आज जिस दौर में हम जी रहे हैं, उसमें प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बर्बरता तक की सीमा को लांघ चुका है। नतीजतन ग्लोबल वार्मिंग व अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन से जैव विविधता के क्षरण ने प्रकृति के ताने-बाने को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया है। एक दौर था जब हमारा देश अपनी समृद्ध जैव विविधता के लिए समूची दुनिया में जाना जाता था। लेकिन बीती अर्द्ध सदी में पश्चिम के धनी देशों की कुदृष्टि, पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के अंधानुकरण, अंधाधुंध अवैध वन कटान व सुरसा के मुंह की तरह फैलता अनियोजित विकास ने हमारी इस अनमोल धरोहर को भारी क्षति पहुंचायी है।
जैव विविधता की दृष्टि से सम्पन्न भारत के उन क्षेत्र में घुसपैठ हो चुकी है, जहां दुर्लभ जड़ी-बूटियां और मूल्यवान जीवाश्म मौजूद हैं। भौगोलिक विभिन्नताओं से परिपूर्ण इलाकों में पेड़-पौधों के साथ वन्य पशु-पक्षियों का बसेरा लगातार छिनता जा रहा है। कड़े कानून न होने के कारण बड़ी संख्या में जड़ी-बूटियां व वनस्पतियां और विभिन्न जीव-जंतुओं को बड़े पैमाने पर चोरी-छिपे बाहर ले जाया जा रहा है। तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी हमारे इस दुर्लभ खजाने में सेंध लगाने में पीछे नहीं हैं। “इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर” की रिपोर्ट के मुताबिक जैव विविधता के क्षरण से आज विश्व में जीव-जंतुओं की 47677 प्रजातियों में से एक तिहाई से अधिक पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। स्तनधारियों की 21 फीसदी, उभयचरों की 30 फीसदी और पक्षियों की 12 फीसदी प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों के साथ सरीसृपों की 37 फीसदी प्रजातियों पर और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। पक्षियों की दृष्टि से भारत का स्थान दुनिया के दस प्रमुख देशों में आता है। दुनिया भर में पाये जाने वाले 1235 प्रजातियों के पक्षी भारत में हैं जो विश्व के पक्षियों का 14 प्रतिशत है।
वन्य जीव विशेषज्ञों के ताजा आंकड़ों के मुताबिक पिछली तीन शताब्दियों में मनुष्य ने अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये लगभग दो सौ प्रकार जीव-जन्तुओं का अस्तित्व ही मिटा दिया है। आज भारत में जीव-जंतुओं की 150 प्रजातियों पर गहरा संकट मंडरा रहा है। यह आंकड़े वन्य प्राणियों की सुरक्षा की गारंटी देने वाले राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य और चिड़ियाघरों की सम्पूर्ण व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
कृषि में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशक तितलियों, मधुमक्खियों और अन्य कृषि मित्र कीटों को नष्टकर प्राकृतिक आहार चक्र को तोड़ धरती की कोख को उजाड़ने पर तुले हैं। अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए हमने जंगलों का विनाश कर धरती के आंचल को क्षत-विक्षत करके उसके अन्दर बहने वाली जलधारा को सुखा दिया है। पक्षियों की चहचहाहट, नदियों-झरनों की सुमधुर आवाजें गाड़ियों व कल-कारखानों में के भीषण शोर में दब गयी हैं। कभी बाढ़ से तबाही का मंजर तो कभी सूखे का विकराल प्रकोप। मानवेत्तर जीव-जन्तुओं के विलोपन से जैव विविधता के क्षरण की गंभीर समस्या हमारे समाने मुंह बाये खड़ी है जिसका समाधान केवल सनातन संस्कृति की परम्पराओं के अनुपालन से ही हो सकता है।
महामनीषी स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द और महात्मा गांधी से लेकर पं. दीनदयाल उपाध्याय तक सभी की मान्यता है कि एकमात्र भारत ही वह देश है जिसकी सनातन परम्पराओं में पर्यावरण संकट से कराहती दुनिया को रास्ता दिखाने की शक्ति है। ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत पर आधारित वैदिक हिन्दू दर्शन मनुष्य को जल, जंगल, जमीन और जलवायु से प्रेम करना सिखाता है। इसमें पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण के अनेक सूत्र निहित हैं। दुनिया के इस सर्वाधिक वैज्ञानिक और सर्वसमावेशी धर्म की प्रत्येक मान्यता एवं परम्परा प्रकृति के विभिन्न घटकों के संरक्षण की पोषक है। ऋग्वेद के ऋषि शांति पाठ ‘ॐ द्यौ शांति: अंतरिक्ष शांति: पृथ्वी शांति: आप: शांति:।‘ के माध्यम से जिस तरह समष्टि के कल्याण के लिए पंचतत्वों व औषधि एवं वनस्पतियों के शांतिप्रदायक होने की प्रार्थना करते हैं, वैसा उदाहरण किसी अन्य धर्म संस्कृति में नहीं मिलता। देवाधिदेव महादेव शिव हिमालय की संपूर्ण जैव विविधताओं के संरक्षक माने जाते हैं। वे अपने विलक्षण व्यक्तित्व से भी जैव विविधताओं के संरक्षण की सीख देते हैं। आज आवश्यकता है इन धार्मिक मान्यताओं एवं आस्थाओं को समाज में सही ढंग से प्रदर्शित करने की, ताकि हमारा समाज जैव विविधता की महत्ता को समझे एवं उसके संरक्षण में अपना योगदान दे। यदि हमें अपनी धरती माता को सुरक्षित व संरक्षित रखना है तो अपनी वैदिक संस्कृति के सूत्रों को अमली जामा पहनाना ही होगा।
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