प्रणय कुमार
कर्नाटक के उडुपी से उठा बुर्के और हिजाब का विवाद बढ़ता ही जा रहा है। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई तक शैक्षिक संस्थानों में इस प्रकार के परिधानों (हिजाब या भगवा स्कार्फ) पर रोक लगाई है और छात्र-छात्राओं को यूनिफॉर्म में स्कूल जाने तथा शैक्षिक संस्थानों को कक्षाएं शुरू करने की सलाह दी है। निश्चित रूप से न्यायालय इसे संज्ञान में रखते हुए अंतिम निर्णय देगा कि शिक्षा के मंदिरों में इस प्रकार की मांगों का क्या और कितना औचित्य है?
ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के प्रकरण पहली बार न्यायालय के समक्ष आए हों। इससे मिलते-जुलते एक मामले में, 15 दिसंबर, 2016 को सर्वोच्च न्यायालय ने वायु सेना में नौकरी कर रहे मुहम्मद जुबैर नामक शख़्स की मजहबी मान्यता के आधार पर दाढ़ी रखने की मांग को खारिज करते हुए अपने फैसले में कहा था – ''वेशभूषा से जुड़े नियम और नीतियों की मंशा धार्मिक विश्वासों के साथ भेदभाव करने की नहीं है और न ही इसका ऐसा प्रभाव होता है। इसका लक्ष्य और उद्देश्य एकरूपता, सामंजस्य, अनुशासन और व्यवस्था सुनिश्चित करना है जो वायु सेना के लिए अनिवार्य है। वास्तव में यह संघ के प्रत्येक सशस्त्र बल के लिए है।'' सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले में इस्लाम में दाढ़ी रखने की अनिवार्यता जैसी दलील को खारिज करते हुए वादी को सेवा से निष्कासित किए जाने के आदेशपत्र को सही ठहराया था। विधि विशेषज्ञों की भी यही राय है कि स्कूलों-कॉलेजों, कार्यालयों या किसी भी संस्था को अपना ड्रेसकोड तय करने का अधिकार है। और उसमें अध्ययनरत विद्यार्थियों एवं कार्यरत कर्मचारियों के पास भी यह विकल्प है कि वे वहां न जाएं।
हिजाब की जिद प्रतिगामी विचार
न केवल वैधानिक अपितु सामाजिक दृष्टि से भी शिक्षण-संस्थाओं में बुर्के और हिजाब पहनने की जिद और जुनून अनुदार एवं प्रतिगामी विचार हैं। मजहबी कट्टरता और पृथक पहचान की राजनीति को परवान चढ़ाने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल की जा रहीं ये कमउम्र लड़कियां शायद नहीं जानतीं कि यही मांगें कल इनके पांवों की जंजीरें बनेंगीं। इन मांगों के लिए समर्थन जुटा रहे और हैशटैग चला रहे छात्र-संगठन 'कैंपस फ्रंट आॅफ इंडिया' का संबंध देश-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन 'पीएफआई' से है।
जमीयत उलेमा-ए-हिंद और आॅल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन जैसे संगठनों का आंदोलनकारी छात्राओं के समर्थन में खुलकर सामने आना, पाकिस्तानी सरकार द्वारा तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करना, इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) का बयान जारी करना और अब याचिकाकर्ताओं के वकील देवदत्त कामत द्वारा पांच राज्यों में हो रहे चुनाव तक सुनवाई को टालने की सिफारिश करना, पर्दे की पीछे की ताकतों और साजिशों की ओर पुख़्ता इशारा करता है। आज तक तो बुर्के और हिजाब के बिना भी मुस्लिम लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाती रहीं, अचानक उन्हें इसकी अनिवार्यता क्यों महसूस हुई? बल्कि बीसवीं शताब्दी के अंत तक भारत में हिजाब का प्रचलन लगभग नगण्य था। हास्यास्पद है कि कुछ लोग सुरक्षा का हवाला देकर इसे जायज ठहरा रहे हैं। उन्हें स्कूल-कॉलेजों की कक्षाओं में किनसे खतरा है, अपने शिक्षकों और सहपाठियों से? यह कितना कमजोर एवं लचर तर्क है।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि एक ओर जहां चारों ओर जंजीरें पिघल रही हैं, दिलो-दिमाग में सदियों से जमी कीच-काई छंट रही है, सींखचे और सांकलें टूट रही हैं, दहलीजों की दीवारें लांघ भारत की करोड़ों बेटियां सफलता के नए-नए कीर्त्तिमान स्थापित कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर उदार, आधुनिक एवं आज के वैज्ञानिक दौर में भी इस प्रकार की जिद और जुनून को पाला जा रहा है, उन्हें प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
घोर आश्चर्य है कि कथित बुद्धिजीवी, प्रगतिशील व नारीवादी साहित्यकार, मानवाधिकारवादी एवं सामाजिक क्रांति व परिवर्तन के तमाम पैरोकार, जो आए दिन स्त्रियों की आजादी एवं अधिकारों के नाम पर घूंघट या पर्दा-प्रथा, स्त्रियों के मंगलसूत्र पहनने, बिंदी व सिंदूर लगाने, चूड़ी-पायल-बिछिया पहनने तथा व्रत-उपवास आदि करने के विरोध में वक्तव्य जारी करते हैं, वे बुर्के और हिजाब पर बिलकुल खामोश हैं।
पर्दा प्रथा से मुस्लिम महिलाओं में हीनता
ऐसे सभी बुद्धिजीवियों एवं छद्म पंथनिरपेक्षतावादियों को 1940 के दशक में प्रकाशित डॉ भीमराव आंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक ''पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन'' का यह अंश अवश्य पढ़ना चाहिए :- पर्दा प्रथा की वजह से मुस्लिम महिलाएं अन्य जातियों की महिलाओं से पिछड़ जाती हैं। वे किसी भी तरह की बाहरी गतिविधियों में भाग नहीं ले पातीं जिसके चलते उनमें एक प्रकार की दासता और हीनता की मनोवृत्ति बनी रहती है। उनमें ज्ञान प्राप्ति की इच्छा भी नहीं रहती क्योंकि उन्हें यही सिखाया जाता है कि घर की चारदीवारी के बाहर वे अन्य किसी बात में रुचि न लें।…..
भारतीय एवं दुनिया के अन्य देशों के नौजवान भी उच्च शिक्षित रहे हैं। वस्तुत: समय और युग की आवश्यकता के अनुसार बदलाव को बिलकुल भी तैयार न होना ही मुस्लिम समाज की वास्तविक समस्या है। उन्हें आज नहीं तो कल यह मानना ही पड़ेगा कि जो समाज दकियानूसी विचारों एवं रिवाजों की लाशों को चिपकाए रखता है, समय उसे छोड़कर निश्चित आगे बढ़ जाता है।
पर्दाप्रथा के कारण मुस्लिम महिलाओं का मानसिक और नैतिक विकास भी नहीं हो पाता। वे स्वस्थ सामाजिक जीवन से वंचित रहती हैं। इसका परिणाम संकीर्ण सोच और संकुचित दृष्टिकोण के रूप में सामने आता है। हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों में पर्दा-प्रथा की जड़ें गहरी हैं। मुसलमानों में पर्दा-प्रथा एक वास्तविक समस्या है और जबकि हिंदुओं में ऐसा नहीं है। मुसलमानों ने समाज में मौजूद बुराइयों के खिलाफ कभी कोई आंदोलन नहीं किया। हिंदुओं में भी सामाजिक बुराइयां मौजूद हैं, लेकिन अच्छी बात ये है कि वे अपनी इस गलती को मानते हैं और उसके खिलाफ आंदोलन भी चला रहे हैं। लेकिन मुसलमान तो ये मानते ही नहीं हैं कि उनके समाज में कोई बुराई है।''
मुस्लिम सुधारवादी आंदोलन जरूरी
बाबा साहेब के उक्त कथन में समस्या के चित्रण के साथ-साथ समाधान के सूत्र भी निहित हैं। यह सत्य है कि हिंदू-समाज में भी काल-प्रवाह में अनेक कुरीतियां पनपीं और फैलीं, पर कालांतर में किसी-न-किसी संत या समाज-सुधारक ने उनके विरुद्ध सुधारवादी आंदोलन चलाए और उन्हें व्यापक जनसमर्थन भी मिला। पर दुर्भाग्य से भारतीय मुस्लिम समाज में उदार एवं सुधारवादी आंदोलनों के प्रति न केवल एक उदासीनता दिखाई देती है, बल्कि वह प्राय: उनके प्रतिरोध में न केवल खड़ा, अपितु आंदोलनरत रहता है।
कई लोग समस्या का सरलीकरण करते हुए अशिक्षा एवं निर्धनता को मुस्लिम-समाज की दकियानूसी सोच एवं कट्टरता का कारण बताते हैं। वे भूल जाते हैं कि ओसामा बिन लादेन इंजीनियर, आफिया सिद्दीकी न्यूरोसाइंस विशेषज्ञ, अल जवाहिरी सर्जन, अल बगदादी पीएचडी और हाफिज सईद प्राध्यापक था। आतंकवादी संगठन आईएस से जुड़ने वाले भारतीय एवं दुनिया के अन्य देशों के नौजवान भी उच्च शिक्षित रहे हैं। वस्तुत: समय और युग की आवश्यकता के अनुसार बदलाव को बिलकुल भी तैयार न होना ही मुस्लिम समाज की वास्तविक समस्या है। उन्हें आज नहीं तो कल यह मानना ही पड़ेगा कि जो समाज दकियानूसी विचारों एवं रिवाजों की लाशों को चिपकाए रखता है, समय उसे छोड़कर निश्चित आगे बढ़ जाता है।
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