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देश, लोकतंत्र के रूप में विफल पाकिस्तान

पाकिस्तान अगर आज भी उसी तर्ज पर चलना चाहता है तो उसे आज से भी खराब स्थिति में जाने से कोई नहीं रोक सकता। इमरान की कप्तानी का रहना न रहना तो सिर्फ फौरी बात है।

हितेश शंकर by हितेश शंकर
Apr 4, 2022, 12:15 pm IST
in भारत, सम्पादकीय
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पाकिस्तान में एक बार फिर सियासी उठापटक चरम पर है। प्रधानमंत्री इमरान खान की विदाई के लिए विपक्षी तो छोड़िए, सहयोगी दल और पाकिस्तान के अन्य हितधारक भी एकजुट दिख रहे हैं। हर पल कोई नई सुगबुगाहट, नया मोड़, दिखता है। हालांकि सभी मोड़ों की मंजिल एक ही है तहरीक-ए-इंसाफ का तख्तापलट।
यह केवल सरकार में जनता के भरोसे और सदन में विश्वास मत का मामला नहीं है, यह लोकतंत्र के प्रति पाकिस्तानी तंत्र के अविश्वास की लंबी कहानी के अगले अध्याय का आरम्भ है।
पाकिस्तान में जब भी कुछ होता है तो दुनिया उसे बड़े ध्यान से देखती है।
इसके बहुत सारे कारण हैं
’ कुछ लोगों के लिए पाकिस्तान महाशक्तियों के बीच में एक मुनाफाखोर बिचौलिए के किरदार की तरह है जो रूस और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध के दौरान रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण अफ-पाक क्षेत्र में एक दांव था।
’ मुस्लिम जगत में यह जिज्ञासा का वह बिंदु है जिसे अरब जगत कोई अहमियत नहीं देता, मगर मुस्लिम जगत की रहनुमाई करने की उसकी ललक और उछलकूद वैश्विक मंचों पर दिखती आई है।
’ लोकतांत्रिक जगत में अध्येता इसे लोकतंत्र के नाम पर हो रहे छल के प्रयोगों के सफल उदाहरण के तौर पर देखते हैं।
और, इतिहास और मानवता के विकास को समझने और पढ़ने वाले लोग इसको इस तरह से देखते हैं कि एक देश ने अपनी यात्रा मजहबी बुनियाद और बड़े-बड़े वादों और सपनों के साथ शुरू की थी, उसके पीछे का फलसफा भी बताया था, लोगों को भरमाकर एकजुट भी किया था, मगर वास्तव में वे सारी बातें झूठी निकलीं।
इसलिए भी पाकिस्तान की ओर सबकी नजर जाती है। आप यह भी कह सकते हैं कि पाकिस्तान उन्माद, असमानता, कुंठा और आक्रोश का घनीभूत विध्वंसक जखीरा है जो वैश्विक ताने-बाने को प्रभावित कर सकता है। और अपनी इसी नकारात्मकता के कारण वह लोगों की नजरों में रहता है। बड़ी बात यह कि पाकिस्तानी सत्ता के साझीदार (सेना सहित) अपनी इस नकारात्मकता की कीमत जानते हैं और आवाम तथा विश्व बिरादरी, दोनों से इसका मनमाना मोल वसूलते हैं।

मजहब का कांटा, आवाम की मछली
पाकिस्तान के विचार के लिए मजहब के नाम पर पर मुस्लिम एकता और हिन्दू द्वेष को पोसा गया था। इस गोलबंदी की विडंबना यह थी कि भारत के लिए इस्लाम, उम्मत और मनुष्य को मनुष्य के बजाय काफिर के तौर पर देखना और बर्बरता पूर्वक व्यवहार करना बाहरी और त्याज्य विचार था। यहां के लोगों को उनके पुरखों, उनकी जमीन, विचार – संस्कृति, या कहिए, जड़ों से काटकर पाकिस्तान बनाया गया। शायद इसीलिए लोकतंत्र, महिला स्वतंत्रता, मानवाधिकार जैसी कसौटियों पर देश के तौर पर यह पौधा कभी पनप नहीं सका।
– पाकिस्तान का राजनीतिक स्थिरता सूचकांक में 2.4 अंक रहा जो कि इसके लोकतान्त्रिक अस्थिरता को दर्शाता है।
– ह्यूमन राइट्स वॉच की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान के संस्थागत तंत्र महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। जॉर्ज टाउन विश्वविद्यालय द्वारा जारी वैश्विक महिला शांति सुरक्षा सूचकांक में पाकिस्तान 170 देशों में से 167वें स्थान पर है।
1947 से लेकर अब तक का पाकिस्तान का लोकतांत्रिक इतिहास लड़खड़ाहटों से भरा है। यहां कभी भी लोकतांत्रिक सरकार स्थिर नहीं रही। इस्लाम के नाम पर लोगों को एकजुट करने के बाद बार-बार कुनबा केंद्रित दल कमान संभालते हैं मगर पीछे से सब की कमान सेना के हाथ में रहती है, सेना जब चाहती है, जिसका चाहती है, तख्तापलट करती है और सत्ता को हत्या कर कठपुतलियों को राजा बना देती है। लोकतंत्र की यहां मजबूत करना किसी की प्राथमिकता में नहीं है। बार-बार सैन्य तख्तापलट होने से पाकिस्तान की लोकतान्त्रिक व्यवस्था चौपट हो गई। पाकिस्तान 1956 से 1971, 1977 से 1988 तक और फिर 1999 से 2008 तक सैन्य शासन के अधीन रहा है। स्टीफन पी. कोहेन ने अपने अध्ययन में पाकिस्तानी सेना को तीन युग में बांटा है
1947-1953 ब्रिटिश युग
ब) 1954-1971 अमेरिकी युग
स) 1972 से अब तक पाकिस्तानी युग
इसे आप यूं भी समझ सकते हैं कि 1953 तक पाकिस्तान के सैन्य तंत्र पर पाउंड का प्रभाव था। उसके बाद जनरल अमेरिकी डॉलर की ओर झुक गए और 1972 के बाद से भारत चीन तनातनी का लाभ लेते हुए ड्रैगन के साथ पींगें बढ़ानी शुरू
कर दीं।
और यहीं पाकिस्तान चूक गया। पाकिस्तान को अपने भीतर ठीक करना था, मगर उसने बाहर का जोखिम बढ़ाया जिससे देश के भीतर असंतुलन पैदा हो गया। पाकिस्तान की सोच हिन्दुस्तान से दुश्मनी की रही है। उसने हिन्दुस्तान को ठीक करने की चाहत में खुद को खराब कर लिया। हिंदुस्तान से दुश्मनी की भावना में 1954 से अमेरिका से बढ़ती नजदीकी ने पाकिस्तान को बाह्य सुरक्षा पर अत्यधिक ध्यान देने पर मजबूर किया जिससे उसे आंतरिक सामाजिक सुरक्षा पर खर्च को कम कर बाह्य सुरक्षा पर अधिक खर्च करना पड़ा। मगर मई 2007 में पाकिस्तान के पूर्व विदेश सचिव आसिफ अली तथा नेता इमरान खान ने भारत पर दोष मढ़ते हुए कहा था कि भारत की पाकिस्तान के विरुद्ध वैर भावना की वजह से ही पाकिस्तान को अपनी सुरक्षा और पहचान को बनाए रखने के लिए सैन्य ताकतों पर अधिक खर्च करना पड़ रहा है।
पाकिस्तान की अस्थिर सरकारी संस्था ने उसकी अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ दिया। स्वतंत्रता के समय पाकिस्तान की 70% से अधिक की व्यापारिक भागीदारी भारत के साथ थी जो अब 1% से भी कम पर आकर सिमट गई है।
सत्ता में बार-बार होने वाले बदलावों ने लंबे समय तक चलने वाली आर्थिक विकास योजनाओं को बाधित किया, जिससे अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई। पाकिस्तान की वार्षिक जीडीपी विकास दर 1993 से भारत की तुलना में हमेशा कम रही है। वर्ल्ड बैंक रिपोर्ट 2020 बताती है कि पाकिस्तान की जीडीपी करीब 262610.00 करोड़ अमेरिकी डॉलर है जो भारत से 11 गुना
कम है।
अमेरिका में पाकिस्तानी राजदूत रह चुके हुसैन हक्कानी ने पाकिस्तान द्वारा आईएमएफ से लिये गए कर्ज के आंकड़े प्रस्तुत करते हुए बताया था कि पाकिस्तान पर विदेशी कर्ज करीब 50 हजार अरब रुपये से भी अधिक है तथा 2000 ईस्वी के बाद अब तक पाकिस्तान आईएमएफ से 5 बार कर्ज ले चुका है।
सामाजिक क्षेत्र में देखें तो पाकिस्तान के 50% बच्चे ही प्राइमरी स्कूल जाते हैं, केवल एक चौथाई बच्चे ही सेकंडरी स्कूल में दाखिला लेते हैं तथा केवल 5% बच्चे ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर
पाते हैं।
भारत से वैर भावना के कारण वहां पाठ्य पुस्तकों में नफरत के बीज बोए जाते हैं। हिंदुओं को काफिर और अत्याचारी के रूप में दिखाया जाता है।
711 ईस्वी तक पश्चिमी पाकिस्तान में हिन्दू राजपूतों का शासन था। 1076 ईस्वी में गजनी ने राजा जयपाल शाही से अब के पाकिस्तान का पश्चिमी भाग जीत लिया। इसी के बाद हिंदुओं का जबरदस्ती कन्वर्जन कराया गया जो 13वीं -14वीं ईस्वी तक निरंतर जारी रहा।
यानी पुरखे और विरासत, जो सकारात्मक शक्ति हो सकते थे उन्हें शत्रु के तौर पर चिन्हित किया गया? पाकिस्तान की 3.5 प्रतिशत आबादी गैर-मुस्लिम है। एक अनुमान के अनुसार पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 1.5 प्रतिशत है। गैर मुस्लिम को वहां देशद्रोही कहा जाता है।
दरअसल, अपनी जड़ों से कटा पाकिस्तान अपने अंतर्द्वंद्व का मारा है।
– उसे उम्मत चाहिए मगर शिया-अमदिया के बिना..
– उसे ओआईसी जैसे मंचों पर मुस्लिम हितों की चिंता है, पर चीनी चंगुल में फंसे उइघुरों के बिना…
– उसे देश में शांति चाहिए परंतु आतंकवाद को रोके बिना
– उसे लोकतंत्र का महल चाहिए मगर सेना के जनरलों के साथ और नींव के बिना
पाकिस्तान अगर आज भी उसी तर्ज पर चलना चाहता है तो उसे आज से भी खराब स्थिति में जाने से कोई नहीं रोक सकता। इमरान की कप्तानी का रहना न रहना तो सिर्फ फौरी बात है।
@hiteshshankar

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