक प्रसिद्ध विज्ञान लेखक और प्रोफेसर को एक ऐसे स्टार्टअप में निवेश करने के लिए कहा गया, जो आनलाइन चश्मा बेचने की सोच रहा था, तो उन्होंने मना कर दिया। कारण सामान्य था। उस समय उन्हें यह विश्वास नहीं था कि स्टार्टअप सफल होगा। बिल गेट्स के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। वर्ष 2000 में उन्होंने हर घर तक इंटरनेट की पहुंच की अवधारणा को ही खारिज कर दिया था। हालांकि अब नवाचार पर आश्चर्य नहीं होता, क्योंंकि अब ये आविष्कार या नई सोच हमारी जरूरत बन गए हैं। भारत में ऐसे कई स्टार्टअप हैं जो अपशिष्ट से तरह-तरह के सामान, कपड़े और जूते-चप्पल तक बना रहे हैं।
प्लास्टिक की बोतल से स्पोर्ट्स वियर
करीब 5 साल पहले रौशन बेद और रवीश नंदा ने Alcis Sports नाम से एक कंपनी बनाई, जो अलग-अलग श्रेणी के लोगों के लिए गुणवत्ता पूर्ण और किफायती स्पोर्ट्स वियर बनाती है। खास बात यह है कि कंपनी प्लास्टिक की बोतलों का पुनर्चक्रण कर खेल परिधान बनाती है, जो पर्यावरण हितैषी होने के साथ लोगों के लिए भी आरामदेह होते हैं। बकौल रौशन, बाजार में खेल परिधानों के विकल्प सीमित हैं। ये बहुत महंगे भी हैं। कुछ सस्ते हैं भी तो उनकी गुणवत्ता अच्छी नहीं है।
खिलाड़ियों की टी-शर्ट अमूमन पॉलिस्टर की होती है, जो मानव निर्मित फाइबर से बनती है। लेकिन इसे बनाने में बहुत अधिक पानी खर्च होता है। साथ ही, इसमें रसायन और जीवाश्म ईधन का भी प्रयोग किया जाता है, जो हवा, पानी और मिट्टी को जहरीला बनाने के साथ कई गंभीर बीमारियों का कारण भी बनते हैं। इसी को देखते हुए उन्होंने रीसाइकिल्ड पॉलीइथिलीन टेट्राफाइट (RPET) प्लास्टिक बोतलों से फाइबर तैयार किया, फिर उससे टी-शर्ट बनाई, जो टिकाऊ और मजबूत होती है। ये सामान्य टी-शर्ट की तुलना में बहुत हल्की, नरम तो होती ही हैं, इसे बनाने में पानी और ऊर्जा भी कम लगती है। 8 प्लास्टिक बोतलों से एक टी-शर्ट बन जाती है। एक टी-शर्ट 26-27 लीटर पानी और लगभग 50 प्रतिशत ऊर्जा की बचत करती है। यही नहीं, कार्बन उत्सर्जन भी 54 प्रतिशत कम करती है।
इसी तरह, 2021 में स्मार्टफोन और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट निर्माता कंपनी शिओमी ने भी प्लास्टिक की बोतलों से बनी टी-शर्ट बाजार में उतारी थी। खास बात कि इसके लिए पीईटी प्लास्टिक की बोतलें भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों से जमा की जाती हैं। कंपनी 12 बोतलों से एक टी-शर्ट बनाती है, जो हल्की होने के साथ पसीना सोखने में सक्षम है और त्वचा को भी नुकसान नहीं पहुंचाती है। इसका पुनर्चक्रण भी किया जा सकता है।
फूलों से बने उत्पाद, बन जाते हैं खाद
पूनम सहरावत दो बच्चों की मां हैं। वे मंदिरों में पूजा के बाद बेकार फूलों से दीये, मूर्तियां, धूपबत्ती, अगरबत्ती, दीवार पर टांगने के लिए ओम्, स्वस्तिक और राम के नाम के सजावटी सामान बनाती हैं। इन्हें रीसाइकिल किया जा सकता है। इन्हें बेचने के लिए वे सोशल मीडिया का सहारा लेती हैं। अब तो उनके द्वारा तैयार उत्पाद आनलाइन मार्केटिंग साइट पर भी उपलब्ध हैं। पूनम ने शून्य लागत से यह काम शुरू किया और अब तक गुरुग्राम, दिल्ली, नोएडा और जम्मू सहित कई राज्यों की 500 महिलाओं को प्रशिक्षित करने के साथ 7-8 महिलाओं को रोजगार भी दे रही हैं। शुरुआत में महिलाओं को जोड़ने के लिए उन्होंने कुछ एनजीओ से संपर्क किया और उनके जरिए छोटी-छोटी वर्कशॉप लगाई। बाद में कई एनजीओ उनके साथ जुड़ गए।
आंकड़े के मुताबिक, देशभर में लगभग 35 करोड़ जूते-चप्पल प्लास्टिक या अन्य सामग्री से बने होते हैं, जो पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। सबसे पहले उन्होंने मुंबई में जगह-जगह लोगों को खराब जूते-चप्पल दान करने के लिए ड्रॉप बॉक्स लगाए और बाद में कूरियर से भी उन्हें मंगवाना शुरू किया। उनके इस नेक काम से प्रभावित होकर लोग इन्हें पुराने जूते-चप्पल दान
देने लगे
पूनम ने जून 2019 में यह काम शुरू किया और फूलों से बने सामान को मंदिरों में ही बेचना शुरू किया। इसके लिए वे सुबह-सुबह मंदिरों में जातीं और वहां से फूल इकट्ठा करती थीं। फिर इसे सुखा कर पाउडर बनाती थीं। वे आरुषि इंटरप्राइजेज नाम से अपने उत्पाद बेचती हैं, जिसकी कीमत 30 से 120 रुपये के बीच है। उत्पादों से वे हर महीने 30 हजार रुपये भी कमा लेती हैं।
पूनम गुरुग्राम के लगभग 25 मंदिरों से रोजाना करीब 200 किलो फूल इकट्ठा करती हैं, जिनसे 30-40 किलो पाउडर बन जाता है। फिर वे इसमें हवन सामग्री और गाय का गोबर मिलाकर तरह-तरह के उत्पाद तैयार करती हैं। वे एक दिन में करीब 300 पैकेट धूपबत्ती के बना लेती हैं। खास बात यह कि वे अपने उत्पाद की पैकिंग मंदिर में चढ़ाई जाने वाली चुनरियों से बनी थैलियों में करती हैं। हालांकि कोरोना के कारण दो साल तक उनका काम प्रभावित हुआ, क्योंकि लॉकडाउन के कारण मंदिरों में लोग कम आते थे। इस कारण फूल भी कम मिलते थे। पूनम कहती हैं कि लोग मंदिर में श्रद्धा के साथ फूल चढ़ाते हैं, लेकिन बाद में इन्हें कचरे में फेंक दिया जाता है या इन्हें नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इससे नदियां प्रदूषित होती हैं और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है। यह देखकर उन्हें अच्छा नहीं लगता था।
पुराने जूते-चप्पलों का स्टार्टअप
राजस्थान के उदयपुर के रहने वाले श्रीयंस भंडारी और उत्तराखंड के गढ़वाल के रहने वाले रमेश धामी का काम भी सबसे अलग और लोगों को प्रेरणा देने वाला है। दोनों ने ग्रीनसोल नाम से 2014 में स्टार्टअप शुरू किया जो पुराने जूते-चप्पलों की मरम्मत करके इन्हें जरूरतमंद लोगों तक पहुंचा रही है। एक आंकड़े के मुताबिक, देशभर में लगभग 35 करोड़ जूते-चप्पल प्लास्टिक या अन्य सामग्री से बने होते हैं, जो पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। सबसे पहले उन्होंने मुंबई में जगह-जगह लोगों को खराब जूते-चप्पल दान करने के लिए ड्रॉप बॉक्स लगाए और बाद में कूरियर से भी उन्हें मंगवाना शुरू किया। उनके इस नेक काम से प्रभावित होकर लोग इन्हें पुराने जूते-चप्पल दान देने लगे। इस तरह वे पर्यावरण को तो बचा ही रहे हैं, गरीबों की मदद भी कर रहे हैं।
आंकड़े के मुताबिक, देशभर में लगभग 35 करोड़ जूते-चप्पल प्लास्टिक या अन्य सामग्री से बने होते हैं, जो पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। सबसे पहले उन्होंने मुंबई में जगह-जगह लोगों को खराब जूते-चप्पल दान करने के लिए ड्रॉप बॉक्स लगाए और बाद में कूरियर से भी उन्हें मंगवाना शुरू किया। उनके इस नेक काम से प्रभावित होकर लोग इन्हें पुराने जूते-चप्पल दान देने लगे।
श्रीयंस कहते हैं कि देश में न जाने ऐसे कितने लोग हैं जो पैसों के अभाव में नंगे पांव चलने के लिए मजबूर हैं। दोनों की कोशिश है कि हर जरूरतमंद व्यक्ति के पैर में जूते-चप्पल तो होने ही चाहिए। शुरुआत में इस काम में एक्सिस बैंक, इंडियाबुल्स, टाटा पॉवर और डीटीडीसी जैसे कॉरपोरेट घरानों ने उनकी मदद की और प्रत्येक जोड़ी जूते-चप्पल के लिए 200 रुपये का भुगतान किया। श्रीयंस बताते हैं कि उनके प्रमोटर्स चप्पलों को 500 से 1500 रुपये के बीच खरीद कर उसे 10 से 20 प्रतिशत लाभ के साथ बाजार में बेचते हैं।
प्लास्टिक की टिकाऊ टाइल्स
पर्यावरण के लिए प्लास्टिक बहुत घातक है। इसे गलने में सैकड़ों साल लग जाते हैं। लेकिन दिल्ली के पारस सलूजा और संदीप नागपाल ने प्लास्टिक कचरे में अवसर तलाशा और इससे टाइल्स बनाना शुरू किया। ये मजबूत और टिकाऊ तो होते ही हैं, दिखने में आकर्षक भी होते हैं। शायना इको यूनीफाइड इंडिया नाम से उनका स्टार्टअप है, जो प्लास्टिक का पुनर्चक्रण करके इसे उपयोग में लाती है। दो साल पहले तक इन्होंने 11 लाख रंग-बिरंगी टाइल्स बनाने के लिए लगभग 340 टन प्लास्टिक कचरे का प्रयोग किया। उनके द्वारा बनाए गए टाइल्स एंटी-स्टैटिक, एंटीमाइक्रोबियल और जीवाणुरोधी होते हैं, जो 140 डिग्री सेल्सियस तक ताप सहन कर सकते हैं।
प्लास्टिक से बने इन टाइल्स की उम्र 50 साल है। दरअसल, 2015 में पारस एवरेस्ट के आधार शिविर पर गए थे, जहां उन्होंने प्लास्टिक कचरे को देखा। इसके बाद उन्होंने पर्यावरण को प्लास्टिक से हो रहे नुकसान को रोकने के लिए कुछ अलग करने का विचार किया। बाद में जब वे वियतनाम गए। वहां उन्होंने सीखा कि शहरों की देखभाल कैसे की जा सकती है। बस वहीं से उन्हें रास्ता सूझा। जब वे देश लौटे तो विभिन्न रसायनों पर उन्होंने शोध किया और इस क्षेत्र के विशेषज्ञों की मदद ली। आज उनकी कंपनी प्लास्टिक कबाड़ से टाइल्स के अलावा वेस्ट बिन, ट्री गार्ड, तरह-तरह के फर्नीचर, पार्क बेंच, गार्ड केबिन और टॉयलेट ढांचे भी बनाती है।
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