गिरिलाल जैन
जो लोग बांग्लादेशी घुसपैठियों को देश के लिए गंभीर समस्या या खतरा नहीं मानते, वे या तो ईमानदार नहीं हैं या परले दर्जे के बुद्धिहीन हैं। अगर इस घुसपैठ पर तुरंत नियंत्रण नहीं किया गया तो आने वाले वर्षों में इसकी बाढ़ हम सब को घेर लेगी। बांग्लादेश की आजादी के पहले वहां से बड़ी संख्या में बंगाली बिना पासपोर्ट या वैध कागजों के भारत में आए। लिहाजा बांग्लादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान के साथ भारत ने एक समझौता किया, जिसके मुताबिक एक निश्चित तारीख के बाद भारत आने वाले लोगों को वापस भेजा जाना था। लेकिन यह समझौता कागजों तक ही सीमित रह गया, क्योंकि इसके बाद भी बड़ी संख्या में पूर्वांचल क्षेत्र में घुसपैठ जारी रही।
70 और 80 के दशक में अवैध घुसपैठ को लेकर असम में दीर्घकालिक आंदोलन भी हुए। लेकिन आंदोलनकारियों ने, जिनमें अधिकांश हिंदू थे, हिंदू और मुस्लिम घुसपैठियों के बीच फर्क नहीं किया और सभी को वापस बांग्लादेश भेजने की मांग उठाई। इस आंदोलन की वजह से आॅल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसु) तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ एक समझौता करने में सफल रही और उसके नेता चुनाव जीतकर सत्ता में भी आए, लेकिन इससे कोई समाधान नहीं निकला। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह प्रयास किया था कि आंदोलनकारी बांग्लादेश से आ रहे हिंदू शरणार्थियों और मुस्लिम घुसपैठियों के बीच अंतर को समझें। बाद के वर्षों में जब भाजपा सत्ता में आई तो उसने न केवल विवादास्पद मुद्दों को गंभीरता से लिया, बल्कि इस बात पर भी जोर दिया कि बांग्लादेश में असुरक्षा और दमन के कारण भाग कर आ रहे हिंदू शरणार्थियों तथा मुस्लिम घुसपैठियों में अंतर किया जाए जो केवल आर्थिक अवसर और अनेक कारणों से घुसपैठ कर रहे हैं।
दरअसल, विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में हिंदुओं से भेदभाव हुआ। पश्चिम पाकिस्तान के हिंदुओं और सिखों की तरह पूर्वी बंगाल से जनसंख्या के स्थानांतरण पर कोई पारस्परिक सहमत प्रक्रिया नहीं हुई थी। यानी बांग्लादेश के हिंदुओं को अपना देश चुनने का कोई अवसर नहीं दिया गया था। 1971 में पाकिस्तानी सेना के दमन और अत्याचारों से त्रस्त करीब एक करोड़ शरणार्थी, जिनमें हिंदुओं की संख्या अधिक थी, भारत में आए। बाद में जब बांग्लादेश आजाद हुआ तो वे इस आशा से लौटे कि वहां उन्हें न्याय मिलेगा। लेकिन हिंदुओं की संपत्तियों पर दूसरों ने कब्जा जमा लिया था, जिन्हें दोबारा हासिल करना उनके लिए संभव नहीं था। उस समय बांग्लादेश में शेख मुजीबुर्रहमान की सरकार थी और भारत में इंदिरा गांधी की।
बाद के वर्षों में बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता आई और इस्लामी कट्टरता भी बढ़ी, जिससे हिंदुओं की मुश्किलें और बढ़ गईं। बांग्लादेश से सटे सीमांत राज्यों में या तो कांग्रेस का राज था या मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का। दोनों ही मुस्लिम घुसपैठियों को अपना वोट बैंक मानती हैं। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम घुसपैठियों पर चिंता जताते हुए बंगाल के पूर्व राज्यपाल राजेश्वर ने जब अपने लेखों में यह कहा कि अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ के कारण राज्य का जनसंख्या अनुपात बहुत अधिक बदल गया है तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने इस पर नाराजगी जताई थी। इसी तरह कांग्रेस जब फिर से असम की सत्ता में आई तो घुसपैठ का मुद्दा ही गायब था। भारत की जनता भी बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति और लगातार हो रही मुस्लिम घुसपैठ के नतीजों से ज्यादा चिंतित नहीं है। भाजपा को इस लापरवाही या उपेक्षा को दूर करना होगा। भाजपा मुस्लिम घुसपैठ के खिलाफ है, पर देश के मुस्लिम समुदाय के प्रति उसका व्यवहार भेदभाव पूर्ण नहीं है। घुसपैठ के मुद्दे पर भाजपा का रुख भारत को एक हिंदू देश के नाते पुन: परिभाषित करने से संबंधित है। एक ऐसा देश जो अन्य देशों में हिंदुओं के दमन के प्रति चिंतित हो और उन्हें अपने यहां प्रवेश की अनुमति देने के लिए इच्छुक हो।
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