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अप्रतिम पर्यावरण पुरुष भगवान महावीर

आज से करीब ढाई हजार साल पहले (599 ई.पूर्व ) एक राजघराने में जन्मे महावीर स्वामी का सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या व अहिंसा का अनुपम उदाहरण है।

by पूनम नेगी
Apr 14, 2022, 11:47 am IST
in भारत, संस्कृति
महावीर स्वामी

महावीर स्वामी

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भगवान महावीर को ‘पर्यावरण पुरुष’ कहा जाता है और अहिंसा को पर्यावरण संरक्षण का अनूठा विज्ञान। आज से करीब ढाई हजार साल पहले (599 ई.पूर्व ) एक राजघराने में जन्मे महावीर स्वामी का सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या व अहिंसा का अनुपम उदाहरण है। उन्होंने एक लंगोटी तक का परिग्रह नहीं किया। पूरी दुनिया में पंचशील (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अत्सेय व क्षमा) के सिद्धांत देने वाले स्वामी महावीर ने न सिर्फ मानव अपितु सम्पूर्ण प्राणी समुदाय के कल्याण और विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त किया था। भगवान महावीर मानते थे कि जीव और अजीव से संयुक्त इस सृष्टि में मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये जो अजीव तत्व हैं, इन सब में भी जीवन है; इसलिए इनके अस्तित्व को अस्वीकार नहीं करना चाहिए। इनके अस्तित्व को नकारने का मतलब है अपने स्वयं के अस्तित्व को अस्वीकार करना। स्थावर या जंगम, दृश्य और अदृश्य सभी जीवों का अस्तित्व स्वीकारने वाला मनुष्य ही सही मायने में पर्यावरण और मानव जाति की रक्षा के बारे में सोच सकता है।

जियो और जीने दो

जैन समुदाय का सर्वाधिक लोकप्रिय सूत्र वाक्य है “जियो और जीने दो”। जीव हत्या को जैन समुदाय में सबसे बड़ा पाप माना गया है। मानव समाज के कुकृत्यों के चलते आज हजारों प्राणियों की जाति-प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं और कइयों पर संकट गहराता जा रहा है। यदि धर्म के नाम पर या अन्य तमाम कारणों के चलते इसी तरह जीवों की हत्याएं होती रहेंगी तो एक दिन मानव भी नहीं बचेगा। मांसाहारी लोग तर्क देते हैं कि यदि मांस नहीं खाएंगे तो धरती पर दूसरे प्राणियों की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि वे मानव के लिए ही खतरा बन जाएंगे। लेकिन क्या उन्होंने कभी यह सोचा है कि मानव के कारण आज कितनी प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं। धरती पर सबसे बड़ा खतरा तो मानव ही है, जो शेर, सियार, बाज, चील जैसे सभी विशुद्ध मांसाहारी जीवों के हिस्से का मांस खा जाता है जबकि उसके लिए तो भोजन के और भी साधन हैं। इसी कारण जंगल के सारे जानवर भूखे-प्यासे मर रहे हैं। मांस खाने को धार्मिक रीति मानना वस्तुतः अधर्म है। मांस भक्षण के पक्ष में दिये जाने वाले तर्क अब विज्ञान के पैमाने पर भी बेमानी साबित हो रहे हैं।

जैन समुदाय में चैत्य वृक्षों या वनस्थली की परंपरा

आज पर्यावरण संकट गहराते जाने का मूल कारण यह है कि हम पहाड़ों एवं वृक्षों को काटकर कंक्रीट के जंगलों का विस्तार करते जा रहे हैं। यदि जल्द ही न चेते तो वह दिन दूर नहीं जब मानव को रेगिस्तान की चिलचिलाती धूप में प्यासा मरना होगा। जंगलों से हमारा मौसम नियंत्रित और संचालित होता है। जंगल की ठंडी आबोहवा नहीं होगी तो सोचो धरती किस तरह आग की तरह जलने लगेगी? आज महानगरों के कई लोग जंगलों को नहीं जानते, इसीलिए उनकी आत्माएं सूखी हुई हैं। जियो और जीने दो के संदेशवाहक महावीर स्वामी की मान्यता थी कि यह संपूर्ण जगत आत्मा का ही खेल है। वृक्षों में भी महसूस करने और समझने की क्षमता होती है। यह बात आज पर्यावरण और जीव विज्ञानियों की शोधों से भी हो चुकी है। जैन समुदाय में चैत्य वृक्षों या वनस्थली की परंपरा रही है। इस परम्परा में वृक्षों को काटना अर्थात उसकी हत्या करना महापाप माना गया है। वे कहते थे कि वृक्ष से हमें असीम शांति और स्वास्थ्य मिलता है। उनके अनुसार चेतना जागरण में पीपल, अशोक, बरगद आदि वृक्षों का विशेष योगदान रहता है। इसीलिए इस तरह के सभी वृक्षों के आस-पास चबूतरा बनाकर उन्हें सुरक्षित करने की परम्परा उस समय में डाली गयी थी ताकि वहां बैठकर व्यक्ति शांति का अनुभव कर सके। जैन समुदाय ने सर्वाधिक पौधों को लगाए जाने का संदेश दिया है। सभी 24 तीर्थंकरों के अलग-अलग 24 पौधे हैं। जैन समुदाय वृक्षों को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानता है। आज पर्यावरण विज्ञान भी कहता है कि ये वृक्ष भरपूर ऑक्सीजन देकर व्यक्ति की चेतना को जाग्रत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सभी समान हैं न कोई छोटा, न कोई बड़ा

भगवान महावीर का दूसरा प्रमुख संदेश प्राणी मात्र के कल्याण के लिए बराबरी व भाईचारे का है। उन्होंने मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की सभी दीवारों को ध्वस्त कर जन्मना वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। उनकी मान्यता थी कि इस विश्व में न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। उन्होंने गुण-कर्म के आधार पर मनुष्य के महत्व का प्रतिपादन किया। वे कहते थे कि ऊंच-नीच, उन्नति-अवनत, छोटे-बड़े सभी अपने कर्मों से बनते हैं; जातिवाद अतात्विक है। सभी समान हैं न कोई छोटा, न कोई बड़ा। भगवान महवीर की दृष्टि समभावी थी- सर्वत्र समता भाव। वे सम्पूर्ण विश्व को समभाव से देखने वाले तथा समता का आचरण करने वाले साधक थे। उनका प्रतिमान था-जो व्यक्ति अपने संस्कारों का निर्माण करता है, वही साधना का अधिकारी है। उनकी वाणी ने प्राणी मात्र के जीवन में मंगल प्रभात का उदय किया। एक बार किसी जिज्ञासु ने महावीर जी से यह जिज्ञासा व्यक्त की कि आत्मा आंखों से नहीं दिखाई देती तो क्या इस आधार पर उसके अस्तित्व पर शंका नहीं की जा सकती? भगवान ने बहुत सुंदर उत्तर दिया , ‘भवन के सब दरवाजे एवं खिड़कियां बन्द करने के बाद भी जब भवन के अन्दर संगीत की मधुर ध्वनि होती है तब आप उसे भवन के बाहर निकलते हुए नहीं देख पाते। किन्तु आंखों से दिखाई न पड़ने के बावजूद संगीत की वह मधुर ध्वनि बाहर खड़े श्रोताओं को सुनायी पड़ती है। इसी तरह आंखें अरूपी आत्मा को नहीं देख सकती हैं? अमूर्तिक आत्मा का इन्द्रिय दर्शन नहीं होता, अनुभूति होती है।

मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है 

प्रत्येक आत्मा में परम ज्योति समाहित है। प्रत्येक चेतन में परम चेतन समाहित है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में स्वतंत्र, मुक्त, निर्लेप एवं निर्विकार है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकती है। मनुष्य अपने सत्कर्म से उन्नत होता है। भगवान महावीर ने प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त होने का अधिकार प्रदान किया। मुक्ति दया का दान नहीं है, यह प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है। जो आत्मा बंधन का कर्ता है, वही आत्मा बंधन से मुक्ति प्रदाता भी है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, मनुष्य अपने भाग्य का नियंता है, मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है। वर्तमान विश्व गहराते पर्यावरण संकट के साथ विश्वयुद्ध जैसी भयावह चुनौतियों का सामना कर रहा है। इन समस्याओं के समाधान में भगवान महावीर का अहिंसा का दर्शन ही एकमात्र कारगर उपाय है। ग्लोबल वार्मिग, पानी की किल्लत, जलवायु परिवर्तन आदि समस्याएं चीख-चीख कर हमें चेतावनी दे रही हैं कि पर्यावरण संरक्षण के लिए अहिंसा के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं।

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