बड़ी दिलचस्प बात है कि दो ऐसे नेता, जो अलग-अलग भू-भागों से हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम पर अपनी नापसंदगी जाहिर करते समय एक ही पाले में खड़े नजर आते हैं। एक हैं पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान, जिन्हें पाकिस्तान नेशनल असेंबली में विपक्षी दलों द्वारा संयुक्त रूप से पेश अविश्वास प्रस्ताव के सामने पराजित होकर अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। अपना दुख व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि ‘संघ की विचारधारा और कश्मीर में जो भी हुआ’ उसके कारण भारत के साथ उनके संबंध अच्छे नहीं रहे। पिछले साल जुलाई में ताशकंद में आयोजित मध्य-दक्षिण एशिया सम्मेलन में भी खान ने कुछ ऐसी ही बात को जोर देकर कहा था कि, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा’ के कारण ही दोनों देशों के बीच पुन: कोई बातचीत नहीं शुरू हो सकी।’
संघ को नापसंद करने वाले दूसरे नेता हैं भारत के वरिष्ठ कांग्रेस नेता राहुल गांधी, जिन्होंने हाल ही में दिल्ली में एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में चिंता जताते हुए कहा कि ‘हमें अपने संस्थानों की रक्षा करनी है। लेकिन सभी संस्थाएं संघ के हाथों में हैं।’ साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्षी दलों’ से एकजुट होने का आह्वान भी किया।
अजीब संयोग है कि इन दोनों नेताओं को यह नहीं दिखता कि उनकी पराजय का कारण उनकी अपनी विफल राजनीति है, लेकिन वे संघ पर दोष मढ़कर अपने हाथ झाड़ लेते हैं। दोनों को यह समझना होगा कि उनके राजनीतिक भाग्य का फैसला दोनों देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं ने किया है।
दक्षिण एशिया के देशों में लोकतंत्र की स्थापना जितनी मजबूत होगी, उनके लिए उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि इस क्षेत्र के अन्य प्रमुख खिलाड़ी चीन, जिसके इस क्षेत्र के कई देशों के साथ घनिष्ठ संबंध हैं, में एक अलग ही राजनीतिक प्रणाली काम करती है। इस क्षेत्र में चीन जितनी उदारता से सहायता प्रदान करता है, उसके राजनीतिक हितों की पूर्ति का उद्देश्य भी उतने ही स्वार्थ के साथ जुड़ा रहता है, जो हानिकारक है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अभिन्न और प्रभावशाली अंग है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद भारत का संविधान बनने से पहले 1949 में ही संघ अपना एक संविधान बना चुका था। 1975-77 में देश की राजनीति में राहुल की दादी इंदिरा गांधी जब भारतीय लोकतंत्र को कुचल कर आपातकाल के रूप में एक बेहद काला अध्याय लिख रही थीं, उस समय सिर्फ एक संगठन ने उनकी तानाशाही के खिलाफ देश का कवच बनने का संकल्प लिया था, वह था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसने लोकतंत्र को पुन: बहाल करने का मार्ग प्रशस्त किया।
द इकोनॉमिस्ट ने 12 दिसंबर, 1976 को लिखा था, ‘श्रीमती गांधी के खिलाफ उभरा भूमिगत अभियान दुनिया में एकमात्र गैर-वामपंथी क्रांतिकारी आंदोलन है जिसमें रक्तपात और वर्ग संघर्ष, दोनों के लिए कोई जगह नहीं है। इस अभियान की भूमिगत टुकड़ियों में लाखों कैडर हैं जो गांव के स्तर पर चार पुरुष सेल में संगठित हैं। उनमें से ज्यादातर संघ के नियमित सदस्य हैं। हालांकि, अब इसमें नए युवा सदस्यों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। अन्य भूमिगत दल जो अभियान में भागीदार के तौर पर उभरे, अंतत: जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ही मिल गए।’
राहुल का यह दावा कि उन्हें सत्ता में कोई दिलचस्पी नहीं, ‘अंगूर खट्टे हैं’ की उपमा याद दिलाता है। उनके और उनकी पार्टी के निकट भविष्य में सत्ता में वापस आने की कोई संभावना नहीं है। चुनाव दर चुनाव कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है। यह भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता है जो वंशवाद और विरासती राजनीति को खारिज करती है जिसके बारे में राहुल ने उस समारोह में गर्व से कहा कि वह ‘सत्ता के केंद्र में’ पैदा हुए हैं। दक्षिण एशियाई देशों के कठिन राजनीतिक दौर में भारतीय लोकतंत्र आशा और विश्वास की एक किरण बन रहा है।
आज भारत के दो पड़ोसी देशों-पाकिस्तान और श्रीलंका- में लोकतांत्रिक व्यवस्था पर स्याह बादल छाए हैं। जहां पाकिस्तान में इमरान खान को एकजुट और दृढ़ विपक्ष द्वारा पेश अविश्वास प्रस्ताव में पराजित होकर अपनी सत्ता गंवानी पड़ी, वहीं श्रीलंका में राजपक्षे परिवार के नेतृत्व वाली सरकार राष्ट्रव्यापी विद्रोह का सामना कर रही है।
इमरान खान और गोटबाया राजपक्षे, दोनों क्रमश: 2018 और 2019 में लोकप्रिय छवि के साथ मजबूत जनादेश के जरिए सत्ता में आए। दोनों ने अपने-अपने देशों में गठबंधन सरकार बनाई और दोनों को ही अपनी-अपनी सेनाओं का समर्थन प्राप्त था। आज, जहां इमरान को सत्ता गंवानी पड़ी, वहीं राजपक्षे का नेतृत्व गंभीर लोकतांत्रिक चुनौतियों का सामना कर रहा है।
हालांकि, दोनों में खास अंतर है। जहां, 1948 में स्वतंत्र होने के बाद से श्रीलंका में लंबे समय तक एक सफल लोकतंत्र रहा, वहीं,1947 में निर्मित पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जड़ें कभी भी मजबूत नहीं हो पाई। इस क्षेत्र के देशों में लोकतांत्रिक प्रणाली के पोषण में अगर कोई देश प्रेरणा बना, तो वह है भारत, जो स्वतंत्रता के समय से ही लोकतंत्र का उत्कृष्ट उदाहरण बना हुआ है। श्रीलंका और पाकिस्तान में छाए राजनीतिक संकट में उनकी नजरें भारतीय लोकतंत्र की ओर उम्मीद से टिकी हैं। इन देशों की सरकारें आज भारत की लोकतांत्रिक विशिष्टताओं का गुणगान कर रही हैं और उसके समर्थन की अपेक्षा कर रही हैं।
भारत के उदाहरण ने नेपाल और भूटान जैसे अन्य पड़ोसी देशों को भी लोकतंत्र की राह चुनने की प्रेरणा दी। 1959 में थोड़े समय के लिए लोकतंत्र को आजमाने के बाद नेपाल ने 1990 के दशक में राजशाही को पीछे छोड़ दृढ़ता से लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना लिया। भूटान में राजा ने खुद 2008 में लोकतंत्र की स्थापना के लिए कदम उठाया। मालदीव ने 1968 के जनमत संग्रह के बाद से एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के निर्माण के लिए मजबूत प्रयास किए। बांग्लादेश को शुरू में लोकतंत्र की स्थापना के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा किया, क्योंकि सैन्य शासकों ने बार-बार इस व्यवस्था के सामने रोड़े बिछाए। अंतत: 1990 के दशक के बाद से वहां एक सुव्यवस्थित लोकतंत्र स्थापित हुआ।
दक्षिण एशिया के देशों में लोकतंत्र की स्थापना जितनी मजबूत होगी, उनके लिए उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि इस क्षेत्र के अन्य प्रमुख खिलाड़ी चीन, जिसके इस क्षेत्र के कई देशों के साथ घनिष्ठ संबंध हैं, में एक अलग ही राजनीतिक प्रणाली काम करती है। इस क्षेत्र में चीन जितनी उदारता से सहायता प्रदान करता है, उसके राजनीतिक हितों की पूर्ति का उद्देश्य भी उतने ही स्वार्थ के साथ जुड़ा रहता है, जो हानिकारक है।
अफसोस की बात है कि पश्चिमी टिप्पणीकार इस क्षेत्र में सफल लोकतंत्र के उदाहरणों से जान-बूझकर अनजान बनते हुए इसके ठीक विपरीत लोकतांत्रिक व्यवस्था के अभाव की कहानी गढ़कर इस क्षेत्र के देशों पर अनुचित दबाव डालने का प्रयास करते हैं। इसका ताजा उदाहरण है-इस वर्ष फरवरी में संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश विभाग द्वारा ‘लोकतंत्र के लिए शिखर सम्मेलन’ का आयोजन जिसके लिए हमारे दो पड़ोसियों नेपाल और मालदीव को निमंत्रण मिला, लेकिन भूटान और श्रीलंका की उपेक्षा कर दी गई। हैरानी की बात है कि पाकिस्तान जैसा लड़खड़ाता लोकतंत्र अमेरिकी विदेश विभाग की नजर में इस शिखर सम्मेलन में शामिल होने के योग्य था, जबकि बांग्लादेश, जहां पाकिस्तान के मुकाबले एक बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था है, को निमंत्रण नहीं भेजा गया। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस शिखर सम्मेलन को वर्चुअल माध्यम से संबोधित किया। चीन, जैसा जाहिर था, ने न केवल शिखर सम्मेलन का विरोध किया, बल्कि ‘अमेरिकी लोकतंत्र की स्थिति’ पर एक रिपोर्ट जारी करते हुए इसे ‘बेकार’ ठहरा दिया।
भारत सैद्धांतिक तौर पर अन्य देशों के मामलों में हस्तक्षेप करने से परहेज करता है। फिर भी विश्व के सबसे बड़े, कुशल और सफल लोकतंत्र के तौर पर भारत एक ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण है जो उसके पड़ोसी देशों को उनकी मौजूदा चुनौतियों का समाधान दिखा सकता है। अगर उन्हें प्रभुत्ववादी और तानाशाही शासन के पंजे से बचना है तो उन्हें भारत जैसे लोकतंत्र का मार्ग अपनाना होगा।
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के ख्यात टिप्पणीकार हैं)
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