विशेष संवाददाता
यूपी और उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव प्रचार नीरस हो गया है। डिजिटल तकनीक के जरिये मतदाताओं तक पहुंचने के सारे मंसूबे राजनीतिक दलों के असफल साबित हो रहे है। विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए इस बार कोविड गाइडलाइन्स की वजह से बड़ी इवेंट, आईटी कंपनियों ने राजनीतिक दलों के साथ अनुबंध किये और ये दावे किए गए कि हर मतदाता तक वो पार्टी प्रत्याशियों की पहुंच बनाएंगे, लेकिन उनके ये दावे पहले एक हफ्ते में ही फुस्स साबित हो गए।
उत्तराखंड में वर्चुअल जनसभाएं किये जाने के लिए बड़े जोश के साथ सब्जबाग दिखाते हुए तैयारियां की गईं, लेकिन जब सभाएं शुरू हुईं तो अपनी-अपनी पार्टियों के गिने-चुने प्रत्याशी और समर्थकों के अलावा कोई भी उन्हें देखता नहीं मिला। मोबाइल पर वॉइस मैसेज आने लगे, उसमें भी समझदार मतदाताओं ने उन्हें ट्रू कॉलर के जरिये देख कर फोन उठाने की जहमत तक नहीं उठायी। पार्टियों ने दिल्ली से वीडियो रथ मंगवाए, उन पर निर्वाचन आयोग ने ऐसी बंदिशें लगाई कि वे भी विधानसभा क्षेत्रों में जाकर पार्टी कार्यालयों के पास खड़े दिखलाई दिए।
निर्वाचन आयोग ने कोविड गाइडलाइन्स के अलावा धारा 144 के चलते इतनी सख्ती दिखाई है कि राजनीतिक दलों के प्रत्याशी को कहीं भी चार लोगों से ज्यादा खड़े हो जाने पर नोटिस थमा दिया जा रहा है। यदि प्रत्याशी किसी भी वाहन से प्रचार करवाना है तो गाड़ी, गाड़ी मालिक, उसके ड्राइवर और गाड़ी के साथ चलने वाले कार्यकर्ता के कागजात, आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, गाड़ी के प्रदूषण जांच, इंश्योरेंस सब की जानकारी ऑनलाइन अपलोड करनी पड़ रही है, तब उसे अनुमति मिल रही है।
यदि कोई पार्टी प्रत्याशी अपना प्रचार प्रपत्र छाप रहा है तो उसकी अनुमति संख्या के साथ लेनी है। साथ ही ये एफिडेविट देना होगा कि इस प्रपत्र को आप सोशल मीडिया पर नही डालेंगे। यदि कोई प्रचार सामग्री एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी ले जाई जायेगी तो उसकी भी अनुमति आवश्यक है। तीन सौ से ज्यादा लोगों की जनसभा या रोड शो की अनुमति नहीं मिल रही है, जिसकी वजह से बड़ी चुनावी रैलियों का होना बंद हो गया है। ये रैलियां ही चुनाव माहौल को बनाया करती थीं।
चुनाव प्रचार विश्लेषण पर नज़र रखने वाले नीरज वत्स कहते हैं कि अभी पहाड़ों पर इंटरनेट बहुत जगह नहीं है इसलिए वहां डिजिटल प्रचार कारगर साबित नही हुआ है। चुनाव का रंग फीका है, झंडे बैनरों का अभाव दिख रहा है। कोविड के नियमों की बंदिश में जिस पार्टी के कार्यकर्ता डोर टू डोर पहुंच कर प्रचार करेंगे तो वो ज्यादा प्रभाव डालेंगे। विश्लेषक हिमांशु अग्रवाल कहते हैं कि डिजिटल तकनीक से प्रचार में ग्लैमर तो है किंतु रिजल्ट नहीं है। अपने ही लोग डिजिटल मीडिया में प्रचार कर रहे हैं और अपने ही देख रहे हैं। आम मतदाता पर इसका कोई असर नहीं दिख रहा।
मेरठ के श्याम परमार का कहना है कि डिजिटल प्रचार एक महंगा फैशन है किंतु इसका असर क्षणिक है, देर तक इसका प्रभाव नही है। प्रत्याशी यदि खुद कहीं जाकर पांच मिनट में अपनी बात कहेगा तो उसका ज्यादा असर है। आम मतदाता क्यों आपको लाइव देखेगा? उसे क्या जरूरत है आप पर अपना नेट खर्च करे।
टिप्पणियाँ