बांग्लादेश में चिटगांव के सीताकुण्ड क्षेत्र में ईसा पूर्व काल से विश्व का गहरे पानी का अति प्राचीन प्राकृतिक बन्दरगाह रहा है। उस काल में रोम सहित पश्चिमी यूरोप के बन्दरगाहों को दक्षिण-पूर्व एशिया से जोड़ने वाला यह विशालतम व्यापारिक बन्दरगाह था। रामायणकालीन सीताकुण्ड के पास ही पहाड़ी पर चन्द्र्रनाथ शक्तिपीठ व विरुपाक्ष शिव मन्दिर है। कर्नाटक के हम्पी और ओडिशा के कंधमाल के बाद यह तीसरा प्रमुख विरुपाक्ष मन्दिर है। अखण्ड भारत स्थित प्राचीन शक्तिपीठों में से कई 1947 में देश विभाजन के कारण पाकिस्तान व बांग्लादेश में चले गए। वृहत्तर भारत के कुछ शक्तिपीठ तिब्बत, नेपाल व श्रीलंका में भी हैं।
चिटगांव नामकरण व उसकी प्राचीनता
ईस्वी प्रथम शताब्दी के रोमन इतिहासकार ‘प्लीनी दी एल्डर’ (23-79 ईस्वी) के अनुसार यह प्राचीन बन्दरगाह ‘सीताकुण्ड के पास स्थित गंगाबाजार बन्दरगाह’ कहलाता रहा है। ‘गेयस प्लीनस सेकण्ड्स’ उपाख्य ‘प्लीनी दी एल्डर’ के ग्रीको रोमन पेरिप्लस, ‘पेरिप्लस आॅफ दी इरीथ्रियन सी’ नामक ईस्वी प्रथम सदी की पुस्तक में इसे ईस्वी पूर्व सदियों का पूर्वी जगत का सबसे बड़ा बन्दरगाह बताया गया है। प्लीनी ने इसे गंगाबाजार लिखा है। बांग्ला उच्चारण के अनुसार इसे ‘जी.ओ.एन.जी.जी.ए’ अर्थात् गंगा के रूप में लिखा है। सीताकुण्ड स्थित गंगाबाजार बन्दरगाह से ही कालान्तर में यह चिटगांव या चटगांव नामकरण हो गया। इस्लाम के उदय से 600 वर्ष पूर्व ही प्लीनी ने इसे ‘सीताकुण्ड का गंगाबाजार बन्दरगाह’ कहा था। तेरहवीं सदी से बंगाल में हुए इस्लामी कन्वर्जन के बाद भी 16वीं से 18वीं सदी के मुगल शासन में भी बंगाल हिन्दू संस्कृति प्रधान प्रदेश था। इसके बाद 1870 के दशक में भी बंगाल में 1.8 करोड़ हिन्दू व 1.6 करोड़ मुस्लिम थे। वहां 1890 के दशक के बाद 1900 से जनसंख्या में मुस्लिम अनुपात बढ़ा जिससे बंगाल का विभाजन हो दो-तिहाई पूर्वी बंगाल पाकिस्तान में गया। ‘‘बांग्लादेश का इस्लामी गणराज्य’’ बना। इस प्रकार जनसांख्यिक अनुपात उलटने से पश्चिम को दक्षिण-पूर्व एशिया से जोड़ने वाला ईस्वी सदियों के पूर्व का यह सबसे बड़ा व्यापारिक बन्दरगाह विदेशी हो गया। बांग्लादेश के चिटगांव कस्टम हाउस के अभिलेखों के अनुसार तो यह ईसा पूर्व चौथी सदी से व्यापारिक बन्दरगाह रहा है।
दूसरी सदी के भूगोलवेत्ता क्लाडियस टालेमी ने भी विश्व मानचित्र में चिटगांव को उस कालखण्ड का सर्वाधिक प्रभावशाली बन्दरगाह बतलाया है। चिटगांव ईसा पूर्व चौथी सदी से ‘समाताता’ रियासत का भाग रहा है। चन्द्र्रगुप्त मौर्य के काल में बांग्लादेश के ढाका, सिल्हेर, बारीसाल, चिटगांव व म्यांमार के राखीन क्षेत्रों से मिलकर समताता हिन्दू साम्राज्य बनता था। आठवीं सदी से यह हरिकेल हिन्दू साम्राज्य का भाग रहा है, जहां चिटगांव देव राजवंश, चन्द्र्र राजवंश व सेन राजवंश के हिन्दू साम्राज्यों के अधीन रहा है। इस प्रकार 17वीं सदी में मुगलों के नियंत्रण से पूर्व यह क्षेत्र स्थानीय भारतीय राजवंशों के शासन में रहा है।
चिटगांव के शक्तिपीठ व प्रमुख प्राचीन मन्दिर चिटगांव में चन्द्रनाथ शक्तिपीठ के अतिरिक्त लगभग 15 प्रमुख प्राचीन मन्दिरों सहित 250 से अधिक उत्कृष्ट मन्दिर हैं।
- चन्द्र्रनाथ धाम : यह शक्तिपीठ त्रेतायुगीन सीताकुण्ड क्षेत्र में चन्द्रनाथ की पहाड़ी पर स्थित है, जहां माता सती की दाहिनी भुजा का निपात हुआ था (चित्र 1-3)। पहाड़ी की चढ़ाई के मध्य आधी चढ़ाई पर विरुपाक्ष मन्दिर स्थित है (चित्र 4)। शक्तिपीठ के साथ वहां चन्द्रनाथ शिवलिंग भी है।
- चट्टेश्वरी मन्दिर : मां काली के इस मन्दिर का शक्तिपीठ जितना महत्व है। बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय पाक सैनिकों द्वारा इस मन्दिर व प्रतिमाओं को क्षति पहुंचाने के बाद वर्तमान नई प्रतिमा की प्रतिष्ठा की गई थी (चित्र 5)
- प्राचीन आदिनाथ मन्दिर : महेशखली द्वीप स्थित आदिनाथ भगवान शंकर का यह मन्दिर अत्यंत प्राचीन व आस्था का प्रमुख केन्द्र है (चित्र । कॉक्स बाजार के गोरखघाट प्रखण्ड में मयंक नामक पहाड़ी पर यहां गुरु गोरखनाथ, उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ व उनके भी गुरु मीननाथ ने तप किया था। ग्यारहवीं सदी से यहां फाल्गुन मास में 13 दिन का भव्य मेला लगता है, जिसमें प्रतिवर्ष 1 लाख तक हिन्दू, मुस्लिम व बौद्ध दर्शनार्थी आते हैं। यह प्रतिमा नेपाल से लाई थी। यहां एक प्राचीन स्वयंभू शिवलिंग भी है।
ढाका ट्रिब्यून के 13 फरवरी, 2017 के अंक में महेशखलीज आदिनाथ ‘टेम्पल इन डिके ड्यू टू नेग्लेक्ट’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में कॉक्स बाजार के पत्रकार अब्दुल अजीज के अनुसार यह मन्दिर 3000 वर्ष से भी प्राचीन है। यहां विश्वभर से दर्शनार्थी आते हैं, जिनमें हिन्दू व गैर हिन्दू दोनों ही होते हैं। पांथिक समन्वय व सांस्कृतिक एकता की दृष्टि से इस मन्दिर व मेले से मुस्लिम समुदाय भी सम्बन्ध बनाए हुए है।
- कोमिल्ला जगन्नाथ : चिटगांव के कोमिल्ला जिले के इस मन्दिर का निर्माण त्रिपुरा के राजा रत्नामाणिक्य ने 16वीं सदी में चैतन्य महाप्रभु की प्रेरणा से कराया। मन्दिर में भगवान श्रीकृष्ण, बलराम व बहिन सुभद्रा जी सहित जगन्नाथ के वाहन पक्षीराज गरुड़ की सुन्दर प्रतिमाएं हैं (चित्र 7-9)। वहां रथयात्रा का आयोजन होता है। आठवीं सदी से कोमिल्ला त्रिपुरा के ‘देव साम्राज्य’ के अधीन था फिर 1765 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नियंत्रण में आया। ईसा पूर्व तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख और महाभारत व पुराणों में त्रिपुरा को किरात देश कहा गया है।
- गोपीनाथ जियु मन्दिर: राधाकृष्ण, भगवान जगन्नाथ एवं चैतन्य महाप्रभु का प्राचीन मन्दिर 1360 ईस्वी का है, इसमें चैतन्य महाप्रभु की प्रतिमा 16वीं सदी में उनके स्वर्गारोहरण के बाद स्थापित की गई थी। यहां प्रतिवर्ष कृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी गौरपूर्णिमा, रथयात्रा, डोलयात्रा, जलझूलनी एकादशी व भागवत कथा पारायण आदि नियमित मनाये जाते हैं।
काल भैरव मन्दिर : भगवान शिव को समर्पित इस मन्दिर में काल भैरव की 28 फुट ऊंची प्रतिमा थी जिसे बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा डाइनामाइट से क्षतिग्रस्त कर देने के बाद नई प्रतिमा की स्थापना की गई। इससकी ऊंचाई अब 24 फुट ही है। विश्व कालभैरव की ऐसी प्रतिमा दूसरी नहीं है।
लाल माई चण्डी मन्दिर : यह रानी प्रभावती द्वारा बनवाया सातवीं सदी का काली मन्दिर है। इसका 12वीं सदी में त्रिपुरा के महाराजा ने पुनर्निर्माण करवाया था। अंतिम पुनर्निर्माण 1972-73 में कराया गया, जब 1971 में पाकिस्तानी सैनिकों ने इसे क्षतिग्रस्त कर दिया था। इस प्रकार त्रेतायुगीन सीताकुण्ड के पास ईसा पूर्व काल का यह क्षेत्र गंगाबाजार बन्दरगाह और यहां के शक्तिपीठ सहित विविध मन्दिर ऐतिहासिक महत्व के आस्था केन्द्र्र रहे हैं। यहां पर्वों के अवसर पर भारत से भी तीर्थ यात्री जाते रहे हैं।
(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति रहे हैं)
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