रवीन्द्र साहित्य व काव्य में ऐसी कई विशेषताएं हैं जो उन्हें सच्चे अर्थों में विश्व कवि बनाती हैं। वे विश्वमानव के दुखों के निवारणार्थ समाज की कटु आलोचना करके कोई व्याख्यान नहीं देते, पर जो भी कहते हैं वह मानव की निर्बलताओं को सहानुभूतिपूर्वक देखते हुए अत्यंत कलात्मक ढंग से। वे लिखते हैं-” नहीं मांगता प्रभु विपत्ति से मुझे बचाओ-त्राण करो, विपदा में निर्भीक रहूं मैं , इतना हे भगवान करो।” उनकी सार्वभौमिक और सर्वकालिक लेखनी साहित्य प्रेमियों के लिए मन-मस्तिष्क को शीतल करने वाला क्षीरसागर है। उनकी साहित्यिक कृतियां चाहे कविता, कहानी, उपन्यास या निबंध सभी कुछ मनुष्य के मानसिक स्तर को ऊंचा उठाने के उद्देश्य से लिखी गयी हैं। बताते चलें कि उनकी “अंतर मम विकसित कर दे” शीर्षक कविता में जिसमें अध्यात्म भावना को बहुत थोड़े शब्दों में बेहद प्रभावोत्पादक रूप में व्यक्त किया गया है; बापू के साबरमती आश्रम में प्रार्थना के समय नित्य गायी जाती थी। वर्ष 1913 में उनकी कालजयी कृति “गीतांजलि” को साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला था। उनके इस सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में वैष्णव कवियों की प्रेम भावना के साथ उपनिषदों के सर्वोच्च आध्यात्मिक विचारों का भी बड़ी मार्मिकता से समावेश है।
7 मई 1861 को कोलकाता के सुप्रसिद्ध ठाकुर वंश में रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ। पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर क्षेत्र के सुप्रतिष्ठित व्यक्ति थे। 14 भाई- बहनों में सबसे छोटे रवीन्द्र ने मात्र 13 वर्ष की आयु से ही कविता लेखन शुरू कर किया था। कहते हैं कि सन 1973 में उपनयन संस्कार के बाद एक बार जब वे पिता के साथ हिमालय भ्रमण पर गये, वहां के सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में इनकी काव्य रचना का प्रवाह और अधिक बढ़ गया तथा हिमालय से लौट कर वे काव्य सृजन में पूरी तन्मयता से जुट गये। बंकिमचंद की “बंगदर्शन” मासिक आपकी प्रिय पत्रिका थी। रवीन्द्रनाथ का कहना था, “बंकिमबाबू के बाद बांग्ला भाषा में कोई अच्छा समालोचक नहीं हुआ। बंकिम बांग्ला साहित्य के राजा थे।”
रवीन्द्रनाथ के बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ ठाकुर भी “भारती” नामक मासिक पत्र निकालते थे, जिसमें उन्होंने अपनी “भानु सिंहरे पदावली” नामक काव्य रचना छपवायी जो हाथों-हाथ बिक गयी। किन्तु पढ़ाई से उनका मन हटते देख घरवालों ने उन्हें विदेश (इंग्लैण्ड) उच्च शिक्षा के लिए भेज दिया लेकिन वहां भी उनका अधिकांश समय मिल्टन, वायरन, टेनीसन, शैली, कीट्स आदि की रचनाओं के अध्ययन में ही बीता। विदेश प्रवास के दौरान उन्होंने यूरोप के सामाजिक व सार्वजनिक जीवन का गहन अध्ययन किया। यूरोप वासियों की साक्षरता, स्वच्छता, ईमानदारी व समय की महत्ता आदि गुणों से वे काफी प्रभावित हुए। विदेश से लौटने पर अपने देश की गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास आदि कुरीतियों को देख उनका कवि हृदय व्यथित हो उठा। उन्होंने बैलगाड़ी से देश भ्रमणकर देश के अन्नदाता कृषकों की दीन-हीन दशा को निकट से देखकर अपनी रचनाओं में उसका यर्थाथ चित्रणकर सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया। भ्रमण के दौरान अनेक गांवों में विद्यालय स्थापित कराये और किसानों के लिए नहरे व कुएं खोदवाकर सिंचाई की सुविधाएं मुहैया करायीं।
बंकिमचन्द्र द्वारा प्रकाशित “बंगदर्शन” मासिक पत्रिका जो उनके देहांत के बाद बंद हो गयी था, रवीन्द्रनाथ ने 1901 में पुन: उसको शुरू कराया। यह सामाजिक प्रगति का एक प्रधान साधन तो था ही, रवीन्द्र बाबू इसके द्वारा राजनीतिक अन्याय के विरुद्ध भी आवाज उठाया करते थे। 19 अक्टूबर 1905 में लार्ड कर्जन ने जब बंगाल को दो भागों में बांटने का फरमान जारी किया तो इसके विरोध में रवीन्द्र बाबू ने स्वदेशी समाज की स्थापना की। उनके नेतृत्व में लाखों लोगों का जुलूस “बिधिर बंधन काटिवे तुम एमनि शक्तिमान” (क्या तुम ऐसे शक्तिशाली हो कि विधाता द्वारा निर्मित संबंध का भी विच्छेद कर दोगे) गीत गाते हुए पूरे कोलकाता में घूमा और गंगा स्नान कर परस्पर राखी बांधकर प्रतिज्ञा की कि ऐसे अन्यायपूर्ण आदेश को कदापि स्वीकार नहीं किया जाएगा।
कवि रवीन्द्र केवल कल्पना में उड़ने वाले कवि न थे। उनकी मान्यता थी देश की समस्याओं का हल महंगी पाश्चात्य शिक्षा के द्वारा नहीं अपितु ऋषि प्रणीत प्राचीन गुरुकुल परंपरा के पुनर्जीवन से ही हो सकता है। इसीलिए उन्होंने “शांति निकेतन” की बुनियाद रखी। दो छात्र व दो अध्यापकों को लेकर शुरू की गयी यह संस्था आज विश्वविख्यात है। उन्होंने जहां एक ओर शांति निकेतन के द्वारा प्राचीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का पुनर्जीवन किया था वहीं 1912 में उन्होंने शांतिनिकेतन से तीन मील दूर कुछ जमीन खरीद कर श्री निकेतन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य विद्यार्थियों को कृषि, उद्योगों व व्यवसाय का व्यवहारिक प्रशिक्षण देना था।
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