गत दिनों संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी.एस. तिरुमूर्ति ने स्पष्ट कहा कि यह मंच अब्राहमिक पंथों यानी इस्लाम, ईसाई, यहूदी पर होने वाले अत्याचारों की बात तो करता है, लेकिन हिंदू, सिख, बौद्ध जैसे मत—पंथों के विरुद्ध होने वाली हिंसा पर कभी चर्चा नहीं करता। तिरुमूर्ति द्वारा हिंदू समाज के प्रति संयुक्त राष्ट्र का यह पूर्वाग्रह उजागर किए जाने से हिंदू पंथों की सहिष्णुता और अब्राहमिक मजहबों-मतों की असहिष्णुता परएक नया अंतरराष्ट्रीय विमर्श खड़ा हुआ है। यूएन के अन्य प्रतिनिधियों पर इसका असर भी दिखा। इससे भारत विरोधी तत्व बौखला गए।
आनन— फानन में आईएसआई द्वारा पोषित एक अमेरिकी संस्था ने वेबिनार कर भारत के इस विमर्श को पटरी से उतारने का प्रयास किया। इसमें पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जो कहा, उसका आशय यह है कि हाल के वर्षों में जन्मी कुछ प्रवृत्तियां और प्रथाएं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की एक नई और काल्पनिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देती हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है।
अंसारी का यह बयान न सिर्फ निराधार है बल्कि संयुक्त राष्ट्र में भारत के आधिकारिक बयान के भी विरुद्ध है। सहिष्णुता सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में अंतर्निहित है। यदि ऐसा न होता तो दुनिया के तमाम कोनों से आने वाले मजहबों-मतों का भारत में बसेरा नहीं बन पाता। फिर भी हिंदुओं का उत्पीड़न सदियों से जारी है। सभी मुस्लिम शासकों से लेकर अंग्रेजों तक ने हिंदुओं का नरसंहार कर भारत पर राज किया है। यह सिलसिला अभी भी जारी है। हां, अब काल और परिस्थिति को देखते हुए तरीके बदल गए हैं। कहीं आतंकवाद का सहारा लिया जा रहा है, कहीं लव जिहाद, कहीं जमीन जिहाद किया जा रहा है,
तो कहीं और कोई बहाना बनाकर हिंदुओं का दमन किया जा रहा है। इस आवरण कथा में पढ़िए कि सच क्या है
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