भारत में अनेक संस्थाएं कुष्ठ रोगियों के लिए कार्य करती हैं। उनमें से एक बड़ी संस्था है- ‘भारतीय कुष्ठ निवारक संघ।’ यह छत्तीसगढ़ में चांपा के कात्रे नगर में स्थित है। इसका परिसर 100 एकड़ में है। इसे कुष्ठाश्रम भी कहा जाता है। 1962 में श्री सदाशिव गोविंद कात्रे द्वारा स्थापित और पद्मश्री डॉ. दामोदर गणेश बापट द्वारा पोषित ‘भारतीय कुष्ठ निवारक संघ’ आज हजारों कुष्ठ रोगियों को रोग-मुक्त कर उन्हें स्वाभिमानी जीवन दे रहा है। वर्तमान में इसके सचिव हैं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता श्री सुधीर देव। उन्होंने बताया, ‘‘अब तक 5,000 से अधिक कुष्ठ रोगी यहां से ठीक होकर समाज में सामान्य जीवन जी रहे हैं।’’ उन्होंने यह भी बताया कि कुष्ठ रोगियों के साथ सबसे बड़ी समस्या होती है कि बीमारी होते ही घर वाले उनकी उपेक्षा करने लगते हैं और कई लोग तो घर से बाहर कर देते हैं। ऐसे में ये लोग भिक्षावृत्ति के जरिए ही जीवन-यापन करने को बाध्य हो जाते हैं। इसलिए कुष्ठ निवारक संघ ऐसे रोगियों को ठीक करने के साथ ही उनके लिए रोजगार का भी प्रबंध कर रहा है। इस कारण यहां से ठीक होकर निकले लोगों में से कोई भिक्षा नहीं मांगता। ये लोग कुष्ठ निवारक संघ की देखरेख में कहीं चॉक बनाने का काम करते हैं, तो कहीं सीमेंट की बोरियों से प्लास्टिक निकालकर रस्सी बनाते हैं। कोई जैविक खाद बनाने में लगा है, तो कोई खेती कर रहा है।
आश्रम के परिसर में एक अस्पताल है, जहां कुष्ठ रोगियों के इलाज की समुचित व्यवस्था है। इस समय यहां लगभग 145 कुष्ठ रोगी अपनी चिकित्सा करा रहे हैं। इनके रहने, खाने, वस्त्र आदि की पूरी व्यवस्था आश्रम ही करता है। रोगियों में अधिकतर 60 वर्ष के ऊपर के हैं। इसके बावजूद ये लोग संस्था के किसी न किसी काम में हाथ बंटाते हैं। ऐसी ही एक महिला हैं भगवन्तीन बाई। मध्य प्रदेश के गोरिला पिंडरा की रहने वाली हैं। भगवन्तीन यहां लगभग 30 साल से इलाज करा रही हैं। करीब 35 वर्ष की आयु में उन्हें कुष्ठ रोग हो गया। परिजनों ने घर से निकाल दिया तो भिक्षा मांगकर गुजारा करने लगीं। संघ के एक कार्यकर्ता ने बापट जी के नाम उन्हें एक चिट्ठी देकर भारतीय कुष्ठ निवारक संघ में भेजा। हाथ-पैर की सारी अंगुलियां टेढ़ी हो चुकी थीं। बापट जी ने उनकी दशा देखी तो खुद ही उनका इलाज शुरू कर दिया। अब भी वह दवा खाती हैं। उनके हाथ-पैर ठीक से काम नहीं करते हैं, इसके बावजूद वह संस्था के लिए कुछ न कुछ करती रहती हैं। लोग उन्हें चाची कहते हैं। भगवन्तीन कहती हैं, ‘‘कुष्ठ रोग ने मेरे इस जीवन को तो नष्ट कर दिया, लेकिन कुष्ठ निवारक संघ ने मुझे अगले जीवन को सुधारने का अवसर दिया। यहां दूसरों के लिए कुछ करने का मौका मिला है। उम्मीद है कि मेरा अगला जीवन सुखी और निरोगी होगा।’’ 70 वर्षीय गोवर्धन भैना उर्फ दीवान जी भी 45 वर्ष से यहां रह रहे हैं। पास के ही नवागढ़ प्रखंड के निवासी हैं। इन्हें भी जब कुष्ठ रोग हुआ तो घर से निकाल दिया गया। अब इनके लिए भी यह परिसर ही सब कुछ है। इनके हाथ-पैर में भयंकर तकलीफ है। रोजाना दवाई खाते हैं।
क्यों होता है कुष्ठ रोगपहले समाज में यह धारणा थी कि कुष्ठ रोग किसी पाप का फल है और छूत की बीमारी है। इस कारण ऐसे लोगों को घर से निकलने के लिए मजबूर कर दिया जाता था। लेकिन चिकित्सा विज्ञान इसे केवल एक बीमारी मानता है और इसका कारगर इलाज भी बताता है। दिल्ली में दिलशाद गार्डन के पास ताहिरपुर में कुष्ठ रोगियों की 30 साल से चिकित्सा करने वाले डॉ. हरेन्द्र कुमार कहते हैं, ‘‘कुष्ठ रोग बायोक्रेम बैक्ट्रियम लेपरी वायरस के कारण होता है। यह वायरस शरीर के तंत्रिका तंत्र को सुन्न कर देता है। इस कारण रोगी को पहले दर्द भी नहीं होता और बीमारी हड्डियों तक को प्रभावित कर देती है। इसलिए हाथ-पैर की अंगुलियां टेढ़ी हो जाती हैं और शरीर में घाव बन जाते हैं। इसके बाद रोगी का कष्ट बढ़ जाता है। यदि समय पर इलाज हो जाए तो बीमारी समाप्त हो सकती है और देर होने पर उसे केवल नियंत्रित किया जा सकता है, पूरी तरह ठीक नहीं किया जा सकता।’’
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कहते हैं, ‘‘आज तक मैंने उस अदृश्य शक्ति को तो नहीं देखा है, जिसे भगवान कहा जाता है, लेकिन बापट जी के रूप में मैंने भगवान को देखा है।’’ इन दिनों दीवान जी आश्रम के संचालन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यही कारण है कि इतने बड़े आश्रम को चलाने के लिए कोई ‘कर्मचारी’ नहीं रखना पड़ता। संस्था के व्यवस्थापक नारायण देव शर्मा कहते हैं, ‘‘कोई सामान्य व्यक्ति इस तरह के आश्रम में काम नहीं करना चाहता। इस कारण शुरू-शुरू में इसके संचालन में बहुत दिक्कत हुई। निर्णय लिया गया कि जो लोग यहां इलाज करा रहे हैं, उन्हें ही दैनिक कार्य के लिए प्रेरित किया जाए। अब तो हर कार्य चाहे खाना बनाना हो, साफ-सफाई हो, कृषि कार्य हो, कार्यालय सहायक हो या गोपालन हो, इस तरह के काम यहां इलाज करा रहे वे लोग ही करते हैं, जो कुछ करने में सक्षम हैं। चालक, इलेक्ट्रिशियन, कंप्यूटर आपरेटर और इसी तरह के अन्य तकनीकी कार्यों के लिए ऐसे ही लोगों को प्रशिक्षित कर कार्य में लगाया जाता है।’’
बचे ईसाइयत से बच्चेबापट जी ने आश्रम के परिसर में गरीब और असहाय बच्चों के लिए एक नि:शुल्क छात्रावास भी शुरू किया। यहां रहने वाले बच्चे विभिन्न विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ते हैं। आज यहां से पढ़कर निकले अनेक छात्र समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रें में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। वहीं बहुत सारे छात्र ऊंची शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। ऐसी ही एक छात्र हैं पार्वती भैना। पार्वती इन दिनों कोरबा से एलएलबी कर रही हैं। पार्वती के जन्म लेते ही कोई उसे आश्रम के पास छोड़ गया था। चूंकि इतनी छोटी बच्ची को आश्रम में रखने की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए उसे एक कार्यकर्ता को पालने के लिए दे दिया गया। जब पार्वती पढ़ने योग्य हुई, तब उसकी पढ़ाई की व्यवस्था आश्रम में की गई। जिस कार्यकर्ता ने पार्वती को पाला उसकी ही जाति पार्वती को दे दी गई। पार्वती कहती हैं, ‘‘मुझे नहीं पता कि मेरे वास्तविक माता-पिता कौन हैं और वे इस दुनिया में हैं भी या नहीं, लेकिन मुझे यह पता है कि मेरा बहुत बड़ा घर है और मेरे सगे-संबंधी भी हैं। मेरा घर भारतीय कुष्ठ निवारक संघ है और वहां के कार्यकर्ता मेरे सगे-संबंधी हैं।’’ |
ऐसे हुई स्थापना
भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की स्थापना श्री सदाशिव गोविंद कात्रे ने 1962 में की। इसके पीछे एक बहुत ही मार्मिक घटना है। कात्रे जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे और उन दिनों झांसी में रेलवे में कार्यरत थे। अचानक उन्हें कुष्ठ रोग हो गया। इसके बाद रेलवे के साथी कर्मचारी और उनके घर वाले भी उनसे दूरी बनाने लगे। उन दिनों झांसी में उनके साथ केवल उनकी एक बेटी थी, पत्नी का निधन हो गया था। लोगों की उपेक्षा से वे बेचैन हो गए। एक दिन उन्होंने अपनी बेटी को छात्रावास में भर्ती कराकर इलाज कराने के लिए बैतलपुर के एक ईसाई अस्पताल में गए। वहां उन्होंने देखा कि जो लोग ईसाई बन गए हैं, उनके लिए अलग अच्छी व्यवस्था है और जो लोग ईसाई नहीं हैं, उनकी उपेक्षा की जा रही है, ताकि वे ईसाई बन जाएं। यह बात उन्हें अच्छी नहीं लगी। उन्होंने इसकी शिकायत मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल हरिविष्णु पाटसकर से मिलकर की। पाटसकर जी ने उनसे कहा कि वह निजी अस्पताल है। इसलिए सरकार उस पर कुछ नहीं कर सकती। इसके साथ ही उन्होंने उनसे यह भी कहा कि यदि वहां भेदभाव होता है, तो तुम एक ऐसा ही अस्पताल क्यों नहीं बनाने का प्रयास करते, जहां किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा।
कात्रे जी को उनकी यह बात अच्छी लगी। इसके बाद वे नागपुर में संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी से मिले और उन्हें बताया कि कुष्ठ रोगियों के लिए एक अस्पताल खोलने का विचार है। श्रीगुरुजी ने उनसे कहा कि अस्पताल के संचालन की पूरी जानकारी लेने के बाद ही कुछ करो। इसके साथ ही उन्होंने कात्रे जी को अमरावती में ‘तपोवन’ नाम से एक संस्था चलाने वाले शिवाजीराव पटवर्धन के नाम से एक पत्र देकर उन्हें उनके पास भेज दिया। कात्रे जी वहां नौ महीने तक रहे और अस्पताल संचालन के बारे में सारी जानकारी ली। इसके बाद वे एक बार फिर से श्रीगुरुजी से मिले। इस बार श्रीगुरुजी ने कात्रे जी को चांपा के कुछ संघ कार्यकर्ताओं के नाम एक पत्र दिया और कहा कि वहां जाकर उनकी मदद से अपना कार्य शुरू करें। वह वर्ष था 1961 का। कात्रे जी वहां गए। इसके कुछ दिन बाद ही 1962 के आम चुनाव की घोषणा हुई। जनसंघ के एक कार्यकर्ता जीवनलाल साह को टिकट मिला तो उन्होंने कात्रे जी से निवेदन किया कि वे चुनाव तक कार्यालय का कार्य संभाल दें। कात्रे जी तैयार हो गए और चुनाव में उनकी मदद की। संयोग से जीवनलाल साह चुनाव जीत गए। इसके बाद उन्होंने अपने एक मित्र से कात्रे जी का सहयोग करने को कहा।
उनका एक छोटा भूखंड चांपा नगर से सात किलोमीटर की दूरी पर था, वहां एक झुग्गी भी थी। उसी को उन्होंने कात्रे जी को दे दिया। वहीं कात्रे जी ने तीन कुष्ठ रोगियों की सेवा शुरू की। इसके साथ ही ‘भारतीय कुष्ठ निवारक संघ’ का जन्म हुआ। बाद में स्थानीय लोगों ने भी इसके लिए जमीन दी।आश्रम को चलाने के लिए कात्रे जी आसपास के गांवों में जाते और लोगों से मदद करने की अपील करते। कई लोग उनकी मदद करते, तो कुछ उन्हें झिड़क देते। सीधे शब्दों में तो कहें तो कात्रे जी ने इस संगठन को चलाने के लिए भीख तक मांगी। बाद में वे अपने विचार परिवार के कार्यकर्ताओं के घर जाने लगे और वहां एक मटका रख देते। फिर वे महिलाओं से आग्रह करते कि मटके में प्रतिदिन एक मुट्ठी चावल रख दें।
जब यह भर जाएगा तो मैं खुद ले जाऊंगा। इससे आश्रम में रहने वाले लोगों के भोजन का प्रबंध हुआ। जैसे-जैसे आश्रम का काम बढ़ने लगा तो और चीजों की आवश्यकता होने लगी। कात्रे जी ने लोगों से आग्रह किया कि एक रु. महीने या 12 रु. सालाना मदद दें। दान का एक पैसा भी वे अपने लिए खर्च नहीं करते। उल्टे वे अपनी पेंशन को भी लोगों की सेवा में खर्च कर देते।
बापट जी का पदार्पण
एक रोगी होते हुए भी कात्रे जी दिन-रात मेहनत करते। इस कारण कुछ वर्षों बाद वे पूरी तरह अशक्त हो गए। उन्होंने श्रीगुरुजी से आग्रह किया कि आश्रम को चलाने के लिए एक कार्यकर्ता भेजें। उनके आग्रह पर ही 1972 में डॉ. दामोदर गणेश बापट को वनवासी कल्याण आश्रम से मुक्त कर चांपा भेजा गया। वे वनवासी कल्याण आश्रम में पढ़ाने का काम करते थे। इससे पहले 1970 में उन्होंने रायगढ़ से जशपुर जाते समय चांपा रेलवे स्टेशन पर कुष्ठ रोगियों की पीड़ा देखीे थी। उस समय वे आश्रम जाकर कात्रे जी से भी मिले थे। इसलिए उन्हें कुष्ठ रोगियों के बारे में पूरी जानकारी थी। यही कारण है कि जैसे ही उन्हें इस काम के बारे में बताया गया वे सहर्ष तैयार हो गए।
इसके बाद उन्होंने कुष्ठ रोगियों की सेवा को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। इसे उन्होंने 2019 के अगस्त महीने के उस समय तक निभाया जब तक कि उनकी अंतिम सांस नहीं निकल गई। वे स्वयं कुष्ठ रोगियों की मरहम-पट्टी किया करते थे। इसके साथ ही उन्होंने कुष्ठ रोगियों के स्वस्थ बच्चों की पढ़ाई की भी व्यवस्था की। आज ऐसे अनगिनत बच्चे पढ़-लिखकर देश की सेवा कर रहे हैं। उनकी यह नि:स्वार्थ सेवा 45 वर्ष तक चली। इसे देखते हुए ही उन्हें 2018 में भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया।
बापट जी मूल रूप से महाराष्ट्र के अमरावती जिले की दयार्पुर तहसील के ग्राम पथरोट के रहने वाले थे। उनका जन्म 29 अप्रैल, 1935 को एक साधारण परिवार में हुआ। पिता गणेश विनायक बापट रेलवे में थे और मां लक्ष्मीबाई गणेश बापट घर संभालती थीं। बापट जी ने एम. कॉम करने के बाद बालासाहब देशपांडे के आह्वान पर समाज सेवा करने का निर्णय लिया।
आज बापट जी के खून-पसीने के बल पर ही भारतीय कुष्ठ निवारक संघ रूपी विशाल वट वृक्ष तन कर खड़ा है और इस पर अनगिनत पक्षियों का डेरा है।
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