भारत और अमेरिका के बीच 2+2 प्रारूप की वार्ता का चौथा संस्करण गत 11 अप्रैल को वाशिंगटन में संपन्न हुआ। इसमें भारत की ओर से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर तथा अमेरिका की ओर से विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन और रक्षा मंत्री आस्टिन लॉयड ने हिस्सा लिया। इस बैठक के दौरान न जाने क्यों परंपरा और प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए अमेरिकी रक्षा मंत्री ब्लिंकन ने भारत में तथाकथित मानवाधिकार उल्लंघन की बात छेड़ दी। उन्होंने कहा, ‘‘हम अपने भारतीय सहयोगियों के साथ इन मूल्यों को साझा करते रहते हैं और भारत में कुछ सरकारी, पुलिस तथा जेल अधिकारियों द्वारा किए जा रहे मानवधकारों के हनन पर नजर रखे हुए हैं’’। भारतीय विदेश मंत्री उस समय तो प्रोटोकॉल का पालन करते हुए कुछ नहीं बोले, किन्तु दो दिन बाद उन्होंने एक प्रेस कॉफ्रेंस में स्पष्ट कहा कि, ‘‘जितना अधिकार औरों को हमारे बारे में कोई धारणा बनाने का है, उतना ही अधिकार हमें भी उनके विषय में धारणा बनाने का है’’।
भारतीय विदेश मंत्री उस समय तो प्रोटोकॉल का पालन करते हुए कुछ नहीं बोले, किन्तु दो दिन बाद उन्होंने एक प्रेस कॉफ्रेंस में स्पष्ट कहा कि, ‘‘जितना अधिकार औरों को हमारे बारे में कोई धारणा बनाने का है, उतना ही अधिकार हमें भी उनके विषय में धारणा बनाने का है’’।
इस बयान के साथ, जयशंकर ने जता दिया कि भारत की सोच अब पहले की तरह आत्मरक्षात्मक नहीं रह गई है। अपने इस वक्तव्य में उन्होंने एक दिन पूर्व ही न्यूयॉर्क में रिचमंड पार्क इलाके में दो सिखों पर हुए जानलेवा हमले का जिक्र भी किया।
सवाल यह है कि असल में ब्लिंकन के इस बयान के पीछे वजह क्या है! दरअसल इसके तीन प्रमुख कारण हो सकते हैं। पहला, अमेरिका के इतिहास में ही इसकी जड़ें मौजूद हैं। अमेरिका की अट्ठारहवीं शती की स्वतंत्रता की लड़ाई ब्रिटिश उपनिवेशवाद में पिस रहे उन मानवाधिकारों को बहाल करने की लड़ाई थी जिनके पोषण को उन्नीसवीं सदी के दासता उन्मूलन संग्राम में बल मिला था। देखा जाए तो पश्चिम ने अपने अनुभवों के आधार पर मानवाधिकार निर्धारित कर लिए और उस मापदंड से थोड़े से कम को भी मानवाधिकारों का हनन बता दिया गया। पश्चिम की इन्हीं रूढ़ परिभाषाओं के कारण वहां गाहे-बगाहे मानवाधिकार हनन की दुहाई देना आधुनिकता की एक पहचान बन गया है। सों भला ब्लिंकन इस मुद्दे पर बोलने से क्यों पीछे रहते!
दूसरे, मानवाधिकारों का मुद्दा डेमोक्रेटिक पार्टी की नीतियों में एक प्रमुख एजेंडा रहा है। डेमोक्रेटिक पार्टी स्वयं को मानवाधिकारों की ध्वजवाहक के रूप में प्रस्तुत करती रही है। ऐसे में अमेरिकी विदेश सचिव का बयान अपनी घरेलू नीति के चलते जनता और मानवाधिकारों पर कार्यरत तमाम गैर-सरकारी संगठनों को संतुष्ट करने के उद्देश्य से भी दिया गया हो सकता है।
तीसरा कारण है, ताकतवर अमेरिका की ब्लैकमेल करने की आदत। आर्थिक और राजनीतिक तौर से कमजोर देशों पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगा कर अपने पक्ष में आने को मजबूर करना अमेरिकी कूटनीति का एक बड़ा हथियार है। यही कोशिश भारत के साथ भी की गयी, किन्तु सफलता नहीं मिली।
भारत की बात आज दुनिया के लगभग सभी महत्वपूर्ण मंचों पर बड़े गौर से सुनी जाती है। जयशंकर की ब्लिंकन को उन्हीं की भाषा में दिया गया जवाब भारत की मजबूत विदेश नीति और बराबरी के दर्जे को दर्शाता है। आज अमेरिका या दुनिया के अन्य देशों के शीर्ष नेता भी संकट काल में भारत की ओर देखते हैं।
ब्लिंकन के बयान पर भारत के विदेश मंत्री जयशंकर की प्रतिक्रिया ऐसे समय में आई है जब अमेरिका बार-बार भारत को रूस का विरोध न करने पर ‘परिणाम भुगतने’ की चेतावनी देता रहा है। जयशंकर की प्रतिक्रिया यह जताती है कि भारत अब पहले वाला भारत नहीं है जो चुपचाप किसी देश के बेमतलब के बोल सहेगा। यह रूख भारतीय विदेश नीति की एक स्पष्ट और मुखर दिशा दिखाता है। वैसे भी अमेरिका का मानवधकार रिकॉर्ड सराहनीय नहीं रहा है। कु क्लक्स क्लान जैसे दलों की उत्पत्ति, मार्टिन लूथर किंग जूनियर की अश्वेतों के अधिकार के लिए लड़ते हुए निर्मम हत्या और हाल में ही ‘ब्लैक लाइव्स मैटर्स’ जैसे आंदोलनों की जरूरत इस बात का प्रतीक है कि अभी भी दुनिया के सबसे ताकतवर लोकतंत्र होने का दम भरने वाले अमेरिका में सब कुछ ठीक नहीं है। रंगभेद का तो वहां यह आलम रहा है कि वहां पहला अश्वेत राष्ट्रपति दासता उन्मूलन के 140 वर्ष बाद ही चुना जा सका था।
अमेरिका में इस समय कई ऐसी संस्थाएं सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों में काम कर रही हैं जो मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने का दावा करती हैं। ऐसी ही एक संस्था है ‘अंतरराष्ट्रीय पांथिक स्वतंत्रता के लिए अमेरिका का आयोग’। यह 1998 में संघीय सरकार द्वारा स्थापित संस्था है जिसमें नौ आयुक्त हैं। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह आयोग विश्व में कहीं भी होने वाले पांथिक अधिकारों के हनन के मुद्दे उठाता रहा है। यह हर साल विभिन्न देशों में होने वाले पांथिक अधिकारों के उल्लंघन पर एक रिपोर्ट तैयार करता है और अमेरिकी सरकार को तद्नुसार सुझाव देता है। यहां इस आयोग का उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह आयोग विगत तीन साल से अमेरिकी सरकार को सुझाव देता रहा है कि ‘भारत में पांथिक असहिष्णुता के बढ़ते मामलों के कारण उसे विशेष चिंताजनक स्थिति के देशों की सूची में रखा जाना चाहिए’। ऐसी सूची में अभी चीन, म्यांमार, सऊदी अरब, उत्तर कोरिया, ईरान, रूस, पाकिस्तान समेत 29 देश शामिल हैं। यह आयोग कितना एकांगी है, यह इसी से पता चल जाता है कि इस सूची में यूरोप का कोई भी देश शामिल नहीं है यानी इस रिपोर्ट की मानें तो समस्त यूरोप में पूर्ण और निर्बाध पांथिक स्वतंत्रता मौजूद है! जबकि सत्य तो यह है कि अभी भी यूरोप के कई देशों में पांथिक आधार पर भेदभाव किया जाता है। पिछले वर्ष प्रस्तुत की गयी 2020 की अपनी रिपोर्ट में इस आयोग ने भारत पर एक ‘व्यवस्थित तरीके से किए जा रहे पांथिक स्वतंत्रता के निरंतर और प्रबल हनन’ का आरोप लगाया है। इस रिपोर्ट ने विदेशी मुद्रा नियंत्रण कानून का दुरुपयोग करते हुए नागरिक संस्थाओं के कार्यक्षेत्र को सीमित करने का भी आरोप लगाया, क्योंकि इससे कुछ अमेरिकी संस्थाओं को अपना एजेंडा चलने में आर्थिक परेशानी आ रही थी।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ अमेरिकी लोगों ने भारत तथा भारतीयों की अतार्किक निंदा की है। उदहारण के तौर पर पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय में कानून की प्रोफेसर एमी वैक्स दक्षिण एशिया, विशेषकर भारत के प्रति अपने दुराग्रहों के लिए कुख्यात रही हैं। अभी हाल में ही उन्होंने भारतीय महिलाओं को निशाना बनाते हुए कहा कि ‘‘ब्राह्मण महिलाएं अमेरिका में आ कर भी अपना उच्चजातीय दम्भ नहीं छोड़तीं, वे अमेरिकी समाज और संस्कृति को बुरा-भला कहती हैं’’। उन्होंने भारत समेत एशियाई और अश्वेत लोगों के प्रति अपनी भड़ास निकलते हुए उन्हें मानसिक रूप से श्वेतों की तुलना में कमतर करार दिया। वहीं कई अमेरिकी सीनेटर तो अपने अव्यावहारिक भारत विरोध के लिए जाने जाते रहे हैं। लेकिन आज माहौल बदल चुका है। यह नया भारत है जिसकी अपनी एक पहचान है, एक कद है। इस भारत की बात आज दुनिया के लगभग सभी महत्वपूर्ण मंचों पर बड़े गौर से सुनी जाती है। जयशंकर की ब्लिंकन को उन्हीं की भाषा में दिया गया जवाब भारत की मजबूत विदेश नीति और बराबरी के दर्जे को दर्शाता है। आज अमेरिका या दुनिया के अन्य देशों के शीर्ष नेता भी संकट काल में भारत की ओर देखते हैं।
आज के परिप्रेक्ष्य में अगर भारत को अमेरिका का साथ चाहिए तो उतना ही अमेरिका को भी भारत का साथ चाहिए। इसलिए अमेरिका विश्व राजनीति में भारत के महत्व को नकार नहीं सकता, और उसके प्रति किसी दुष्प्रचार में आना गवारा नहीं कर सकता।
(लेखक पूर्व राजदूत और विदेश मामलों के जानकार हैं)
टिप्पणियाँ