देश में ब्रज के बाद उत्तराखंड की बैठकी और खड़ी होली सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। बैठकी होली यानी जो होली बैठ कर गाई जाती है और खड़ी होली जो खड़े होकर सामूहिक नृत्य के साथ चौराहे-चौबारों में गाई जाती है।
खड़ी होली ग्रामीण अंचल की ठेठ सामूहिक अभिव्यक्ति है जबकि बैठकी होली को नागर होली भी कहा जाता है। बैठकी होली शास्त्रीय संगीत की बैठकों की तरह होते हुए भी लोकमानस से इस प्रकार जुड़ी है कि उस महफिल में बैठा प्रत्येक व्यक्ति उसमें स्वयं को गायक मानता है और गायक-श्रोता में कोई दूरी नहीं होती। विभिन्न रागों से सजी होली बैठकी की इस परम्परा में अनगिनत गीत बिखरे हैं जिन्हें श्रुतियों के सहारे पीढ़ी दर पीढ़ी गाया जा रहा है।
होली में गायन परंपरा
होली पर्व में ब्रज की होली का जो अद्भुत निराला रूप है, उत्तराखण्ड के कुमाऊं अंचल की होली का स्वरूप उससे कम नहीं है। कुमाऊं में अनुमानत: मध्यकाल में 10वीं-11वीं सदी से इसका प्रारम्भ माना जाता है। गढ़वाल अंचल के टिहरी व श्रीनगर शहरों में कुमाऊं के लोगों की बसाहट और राजदबार के होने से होली का वर्णन मौलाराम की कविताओं में मिलता है।
कहते हैं, कुमाऊं में होली पर गायन की परम्परा 16वीं सदी में राजा कल्याण चंद के समय शुरू हुई। कुमाऊं नरेश उद्योतचन्द ने 1697 में अपने महल में दशहरे का भवन बनवाया, उसमें दशहरे के दिन राजसभा होती थी। चन्द राज्यकाल में राजा प्रद्युम्न शाह ने रामपुर के दरबारी संगीतज्ञ अमानत हुसैन को यहां बुलाया। कहते हैं ग्वालियर, मथुरा से भी संगीतज्ञ यहां आते रहे। 1850 से होली की बैठकें नियमित होने लगीं तथा 1870 से इसे वार्षिक समारोह के रूप में मनाया जाने लगा। शास्त्रीय संगीत से उपजी कुमाऊं की बैठक होली के स्वरूप को बनाने में उस्ताद अमानत हुसैन का नाम सर्वप्रथम आता है।
उत्तराखंड के कुछ होली गीत8मुरली नागिन सों, वंशी नागिन सों
कह विधि फाग रचायो, मोहन मन लीनो।। मुरली… व्रज बावरो मोसे बावरी कहत है, अब हम जानी, बांवरो भयो नन्दलाल।। मोहन… सूरन के प्रभु गिरिधर नागर, कहत गुमानी * * * दरस तिहारो पाया।। मोहन… अब तो रहूंगी अनबोली, कैसी खेलाई होरी। रंग की गागर मोपे सारी ही डारी, भीज गई तन चोली। सगरो जोवन मोरा झलकन लागो, लाज गई अनमोली।। * * * अचरा पकड़ रस लीनो, होरी के दिनन में रंग को छयल मोरा। अबीर गुलाल मलुंगी वदन में, केशर रंग बरसाऊँ। * * * किन मारी पिचकारी, मैं तो भीज गई सारी। जाने भिगोई, मोरे सन्मुख लाओ, नाहीं मैं दूंगी गारी।। |
राजा कल्याण चंद के समय दरबारी गायकों के संकेत मिलते हैं। इस पर दरभंगा, कन्नौज व रामपुर की गायकी और ब्रजमण्डल की रास मण्डलियों का प्रभाव भी पड़ा। उस्ताद अनामत अली ने होली गायकी को ठुमरी के रूप में सोलह मात्राओं में पिरोया। मुगल शासक व कलाकारों को भी होली गायकी की यह शैली रिझा गई और वे गा उठे- ‘किसी मस्त के आने की आरजू है…।’
संगीत एवं नृत्य की परंपरा
पर्वतांचल में होली शूद्र वर्ण के साथ ही उच्च वर्ण का प्रमुख त्यौहार बनकर उभरी। पौष माह के प्रथम रविवार से विष्णुपदी होली के बाद वसन्त, शिवरात्रि अवसर पर क्रमवार गाते हुए होली के निकट आते-आते इसके गायन-वादन में अति शृंगारिकता सुनाई देती है। यहां कई गांवों में होली के साथ-साथ झोड़े-चांचरी लोक नृत्यगीत शैली का चलन भी है।
कुमाऊं की होली का संगीत पक्ष शास्त्रीय और गहरा है। पौष के प्रथम रविवार से यहां होली गायन की परम्परा है। पहाड़ का प्रत्येक कृषक आशु कवि है, गीत के ताजा बोल गाना और फिर उसे विस्मृत कर देना सामान्य बात थी। इसीलिये होली गीतों के रचयिताओं का पता नहीं है। कतिपय विद्वानों के बारे में पता चलता है जिनमें सर्वप्रथम पं. लोकरत्न पंत गुमानी का नाम है। इसके अलावा चारुचन्द्र पाण्डे ने भी होली बैठकी के लिए कई रचनाएं कीं। इसी प्रकार कोटद्धार निवासी महेशानन्द गौड़ की होली रचनाएं बहुत लोकप्रिय हैं।
होली बैठक में विविध रागों के नाम पर होली गीत गाए जाते हैं किन्तु व्यवहार में ठुमरी की भांति इनमें भी राग की शुद्धता का बन्धन नहीं है। राग श्यामकल्याण, धमार, काफी, खमाज, देश, भैरवी के स्वरों में स्पष्ट पता चल जाता है कि अमुक-अमुक राग पर आधारित होली गीत गाये जा रहे हैं। इसी प्रकार पीलू, बहार, जंगलाकाफी, बिहाग, परज, बागेश्वरी, सहाना, झिंझोटी, जोगिया सहित अन्य रागों में भी कई होली रचनाएं बैठकों में गायी जाती हैं। इनके गायन का अंदाज शास्त्रीय होते हुए भी लोक का ढब होता है जो इसे पृथक शैली का दर्जा देता है। पहाड़ों में शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार में इस होली परम्परा का बहुत बड़ा योगदान है। निर्जन और अति दुर्गम क्षेत्रों तक में रागों के नाम लेकर उसके गायन के समय आम जन का सजग होना इस बात को सिद्ध करता है।
खड़ी होली की परंपरा
चम्पावत से लेकर पिथौरागढ़ तक होली को लेकर लोगों में विशेष प्रेम है, साथ ही यहां की होली कई मायनों में विशेष मानी जाती है। होली में फाग का भी यहां विशेष महत्व है। सीमावर्ती देश नेपाल में भी खड़ी होली का प्रचलन देखा जा सकता है।
खड़ी होली का अभ्यास आमतौर पर गांव के मुखिया के आंगन में होता है। यह होली अर्ध-शास्त्रीय परंपरा में गाई जाती है जहां मुख्य होल्यार होली के मुखड़े को गाते हैं और बाकी होल्यार उसके चारों ओर एक बड़े घेरे में उस मुखड़े को दोहराते हैं। ढोल, नगाड़े, नरसिंग उसमें संगीत देते हैं। घेरे में कदमों को मिलाकर नृत्य भी चलता रहता है। कुल मिलाकर यह एक अलग और स्थानीय शैली है जिसकी लय अलग-अलग घाटियों में अपनी अलग विशेषता और विभिन्नता लिए है। खड़ी होली ही सही मायनों में गांव की संस्कृति का प्रतीक है। यह आंवला एकादशी के दिन प्रधान के आंगन में अथवा मंदिर में चीर बंधन के साथ प्रारंभ होती है। द्वादशी और त्रयोदशी को यह होली अपने गांव के निशाण अर्थात् विजय ध्वज ढोल, नगाड़े और नरसिंग जैसे वाद्य यंत्रों के साथ गांव के हर मवास के आंगन में होली गीत गाने पहुंचकर शुभ आशीष देती हैं। उस घर का स्वामी अपनी श्रद्धा और हैसियत के अनुसार होली में सभी गांव वालों का गुड़, आलू और अन्य मिष्ठान के साथ स्वागत करता है। चतुर्दशी के दिन क्षेत्र के विभिन्न मंदिरों में होली पहुंचती है, खेली जाती है। चतुर्दशी और पूर्णिमा के संधिकाल जबकि मैदानी क्षेत्र में होलिका का दहन किया जाता है, यहां कुमाऊं अंचल के गांव में, गांव के सार्वजनिक स्थान में चीर दहन होता है। अगले दिन छलड़ी यानी गीले रंगों और पानी की होली के साथ होली संपन्न होती है।
महिलाओं की होली बसंत पंचमी के दिन से प्रारंभ होकर रंग के दूसरे दिन टीके तक प्रचलित रहती है। यह आमतौर पर बैठकर ही होती है। ढोलक और मजीरा इसके प्रमुख वाद्य यंत्र होते हैं। महिलाओं की होली शास्त्रीय, स्थानीय और फिल्मी गानों को समेट कर उनके फ्यूजन से लगातार नया स्वरूप प्राप्त करती रहती है।
महिलाओं ने इस सांस्कृतिक त्योहार को न केवल बचाया है, बल्कि आगे भी बढ़ाया। महिलाओं की बैठकी होली में स्वांग और ठेठर भी प्रचलित है। इसमें समाज के अलग-अलग किरदारों और उनके संदेश को अपनी जोकरनुमा पोशाक और प्रभावशाली व्यंग के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। संगीत के मध्य विराम के समय यह स्वांग और ठेठर होली को अलग ऊंचाई प्रदान करता है।
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