आजकल लगभग हर जगह एक मुहिम चल रही है। पेड़-पौधे वनस्पति आदि को खोज-खोजकर उनकी एक-एक विशेषता जानने और उसका उपयोग करने का पूरी दुनिया में बड़ा अच्छा काम हो रहा है। पिछले दो दशक में ही गिलोय और पत्थरचट्टा जैसी अमूमन नजरअंदाज कर दी जाने वाली वनस्पति कई रोगों में रामबाण औषधि साबित हो रही है और हर जगह चलन में आ चुकी है। चूंकि हर कोई अपने परिवेश की हरीतिमा से लाभान्वित होना चाहता है, इसलिए यह काम निरंतर विस्तार पा रहा है।
पिछले दिनों हम लोग एक ऐसी ही उपयोगी वनस्पति से अवगत हुए जिसे कि मादक पौधा माना जाता है पर यह तो एक उपयोगी पौधा है। इसका नाम है भांग। बस में बहुत भीड़ थी और सब पसीना-पसीना हो रहे थे कि एक जगह बस रुकी तो एक सवारी ने सड़क पर से भांग का पौधा देख उसकी पत्तियां बस मे रख दीं। पूरी बस में महक फैल गई और दो-तीन मिनट मे सब लोग जो पहले पसीने की गंध से बेचैन होकर चिड़चिडेÞ हो रहे थे, वे तरोताजा होकर गपशप करने लगे। तब बारीकी से इस पौधे की जानकारी ली। पता लगा कि भांग एक हरे रंग का पौधा होता है और बीज, डंठल, पत्ती सहित पूरा पौधा ही बहुपयोगी होता है। इसके बीजों से निकलने वाले तेल से औषधियां बनती हैं। इसके अलावा इससे बहुत सारे उपयोगी सामान भी बनता है।
भांग के पौधे का कोई घर नहीं होता। यह जिसके हाथ लग गया, बस उसी का हो जाता है। पर्वतीय क्षेत्र में भांग प्रचुरता से होती है। खाली पड़ी जमीन पर भांग के पौधे स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाते हैं। लेकिन बहुत से लोग अनजान होते हैं जो इसके उपयोग को नहीं जानते हैं। जहां यह एक बार पनपा होगा, वहां बरसात के बाद भांग के पौधे यत्र-तत्र-सर्वत्र देखे जा सकते हैं।
यह हमारी अज्ञानता ही है कि अभी तक अधिकतर लोग इसे सिर्फ नशे के लिए इस्तेमाल होने वाला पदार्थ ही समझते हैं, जबकि ऐसा बिल्कुल नही है। भांग का पौधा कितनी उपयोगी हो सकता है, यह कोई भी अगर उत्तराखंड के कुमाऊं या गढ़वाल के पहाड़ी गांवों मे देखना चाहे तो साफ देख सकता है। भांग का वानस्पतिक नाम है ‘कानाबीस इडिका’। इसकी पत्तियों को पीस कर भांग तैयार की जाती है। कहीं-कहीं इन्हें गनरा-भांग, बण-भांग, जंगली-भांग भी कहते हैं।
यह हिमालय के उत्तर-पूर्व जनपदों में उगाई जाती है। भांग की खेती प्राचीन समय में ‘पणि’ कहे जाने वाले लोगों द्वारा की जाती थी। उत्तर भारत में घर-घर में इसका प्रयोग बहुतायत से स्वास्थ्य के लिए जैसे कि बदन दर्द दूर करने तथा अन्य दवाओं के लिए किया जाता है। भारत में भांग के अपने-आप पैदा हुए पौधे तो हर तरह की जलवायु में, सभी तरह की मिट्टी में, सब जगह पाए जाते हैं। लेकिन भांग विशेषकर कुमाऊं, गढ़वाल, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल में प्रचुरता से पाई जाती है। होली के अवसर पर मिठाई और ठंडई में इसका प्रयोग करने की परंपरा है।
इसकी खासियत यह है कि आप इसका बीज कहीं भी डाल दीजिए, यह सात दिन में अंकुरित हो जाता है और बहुत कम देखभाल में भी एक साल में तीन से चौदह फुट लम्बाई तक बढ़ जाने वाले भांग के लम्बे-लम्बे गोल डंठल की ऊपरी त्वचा से ही भांग के रेशे का उत्पादन होता है। ये बारीक रेशे क्यूटिकल नामक त्वचा से ढके रहते हैं। भांग का रेशा अधिकतर नर पौधे से प्राप्त होता है यानी मादा पौधे से रेशा कम निकलता है, जबकि बीज और नशीला पदार्थ मादा पौधे से निकलता है। बीज का उपयोग तेल निकालने और मसाले के रूप में किया जाता है। नर पौधे से निकलने वाले रेशे को भंगेला कहते हैं।
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कुमाऊं में शासन स्थापित होने से पहले ही भांग के व्यवसाय को अपने हाथ में ले लिया था तथा काशीपुर के नजदीक डिपो की स्थापना कर ली थी। दानपुर, दसोली तथा गंगोली की कुछ जातियां भांग के रेशे से कुथले और कम्बल तक बनाती थीं। यह काम आज भी कुछ गांवों में किया जाता है। पर यह लागत में महंगा पड़ता है और इसके लिए पर्याप्त बाजार नहीं है, इसलिए कुछ लोग इसे अपने लिए बनाकर रख लेते हैं, वैसे ही जैसे आजकल आप इमली के बीज की माला व आभूषण बस कुछ जनजातियों को ही पहने हुए देख सकते हैं, क्योंकि न बाजार है, न खरीदार।
गांवों मे तो एक कहावत चलती है कि भांग के पौधे का कोई घर नहीं होता। यह जिसके हाथ लग गया, बस उसी का हो जाता है। पर्वतीय क्षेत्र में भांग प्रचुरता से होती है। खाली पड़ी जमीन पर भांग के पौधे स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाते हैं। लेकिन बहुत से लोग अनजान होते हैं जो इसके उपयोग को नहीं जानते हैं। जहां यह एक बार पनपा होगा, वहां बरसात के बाद भांग के पौधे यत्र-तत्र-सर्वत्र देखे जा सकते हैं।
इसका सबसे बड़ा इस्तेमाल गांव-गांव में कुपोषण को दूर करने में किया जा सकता है। कैल्शियम और लोहा समेत इसमें प्रोटीन की उच्च मात्रा होती है। गांव में इसे उगाने वाले कहते हैं, इस खेती में लागत बेहद कम है। जंगली प्रजाति होने के कारण कैसी भी जमीन हो, यह पौधा उगाया जा सकता है। इसकी खेती में खाद और पानी की बेहद सीमित मात्रा इस्तेमाल होती है। पहाड़ की लोक कला में भांग से बनाए गए कपड़ों की कला बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन मशीनों द्वारा बुने गए बोरे, चटाई इत्यादि की पहुंच घर-घर में हो जाने तथा भांग की खेती पर प्रतिबंध के कारण इस कला के समाप्त हो जाने का भय है।
पुरातन समय में जब जूते, चप्पलों का प्रचलन नहीं था, तब भेड़-बकरी पालक और तिब्बत के साथ व्यापार करने वाले लोग-भेड़-बकरी की खाल से बने जूतों के बाहर भांग की रस्सी से बुने गए छपेल का प्रयोग करते थे। ऐसे जूते पांव को गर्म तो रखते ही थे, साथ ही बर्फ में फिसलने से रोकते थे
पुरातन समय में जब जूते, चप्पलों का प्रचलन नहीं था, तब भेड़-बकरी पालक और तिब्बत के साथ व्यापार करने वाले लोग-भेड़-बकरी की खाल से बने जूतों के बाहर भांग की रस्सी से बुने गए छपेल का प्रयोग करते थे। ऐसे जूते पांव को गर्म तो रखते ही थे, साथ ही बर्फ में फिसलने से रोकते थे। भेड़-बकरियों की पीठ पर माल ढोने के लिए भांग के रेशों से बनाए गए थैले भी पुराने समय में प्रचलन में थे। लोग लंबे समय से हवा शुद्ध करने और सीलन की गंध दूर करने के रूप में भांग के सूखे पत्ते का इस्तेमाल करते रहे हैं। इसके पौधे की छाल से रस्सियां बनती हैं। इसका डंठल कहीं-कहीं मशाल का काम भी देता है। कई देशों में इसे दवा के रूप में भी उपलब्ध कराया जाता है। कोई भी हल्की नम जगह भांग के उत्पादन लिए बहुत अनुकूल रहती है।
आज जबकि पूरे देशभर में किसान आर्थिक संकट मे हैं जिसकी वजह लगातार घाटे का सौदा बनती खेती है। लेकिन औद्योगिक भांग की खेती कर वे उससे कम से कम तीन गुना मुनाफा कमा सकते हैं। उत्तराखंड के पहले ‘इन्वेस्टर्स समिट’ में पहुंचे इंडिया इंडस्ट्रियल हेम्प एसोसिएशन (आईआईएचए) के अध्यक्ष रोहित शर्मा कहते हैं, ‘‘जब देश में खेती में हो रहे घाटे से किसान परेशान हैं, ऐसे में औद्योगिक भांग की खेती किसानों के भीतर एक नई ऊर्जा भर सकती है।’’
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