इस बार पंजाब विधानसभा चुनाव में पिछली बार से 9 प्रतिशत कम मतदान हुआ है। तो क्या यह मान लिया जाए कि मतदाता कांग्रेस के काम से खुश है? या कोई विकल्प ही नहीं बन पाया? इसलिए मतदाता घर से बाहर नहीं निकला। कम मतदान का क्या मतलब निकाला जाए? आम तौर पर यह माना जाता है कि कम मतदान सत्ताधारी दल के पक्ष में जाता है।
क्या कांग्रेस के पक्ष में हुआ मतदान?
राजनीतिक समीक्षक वीरेंद्र भारत यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इस बार कांग्रेस के पक्ष में मतदान हुआ है। उनका कहना है कि कांग्रेस अपने काडर को संभाल ही नहीं पाई। इसका असर यह हुआ कि मतदान प्रतिशत गिर गया। यदि कांग्रेस अपने काडर और कार्यकर्ता को संभालती तो यह प्रतिशत ज्यादा होता। वीरेंद्र भारत के अनुसार, इस चुनाव में कांग्रेस काफी नुकसान होने वाला है। इसके लिए वे कई तर्क देते हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस में मतदान के दिन तक तो विवाद चलते रहे। नेताओं को निकालने का सिलसिला चला। इससे पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा हुआ है। वे वोट डालने बूथ तक पहुंचे ही नहीं। दूसरा कारण यह है कि चरणजीत सिंह चन्नी के 111 दिन के कामों पर कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने पानी फेर दिया। वे बार-बार चन्नी पर सवाल खड़ा करते रहे। उनकी संपत्ति को लेकर हमले करते रहे।
इसके अलावा, अवैध रेत खनन में चन्नी के रिश्तेदार की गिरफ्तारी से भी कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा है। इस वजह से चन्नी पर विपक्ष लगातार हमलावर रहा। इसका जवाब कांग्रेस खोज नहीं पाई। चुनाव प्रचार के आखिरी दिनों में यूपी-बिहार के लोगों को ‘भइये’ कहना भी पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित हुआ। जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विवाद पर कांग्रेस को घेरा, उससे प्रवासी मतदाता कांग्रेस से छिटक गए। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मोहाली सीट पर देखने को मिला है। यही नहीं, कांग्रेस के बड़े नेताओं के भी लगातार विरोधाभासी बयान आते रहे। मसलन, मनीष तिवारी पार्टी पर सवाल खड़े करते रहे। इसी तरह से सुनील जाखड़ का बयान कि हिंदू होने की वजह से उन्हें मुख्य मंत्री नहीं बनाया गया, कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।
आम आदमी पार्टी का क्या होगा?
पंजाबी ट्रिब्यून के पूर्व पत्रकार बलविंदर सिंह का कहना है कि आम आदमी पार्टी को मालवा क्षेत्र में मदद मिली है। यहां ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान के प्रति मतदाता का रुझान अच्छा रहा। इस तरह से देखा जाए तो यहां आआपा को फायदा होता नजर आ रहा है। लेकिन यह फायदा ऐसा नहीं है कि उसे सत्ता की कुर्सी तक पहुंचा सके, क्योंकि माझा और दोआबा में पार्टी की स्थिति कमजोर है। मालवा से पिछली बार आआपा को 18 सीटें मिली थीं। दरअसल, आआपा जितनी मजबूत दिख रही है, उतनी है नहीं। कारण, टिकट वितरण के बाद पार्टी में विरोध के सुर बुलंद हो गए थे। कई जगह तो सरेआम टिकट बेचने तक के आरोप लगे थे।
सोशल मीडिया पर आआपा ज्यादा सक्रिय रही, लेकिन धरातल पर पार्टी में उतनी आक्रामकता या सक्रियता नहीं दिखी। इसकी वजह यह है कि इसके लिए पार्टी ने पंजाब में ज्यादा काम ही नहीं किया है। 2017 में भी इसने यही गलती की थी। बलविंदर सिंह कहते हैं कि तीन माह में चुनाव जीतने की कोशिश करने वाली आआपा ने बड़ी रणनीतिक चूक की। उसने भगवंत मान को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने में देरी की। इससे पार्टी को काफी नुकसान हुआ। कुमार विश्वास के आरोपों से हिंदू मतदाताओं में आआपा के प्रति मतदाताओं में नाराजगी पैदा हुई, क्योंकि प्रदेश में आतंकवाद से सबसे ज्यादा हिंदू पीड़ित रहे हैं। यह आरोप पार्टी पर उस वक्त लगे, जब चुनाव प्रचार लगभग खत्म हो रहा था। इस वजह से आआपा अपने मतदाताओं को इस मामले में सफाई नहीं दे पाई।
अकाली दल को फायदा होगा?
पंजाब में अकाली दल का काडर मजबूत है। काडर पर पकड़ होने की वजह से मतदाता बूथ तक पहुंचा। साथ ही, अकाली दल ने चुनाव प्रचार में जबरदस्त वापसी की। खासतौर पर सिद्धू ने जिस तरह से अकाली दल को घेरा, इससे पार्टी मजबूत होकर उभरी है। लेकिन जानकारों का कहना है कि अकाली दल बहुमत के करीब नहीं पहुंच रहा। उसे सत्ता में आने के लिए भाजपा की मदद लेनी ही पड़ेगी। दूसरे, इस बार अकाली दल ने काडर पर ध्यान दिया। इसका फायदा यह हुआ कि कार्यकर्ता हर जगह मजबूत हुए। इसका लाभ पार्टी को लगातार मिलता नजर आ रहा है। मतदान के दिन भी काडर मतदाताओं को बूथ तक निकाल कर ले आया। यही नहीं, अकाली दल ने छह माह पहले ही अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए थे। इस वजह से उम्मीदवारों ने काम करना शुरू कर दिया था, जिससे धरातल पर उनकी पकड़ अच्छी बन गई थी। पार्टी में किसी तरह का विवाद भी नहीं था, जिससे पार्टी ने प्रचार पर ध्यान केंद्रित रखा। अंतिम समय में अकाली दल के साथ डेरा भी आ गया। इस वजह से भी अकाली दल को मजबूती मिलती नजर आ रही है।
भाजपा ने चमत्कारी तरीके से लड़ा चुनाव
इस चुनाव में सबसे ज्यादा कमाल यदि किसी ने किया तो वह है भाजपा। पार्टी ने बहुत ही रणनीतिक तरीके से चुनाव प्रचार करते हुए मुद्दों को आगे बढ़ाया। जिस भाजपा को मोहाली सीट पर कोई देखने वाला नहीं था, इस सीट पर भाजपा 15 दिन में काफी मजबूत स्थिति में नजर आ रही है। वह भी तब जब कि उनके उम्मीदवार संजीव वशिष्ठ जो कि अनजान चेहरा थे, लेकिन ‘भइये’ विवाद के बाद उन्हें प्रवासी मतदाताओं का एकतरफा वोट मिला है। इतना ही नहीं, पंजाब में भाजपा ने जोरदार वापसी की है। इसने पहली बार बड़ी पार्टी के तौर पर खुद को खड़ा किया। कृषि कानूनों के विरोध को पार्टी ने दूर करते हुए पंजाब में खुद को स्वीकार्यता दिलवाई। पंथक वोटर हो या हिंदू वोटर भाजपा ने हर जगह उपस्थिति दर्ज की है। भले ही इस चुनाव में भाजपा बहुत ज्यादा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए, लेकिन इतना तय है कि इस चुनाव के बहाने भाजपा ने आने वाले वक्त के लिए अपना आधार मजबूत कर लिया है। इसका लाभ उसे हर हालत में मिलता नजर आ रहा है। इस बार भी भाजपा काफी अच्छी स्थिति में रहने की संभावना है।
मुद्दों से ज्यादा भावना पर निर्भर रहे किसान
इस बार किसान संगठनों ने चुनाव लड़ने की कोशिश की, लेकिन उनमें राजनीतिक रणनीति का अभाव था। वे मुद्दों से ज्यादा भावनाओं पर निर्भर रहे। रही सही कसर केजरीवाल और बलबीर सिंह राजेवाल ने पूरी कर दी। केजरीवाल ने कथित किसान आंदोलन को अच्छे से इस्तेमाल किया। बाद में राजेवाल को मुख्यमंत्री का चेहरा तक बनाने की बात भी कही थी, लेकिन अंत में हुआ कुछ नहीं। आआपा ऊपर से संयुक्त किसान मोर्चे के खिलाफ डट गई। किसानों के पास धन की कमी, आपसी तालमेल का अभाव व रणनीति कौशल न होने की वजह से वे कुछ सीटों ही पर ही अपना असर दिखा पाएंगे। जानकार तो यहां तक बोल रहे हैं कि विधानसभा चुनाव के बाद संयुक्त किसान मोर्चा अपना अस्तित्व भी बचाने में कामयाब हो जाए तो बड़ी बात होगी।
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