हिजाब विवाद पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला आ गया है। न्यायालय ने स्कूल और कॉलेज में हिजाब से संबंधित सभी याचिकाएं खारिज कर दीं। यानी स्कूल अनुशासन से चलेंगे, यूनिफॉर्म से चलेंगे, न कि मजहबी सोच से। मजहबी कट्टरपंथी मजहबी सोच स्कूलों में लागू करना चाहते थे। जिस पर उन्हें हाई कोर्ट से करारा जवाब मिल गया है। ऐसे स्कूल मजहबी और नफरती एजेंडे से कोसों दूर थे, लेकिन वहां मजहबी बीज बोने की साजिश रचने की कोशिश हो रही थी।
मजहबी कट्टरपंथी मदरसों वाले इसी मॉडल को उन स्कूलों में भी लागू कराना चाहते थे, जो अब तक ऐसे नफरती एजेंडे से कोसों दूर थे। यहां एक सवाल उठता है कि क्या स्कूल में बुर्का पहनना और ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगाना बहादुरी है? या ऐसे कृत्य के पीछे कोई और मंशा है? हिजाब विवाद में पॉपुलर फ्रंट आफ इंडिया (पीएफआई) का नाम उभर कर सामने आया। ठीक उसी तरह, जैसे नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधी हिंसक प्रदर्शनों और फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए दंगों में उभरा था। पीएफआई पर मजहबी कट्टरवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं। सवाल उठ रहा है कि देश संविधान से चलेगा या मजहबी हेकड़ी से? आखिर क्यों हर बार मजहब को आगे कर देश के संविधान—कानून और एकता-अखंडता को चुनौती देने की कोशिश की जाती है? जिसका परिणाम दिल्ली जैसे दंगे होते हैं। सीएए के हिंसक विरोध के बीच फरवरी 2020 में शहर में हुए दंगे को न तो दिल्ली भूली है और न ही देश। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी सुनवाई के दौरान इस तथ्य को माना कि दिल्ली दंगों के पीछे सुनियोजित साजिश थी।
जिस अंदाज में हिजाब विवाद को तूल दिया गया, उसके पीछे भी साजिश हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। आखिर क्या साजिश मजहब के नाम पर भारत के संविधान को चुनौती देना है? क्या साजिश देश के कानून को न मानने की मंशा है? क्या साजिश मजहब के नाम पर विभाजनकारी सोच को हवा देना है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो नागरिकता संशोधन कानून, दिल्ली दंगों और अब हिजाब विवाद के साथ लगातार उठ रहे हैं।
संविधान में पांथिक आजादी का मौलिक अधिकार है, लेकिन सार्वजनिक व्यवस्था की शर्त भी है। अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता का भी उल्लेख है और नीति निर्देशक सिद्धांतों में उसकी व्यवस्था दी गई है, लेकिन उसके साथ कई शर्तें भी रखी गई हैं। अनौपचारिक रूप से भारत में एक लाख से ज्यादा मदरसे हैं, जहां मुस्लिम छात्रों को पढ़ाई के बीच नमाज पढ़ने का अधिकार है। मुस्लिम छात्राएं हिजाब और बुर्का पहन कर मदरसों में पढ़ सकती हैं। लेकिन क्या एक खास विचारधारा के लोग अब मदरसों वाले इसी मॉडल को उन स्कूलों में भी लागू कराना चाहते थे, जो अब तक मजहबी कट्टरवाद से बचे हुए थे।
भारत में किसी मुस्लिम महिला और छात्रा को हिजाब पहनने से नहीं रोका गया है, बल्कि यह मामला तो केवल स्कूलों में सभी छात्रों द्वारा एक जैसी यूनिफॉर्म पहनने का था, लेकिन विवाद को हिजाब तक सीमित कर दिया गया। क्या स्कूल में बुर्का पहनना और ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगाना बहादुरी है? या ऐसे कृत्य के पीछे कोई और मंशा है? सवाल इसलिए उठ रहा है, क्योंकि हिजाब विवाद के बीच कर्नाटक के मांड्या जिले में स्थित एक निजी कॉलेज की मुस्लिम छात्रा ने ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगाए थे। तब से वह मुस्लिम छात्रा मजहब के ठेकेदारों के लिए ‘प्रेरणा’ बन गई है। इस मुस्लिम छात्रा का नाम है मुस्कान और इस छात्रा के इस कृत्य के लिए कई संस्थाओं और मुस्लिम नेताओं ने लगे हाथ नकद इनाम व दूसरे पुरस्कार देने का एलान कर दिया। इस मजहबी नारेबाजी पर पाकिस्तान के नेता भी खुश हुए। सेकुलर, लिबरल और वामपंथी छात्रा की हिम्मत की तारीफ करते नहीं थक रहे हैं।
हिजाब के पक्ष-विपक्ष में खूब सारे तर्क-वितर्क दिए गए। लेकिन क्या हिजाब को लेकर सीएए जैसा बड़ा आंदोलन खड़ा करने की तैयारी थी? विवाद कर्नाटक का था, लेकिन पीएफआई ने राजस्थान के कोटा में बड़ा विरोध प्रदर्शन आयोजित किया। इसे नाम दिया- ‘यूनिटी मार्च’। सैकड़ों की संख्या में पीएफआई से जुड़ी महिलाएं प्रदर्शन में शामिल हुर्इं। यहां तक कि पीएफआई ने छोटे-छोटे बच्चों के हाथ में भी झंडे थमा दिए। हालांकि पीएफआई खुद को ‘सामाजिक संगठन’ कहता है, लेकिन इसकी गतिविधियां संदिग्ध हैं। इसी वजह से झारखंड सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगाया था। इसके अलावा, दिसंबर 2019 में पीएफआई से जुड़े करीब 25 लोगों को उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार किया गया था, जब सीएए विरोधी प्रदर्शन के दौरान हिंसा हुई थी। इस पर दिल्ली में दंगे भड़काने का भी आरोप लगा। पीएफआई ने ही देशभर में सीएए के खिलाफ प्रदर्शन किए और इसके लिए पैसे भी दिए। इन धरना-प्रदर्शनों में भड़काऊ भाषण तो दिए ही गए, प्रदर्शन के दौरान हिंसा भी हुई। इस पर शाहीन बाग में सीएए के खिलाफ कई महीनों तक चले धरना-प्रदर्शन का वित्त पोषण करने का आरोप है। केरल की सरकार भी पीएफआई को संदिग्ध बता चुकी है।
हाई कोर्ट के निर्णय से यह साफ हो गया है कि स्कूल में अनुसाशन जरूरी है। कट्टरपंथी मजहबी सोच और नफरती बीजों का स्कूलों में कोई स्थान नहीं है। मदरसा मॉडल और कट्टरपंथी सोच की परणति अफगानिस्तान में लोग देख चुके हैं।
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